तेंतर

तेंतर

महान साहित्यकार, समाजसेवी, युगदृष्टा, युगपुरुष प्रेमचंद जी का जन्म ३१ जुलाई सन १८८० में बनारस के पास मगही गाँव में हुआ था. बचपन का नाम धनपत राय था. घोर गरीबी, सौतेली माँ के दुर्व्यवहार और  पिता की अकाल मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया. बमुश्किल मैट्रिक की परीक्षा दे सके.
प्रतिकूल परिस्थियां भी उनके साहित्य प्रेम व् पढ़ने के शौक पर हावी न हो सकी. तेरह वर्ष की उम्र से जो लिखने का सफ़र शुरू किया वह मरते दम तक चला.
जीवन की विषमताओं के कारण वे जीवन पर्यंत आस्थावादी न बन सके.
प्रेमचंद महान दार्शनिक थे. विभिन्न धर्मों की रुढिवादिता से तंग आकर उन्होंने वसुधैव-कुटुम्बकम की परम्परा में  मानवतावादी धर्म को अपनाया.
प्रेमचंद जी ने प्रमुखतः बाल-विवाह, विधवा-विवाह, नारी-शिक्षा, पुरुष-नारी समानता, छुआछूत, धार्मिक सहिष्णुता, साम्प्रदायिक सौहाद्र पर लिखा.
नशा, पूस की रात, कफ़न, ईदगाह, ठाकुर का कुआं, शतरंज के खिलाड़ी इत्यादि प्रेमचंद जी की लगभग  सभी कहानियां समाज में व्याप्त किसी न किसी समस्या की मार्मिक तस्वीर प्रस्तुत करती है. अनेक कहानियां पाठ्यक्रम में होने की वजह से सभी ने उन कहानियों को खूब-खूब पढ़ा.. और सराहा.. 
मैंने उन प्रमुख प्रसिद्ध कहानियों के अलावा भी प्रेमचंद जी की बहुत सी कहानियां पढ़ीं हैं..  प्रसिद्ध कहानियों पर चर्चा भी बहुत हुई है..  इसलिए आज मैं प्रेमचंद की एक ऎसी रोचक कहानी पर चर्चा करना चाहूंगी जिसका विषय मेरे दिल के करीब है. कहानी का शीर्षक है… “तेंतर” इस कहानी का अंत सकारात्मक एवं सुखद है. संवेदनशीलता से ओत-प्रोत यह कहानी अंधविश्वास पर से पर्दा हटाती है. 
तीन पुत्रों  के बाद जन्मी  कन्या को तेंतर कहते हैं.. प्रेमचंदकालीन समाज में तेंतर परिवार व कुल के लिए अभागिनी मानी जाती थी. इसलिए उसका पालन-पोषण अरुचि व बेमन से होता था.  माँ उसे अपना दूध भी पिलाने से कतराती.. वह इतनी निराश और डरी हुई होती कि दूध उतरता ही नहीं.. परिवार, समाज और विशेषकर सास की प्रताड़ना के भय से उसका रोम-रोम काँप जाता और वह कन्या की मृत्यु की कामना करती हुई सोचती … “भगवान सातवें शत्रु के घर भी तेंतर का जन्म न दे.”    पुरानी मानसिकता के लोग, खासकर गावों में आज भी तीन पुत्रों के बाद जन्मी कन्या को कुल का नाश करने वाली मानते हैं.. जबकि तीन कन्या के बाद पुत्र का जन्म आनन्दोत्सव का विषय होता है..
 प्रेमचंद जी ने इस कहानी में घटनाओं का बहुत ही खूबसूरती से चित्रण किया है। घर दो ख़ेमे में बंट जाता है. पिता और तीनों भाई एक तरफ़, माँ और दादी एक तरफ… बकरी का दूध पिलाकर जब बाप ने लड़की को तंदुरुस्त कर दिया तो वृद्धा बहू पर इल्ज़ाम लगाती कि बहु साँप को पाल रही है, खूब दूध पीला रही है.. बहु काँप जाती और सफाई देने लगती… भाइयों को उसके साथ खेलने में मज़ा आने लगा तो वृद्धा ने अपनी बात रखने, अंधविश्वास को सच साबित करने,  और कन्या को  कुल नाशिनी साबित करने के लिए एक नाटक रचा और झूठ-मूठ खटिया पकड़ ली.. हाय-हाय कर उसे कोसने लगी.. गाँव वालों को इकट्ठा कर लिया, पेट दर्द का बहाना बना खटिया पर पड़ी रहती…. पूड़ी-कचौड़ी, मलाई-केले खाते वक्त उसे कोई पीड़ा न होती..   जब देखा कि उनकी एक न चलेगी तो कहने लगी, “देखो मैं मर जाऊँ तो इसे कष्ट मत देना.. अच्छा हुआ यह मेरे सर ही आई..”  नाटक का अंत तब हुआ जब दुर्गा पाठ, गोदान और भोज हुआ.. कहानी पढ़ते समय पाठक के मन में गुदगुदी सी होती है..और अंधविश्वास की कलई खुल जाती है..’तेंतर’ प्रेमचंद जी की सफलतम कहानियों में से एक है, जो अंधिश्वास पर चोट करती है…

सुधा गोयल ‘नवीन’
शिक्षा- एम.ए( हिंदी ) इलाहाबाद विश्वविद्यालय 
प्रकाशित पुस्तकें- हंस, वनिता आदि अनेक पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में कविता, कहानियों, लेख, संस्मरण का प्रकाशन। 
आकाशवाणी से प्रसारण,दो कहानी संग्रह प्रकाशित   लेखन की विधाएं- कहानी, कवितायें, लेख, यात्रा संस्मरण,जमशेदपुर एंथम का लेखन।                        
                         

                                     

0