कलम के सिपाही

कलम के सिपाही

सादर नमन महान उपन्यासकार, कथाकार धनपत राय को। कालजयी कथाकार मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं का संसार इतना बृहत् है कि उस में डुबकी लगाकर उनकी किसी रचना विशेष को चुनना अनंत गहरे सागर में मोती चुनने के समान है। ‘कलम के जादूगर’की जादूगरी में से यदि किसी एक कृति को चुनने को कहा जाए तो प्रेमचंद जी की लिखी हुई कहानी’बड़े घर की बेटी’ मुझे सबसे अधिक पसंद है इस कहानी में कथाकार ने दिखाया है कि कैसे एक बेटी-एक पत्नी-एक स्त्री रूप अपने विचारों की पराकाष्ठा,अपने चरित्र की उत्कृष्टता को अपने व्यवहार से साबित करती है।आनंदी के पिता ने अपनी गुणी बेटी के लिए वर का चयन करते समय श्रीकंठ सिंह के केवल गुणों को महत्त्व दिया(चाहे उसके पीछे आर्थिक संकट भी एक कारण रहा हो)।आनंदी जो कभी आर्थिक रूप से संपन्न रहे एक बड़े घर की,ऐशो-आराम में पली लाडली बेटी थी,उसने अपने ऐशो-आराम की सारी आदतों के विपरीत अपने ससुराल के साधारण से घर में स्वयं को ऐसे ढाल लिया मानो विलासिता से कभी उसका संबंध ही न रहा हो। यह स्त्री के लचीले स्वभाव का बेहतरीन उदाहरण है। उस घर में रच-बस कर, उसके सदस्यों को अपनाकर उसने अपनी खुशहाल गृहस्थी जमाने का प्रयास आरंभ किया।वह विचारों से आधुनिक व स्वतंत्र थी।उसके विचारानुसार संयुक्त परिवार अच्छा होता है परंतु यदि किसी सदस्य का उसमें निर्वाह न हो रहा हो या किसी की प्रतिभा कुंठित हो रही हो,उन्नति के मार्ग में अवरोध आ रहा हो,आए दिन घर में कलह हो रहा हो तो अलग रहकर अपनी खिचड़ी अलग पकाना ही सही है।लेखक व आनंदी के अनुसार मेरा भी मानना है कि संयुक्त परिवार में सब के बीच प्रेम से,बराबरी से जिम्मेदारी साझी की गई हो और अपनापन व विश्वास के साथ सब एक-दूसरे के हित के आकांक्षी हों तथा एक-दूसरे की खुशी के लिए प्रयासरत हों तब तो ठीक है अन्यथा केवल दिखावे के लिए संयुक्त परिवार में रहना या परिवार को जोड़े रखना बेमानी है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि संयुक्त परिवार में कोई एक सदस्य अपनी चालाकी से आर्थिक और अन्य जिम्मेदारियों से बचता रहता है और दूसरे के कंधे पर अतिरिक्त भार डालकर,उसे प्रेम से फुसलाकर,धूर्तता से अपना मतलब साधते रहता है।ऐसे में दूसरे व्यक्ति का विकास अवरूद्ध होता है एवं उसे आर्थिक व मानसिक क्षति भी उठानी पड़ती है।ऐसे परिवार विरले ही देखने को मिलते हैं जहां जिम्मेदारी को बराबरी से बांटा गया हो और प्रत्येक सदस्य को बराबरी से आगे बढ़ने का अवसर मिलता हो। अक्सर सदस्यों के बीच तुलनात्मक व्यवहार,अलग गुणों और व्यक्तित्व के सभी व्यक्तियों को एक ही लाठी से हांकने की प्रवृत्ति परेशानी उत्पन्न कर सकती है जबकि हर सदस्य अपने-आप में खास होता है, विशेष होता है,हर‌ किसी में कुछ अलग गुण होते हैं। यदि बगीचे में कई फूलों के पौधे लगाने हों तो सब की प्रवृत्ति के हिसाब से अलग व्यवस्था करनी पड़ती है। गुलाब, बेला,चंपा,चमेली सबके जड़ पकड़ने,पनपने और फलने-फूलने का अलग समय व अलग तरीका होता है। ठीक उसी तरह घर के हर सदस्य का अपना एक अलग नजरिया, अलग सोच,अलग सामर्थ्य,अलग जरूरत होती है । सबके पल्लवित-पुष्पित होने के लिए जरूरतें अलग-अलग होती हैं। इसे समझना और इसका ध्यान रखना जरूरी है।उस समय की आनंदी के स्वतंत्र विचार को जब मैं आज के भागदौड़ वाली, आधुनिक समय की नारी के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करती हूं तो मुझे लगता है कि आज(वर्तमान में) यह और भी ज्यादा प्रासंगिक है।
न तो उस आनंदी को घर तोड़ने में विश्वास था,न ही आज की स्त्री घर तोड़ने की आकांक्षी है। हां बदलते समय में जब स्त्री की जिम्मेदारी और उसका कार्य क्षेत्र बदला है,विस्तृत हुआ है तो निसंदेह उसके अनुसार उसकी जरूरतें,आकांक्षाएं भी बदली हैं।मेरी समझ से आज की स्त्री संकुचित सोच वाले,पिछड़े संयुक्त परिवार में असहज रहती होगी।जहां उसे उसके अभिनव रूप में स्वीकार करने,समझने, सहयोग करने की बजाय उससे बाहर के काम के साथ-साथ घर के संपूर्ण कार्यों के बखूबी कर लेने की अपेक्षा रखी जाती हो एवं उसके कामों में मीन-मेख भी निकाली जाती हो।सुबह जगने से लेकर कार्यस्थल पर जाने के लिए निकलने के समय तक ये अपनी घरेलू जिम्मेदारियां निभाती हैं, उसके बाद कार्यस्थल का मानसिक दबाव व शारीरिक थकान, तत्पश्चात घर वापसी पर पुनः सारे कार्यों की अपेक्षा मेरी समझ से गलत है।10-12 घंटे तक लगातार काम करने वाली स्त्री को भी आराम की जरूरत है।घर में कोई ऐसा हो जो प्रेम से उसका इंतजार करें,वापसी पर मुस्कुरा कर उसका स्वागत करे और उसे यह अहसास कराए कि वह भी परिवार का अभिन्न अंग है, उसका भी परिवार में महत्वपूर्ण स्थान है और सबको उसकी खुशी-हंसी की भी फिक्र है, उसके आत्मविश्वास को बढाए न कि उसकी उपेक्षा कर कमतरी का एहसास करा उसे कमजोर करे,उसे मानसिक संबल दे न कि उसके मानसिक स्तर को असंतुलित करे।यदि संयुक्त परिवार में कोई ऐसा सदस्य है तब तो ठीक है अन्यथा आनंदी के अलग रहकर अपनी खिचड़ी अलग पकाने की सोच की मैं हिमायती हूं। आज की स्त्री चाहे वह घरेलू हो या कामकाजी उस पर दोहरी जिम्मेदारी है।यदि घरेलू है तब भी बच्चे को पढ़ाने-स्कूल-ट्यूशन ले जाने-घुमाने,सब्जी-भाजी लाने,बाजार आदि का काम वह घर के काम के साथ करती है और उस पर अगर वह कामकाजी है तब तो उसके कामों की गिनती ही मुश्किल है। इसके साथ ही समय की बचत व सुविधा के लिए क‌ई तो अपने कार्यस्थल पर खुद से गाड़ी चला कर जाती हैं।आप ही बताएं क्या यह काफी थकाने वाला काम नहीं है ? ऐसे में यदि स्त्री किसी तरह के मानसिक दबाव में हो,थकी हो तो क्या उसके साथ किसी तरह की अनिष्ट की आशंका बढ़ नहीं जाती है ? वैसे भी एक हारी,थकी,चिड़चिड़ी स्त्री से खुशी की उम्मीद हम कैसे कर सकेंगे ? क्या वह खुद को और अपने परिवार को खुश रख पाएगी ? आज आनंदी के विचार को फिर से परिष्कृत करने की,विस्तृत करने की, उदार फलक पर देखने की जरूरत है। आज की स्त्री की जरूरत है उदार परिवार ,खासकर हम कह सकते हैं ‘कामकाजी स्त्री को चाहिए उदार पुरुष’
हां,जरूरत पड़ने पर परिवार के साथ खड़ा होना,परिवार के सुख-दुख में जिम्मेदारी उठाने के सोच की मैं प्रबल हिमायती हूं। गुस्सा त्याग कर आनंदी के द्वारा अपने देवर लाल बिहारी को माफ करने की बात अपने पति श्रीकंठ से कहना उसके बड़े दिल, बड़े घर के संस्कार की निशानी है। यदि हम आज की लड़कियों को समझने की कोशिश करें,विवाहोपरांत उनकी जिम्मेदारियों को निभाने लायक वातावरण उनके लिए तैयार करें, उनके साथ ढाल की तरह खड़े रहें तो निश्चित ही आज की हर आनंदी अपने घर में,अपने घर के सदस्यों के बीच खुशी बांट सकेगी,खुश रहेगी,खुद भी चहकेगी और परिवार को भी जीवंत व खुशहाल बना सकेगी।एक जीवंत व खुशहाल परिवार ही सुखद समाज का निर्माण करता है। जैसे एक कहावत है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक स्त्री होती है उसी तरह आज एक नई कहावत गढ़ने की जरूरत है कि ‘हर सफल आनंदी के पीछे उसका परिवार है’।हर आनंदी को खुश रहने का मौका मिले, आगे बढ़ने का मौका मिले और वह परिवार-समाज तथा देश की उन्नति में सहायक हो।इसी अपेक्षा व शुभेच्छा के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूं।

पुष्पांजलि मिश्रा
जमशेदपुर, झारखंड

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