एक सशक्त कथा ‘पंच परमेश्वर ‘ : आज भी सामयिक


एक सशक्त कथा ‘पंच परमेश्वर ‘ : आज भी सामयिक

” हमारी सभ्यता, साहित्य पर आधारित है और आज हम जो कुछ भी हैं, अपने साहित्य के बदौलत ही हैं।”- यह उद्गार है महान साहित्यकार प्रेमचंद का, जो उनकी रचनात्मक सजगता और संवेदनशील साहित्यिक प्रेम को दर्शाता है। प्रेमचंद हिंदी साहित्य का एक ऐसा नाम है, जिसने हिंदी कथा लेखन के संपूर्ण स्वरूप को ही परिवर्तित कर दिया। प्रेमचंद के पूर्व हिंदी कथाओं की विषय वस्तु काल्पनिक, अय्यारी, धार्मिक , पौराणिक क्षेत्रों से ही जुड़ी हुई थी, लेकिन प्रेमचंद ने जीवन और कालखंड की सच्चाई को कागज पर उतार कर आम आदमी को अपनी कहानियों का नायक बना दिया। आदर्शोन्मुख यथार्थ परक उनकी कहानियों ने हिंदी कहानी की ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने पूरी सदी की हिंदी साहित्य कथा लेखन का मार्गदर्शन किया है। इस शताब्दी के महान कथाकार प्रेमचंद की कहानियां अपने समय और समाज के मर्मस्पर्शी कथा चित्र हैं। यह सच्ची और जीवंत तस्वीरें मानवी अस्मिता की रक्षा की प्रबल पक्षधर हैं। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न , हिंदी कहानी लेखन के पितामह प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से लगभग 300 हिंदी कहानियों को आकार दिया और हिंदी कहानी को इस लायक बनाया कि विश्व के किसी भी दूसरी भाषा की कहानी के समक्ष खड़ी हो सके। अब जब प्रश्न यह हो कि ऐसे संवेदनशील रचनाकार, जिनकी कहानियों में जीवन के अनेक रंग देखने को मिलते हैं, कि कौन सी कहानी को सर्वाधिक पसंद का बता चयनित करूँ, उतना ही मुश्किल है जितना सागर में एक मोती खोजना।

हिंदी साहित्य के इस विशिष्ट कालजयी शिल्पी की लोकप्रिय कथाओं में से एक ‘पंच परमेश्वर’ मेरे हृदय के बहुत करीब है।’पंच परमेश्वर’ प्रेमचंद की महत्वपूर्ण कहानियों में से एक है। यह सन् १९१६ में “सरस्वती “पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। आरम्भ में इस कहानी का मूल नाम ‘पंचायत’ था परन्तु महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका नाम बदलकर ‘पंच परमेश्वर’ रखा और इसी नाम से इसे सरस्वती में छापा।

‘पंच परमेश्वर’ कहानी के दो प्रमुख पात्र हैं-जुम्मन शेख और अलगू चौधरी। पूरी कहानी इन दोनों की मित्रता और समय आने पर न्याय के आसन पर बैठकर ईश्वर का प्रतिरूप बन ‘पंच परमेश्वर’ शब्द की सार्थकता को कायम करने के इर्द-गिर्द घूमती रहती है।अलगू और जुम्मन चौधरी-दोनों ही श्वेत -श्याम उभय रंगों से रंगे हुए हैं। कहानी की अलग-अलग परिस्थितियों में उनके हृदय में हर वह भाव उठते हैं, जो एक सामान्य व्यक्ति के हृदय में हिलोर मारेगा। यथा-स्वार्थ , अवसरवादिता, लालच, भय, प्रतिशोध, कृतज्ञता आदि। जुम्मन शेख अपनी बूढ़ी खाला के साथ न्याय नहीं कर पाते और जब पंचायत बैठती है तो अलगू चौधरी के द्वारा न्याय का पक्ष लिए जाने पर वह इसे आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते। स्वीकार करना तो दूर की बात, वह इसके मूल मर्म को भी समझ नहीं पाते। लेकिन जब वह खुद न्याय के आसन पर बैठते हैं तो अलगू से प्रतिशोध के बजाय
न्याय की बात करते हैं। सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही उनमें जिम्मेदारी का भाव पैदा हो जाता है।”मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूं। मेरे मुंह से इस समय जो कुछ निकलेगा, वह देववाणी के सदृश है और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए ।मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नहीं।”इस गहन उत्तरदायित्व बोध के कारण ही समझू साहू के पक्ष में भी पूरा न्याय करते हैं, चाहे प्रश्न अलगू चौधरी से मिलने वाली रियायत पर हो या बैल के साथ निर्दयता का व्यवहार करने के कारण उन पर लगाए जाने वाले दंड के प्रस्ताव पर हो।

प्राचीन काल से भारतीय मान्यता चली आ रही है कि ईश्वर के दरबार में देर है, अंधेर नहीं। शायद यही कारण रहा होगा कि पंचों को ईश्वर का ही प्रतिरूप माना गया है। वर्तमान काल में भी भ्रष्टाचार ने चाहे जितने पांव पसार लिए हो, ‘सत्य की ही जीत होती है’-इसी भाव को आत्मस्थ कर पीड़ित न्यायालय की सीढ़ियों पर अपने कदम रखता है। कुर्सी पर बैठे जज की कलम में वह शनि के दंड का ही रूप देखता है। कहानी की अनेक पंक्तियां इसी शिक्षा को पाठकों के लिए संग्रहित करती हैं-“पंच के दिल में खुदा बसता है । पंचों के मुंह से जो बात निकलती है, वह खुदा की तरफ से निकलती है।” “पंच ना किसी के दोस्त होते हैं, ना किसी के दुश्मन।” “इसका नाम पंचायत है ।दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया।” “इसे कहते हैं न्याय! यह मनुष्य का काम नहीं, पंच में परमेश्वर वास करते हैं, यह उन्हीं की महिमा है। पंच के सामने खोटे को कौन खरा कह सकता है?” “आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठकर न कोई किसी का दोस्त होता है, न दुश्मन। न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता। आज मुझे विश्वास हो गया कि पंच की जुबान से खुदा बोलता है।”

न्याय सर्वोपरि है और न्यायाधीश का आसन ईश्वर का आसन, कहानी यह संदेश तो देती ही है, साथ ही न्याय की परिधि से बाहर निकल कर यह कहानी सार्वजनिक पदों पर आसीन हर उत्तरदायी पदाधिकारी को नैतिकता का यह पाठ भी पढ़ाती है कि उनके कर्तव्यों का दायरा, उत्तरदायित्व का बोध उनके निजी स्वार्थ और संकीर्ण अवधारणाओं से कहीं बहुत ऊपर है। अगर यह संदेश हर जनसेवक ग्रहण कर ले, तो भ्रष्टाचार जैसा दीमक हमारी सामाजिक व्यवस्था की दरख्त में लगे ही न। महान कथाकार ने कितने सुंदर ढंग से इस सत्य की पुष्टि की है-“अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूलकर भटकने लगते हैं तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ प्रदर्शक बन जाता है।”इस तथ्य को उन्होंने युवावस्था में उद्दंड रहे नवयुवक के सिर पर परिवार का बोझ पड़ते ही उसके धैर्यशील, शांतचित्त व्यक्ति के रूप में परिवर्तित हो जाने और किसी पत्र संपादक के मंत्रिमंडल में शामिल होते ही मर्मज्ञ, विचारशील और न्यायपरायण बन जाने का दृष्टांत देकर प्रतिपादित किया है।

कहानी में एक छद्म संदेश यह भी है कि ग्रामीण समाज अपने आपसी वाद- विवाद के निपटारे के लिए पंचायत जैसी लोक अदालतों को सशक्त बनाए, क्योंकि पंच के आसन पर बैठा व्यक्ति पक्ष और विपक्ष दोनों का ही अत्यंत सूक्ष्म अध्ययन कर पाता है, यहां स्थानीय आधार पर झूठे प्रमाण प्रस्तुत करने के अपेक्षाकृत कम विकल्प होते हैं, खर्चीली न्याय व्यवस्था से सीधे- सादे ग्रामीणों को बचाया जा सकता है और इन सबसे इतर पंचायतों में किये जाने वाले फैसले स्थानीय समाज के लिए आदर्श स्थापित करते हैं और भारत की ग्रामीण आत्मा की निष्कलुष्ता की धरोहर को बचाए रख पाने में ज्यादा सक्षम हैं।

कथाकार प्रेमचंद ने इस कथा के माध्यम से मित्रता के सच्चे स्वरूप पर भी प्रकाश डाला है। मित्रता हमेशा संकीर्णता के दायरे से बाहर निकल सत्य और न्याय की पक्षधर हो, मित्र अगर समय पर सबसे सशक्त संबल हो तो कुपथगामी होने पर हाथ पकड़कर रोकने वाला भी। अलगू चौधरी द्वारा न्याय का साथ दिए जाने पर लघु और जुम्मन की दोस्ती की जड़ हिल जाती है।”इतना पुराना मित्रता रूपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही जमीन पर खड़ा था।” “उनमें न खानपान का व्यवहार था, ना धर्म का नाता, केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूल मंत्र भी यही है।” “दोस्ती के लिए कोई ईमान नहीं बेचता।” “दोस्ती, दोस्ती की जगह है ,किंतु धर्म का पालन करना मुख्य है।”-प्रेमचंद ने इन पंक्तियों के द्वारा मित्रता को ही आईने में उतारने की कोशिश की है।

लेखक ने जुम्मन शेख की बूढ़ी खाला के माध्यम से समाज की बुनावट पर भी पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की है जहां बेसहारा वृद्ध किस तरह
परिस्थितिवश लाचार और बेबस हो जाते हैं। साथ ही उन्होंने खाला की संघर्ष के माध्यम से यह भी संदेश दिया है कि अपने न्याय के लिए हमेशा लड़ना चाहिए चाहे आप उम्र के जिस पड़ाव में हों। खाला जब अपने पक्ष में लोगों को करने के लिए सबसे मिलती हैं और लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रिया को लेखक ने जब कलमबद्ध किया है, वह हमारे समाज की सोच को स्पष्ट रूप से सबके सामने ला देता है और आज इतने वर्षों के गुजर जाने के बाद भी सोच का हर प्रारूप जीवंत महसूस होता है।

लेखक की कथा प्राचीन शिक्षा प्रणाली पर भी हल्का प्रकाश डाल देती है। गुरु के प्रति असीम श्रद्धाभाव को लेखक ने अपनी कहानी में स्थान तो दिया है ही, साथ ही प्राचीन दंड प्रणाली की महत्ता का भी गुणगान किया है।

कहानी की भाषा शैली भी कमाल की है जिसमें यथार्थ भी है, हास्य का पुट भी है।चाहे गुरु- शिष्य परंपरा का वर्णन हो या पंचायत बैठने के समय का वर्णन या चौधराइन और करीमन के बीच हुआ वाद विवाद-हर स्थिति में लेखक की शैली विनोद और हास्य का सम्मिश्रण लेकर पाठकों को अभिभूत कर देती है, पूरा रसरंजन होता है पाठकों का। “अलगू ने गुरुजी की बहुत सेवा की थी, खूब रकाबियां मांजी, खूब प्याले धोए। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता था क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आधे घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी।” “गांव की कुत्ते इस जमाव को भोज समझकर झुंड के झुंड जमा हो गए थे।” “दोनों देवियों ने शब्द- बाहुल्य की नदी बहा दी। व्यंग्य, वक्रोक्ति ,अन्योक्ति और उपमा आदि अलंकारों में बातें हुईं।”

कहानी का भाव विन्यास इतना अच्छा है, शैली इतनी उम्दा है कि बचपन की पढ़ी हुई अपनी यह कहानी अगर कोई अपनी अगली पीढ़ी को सुनाएं या उसकी भी अगली पीढ़ी को तो भी उतनी ही नवीन लगती है, उतनी ही भावपूर्ण।कथानक पुराना पड़ता ही नहीं, और उद्देश्य तो मानो सर्वकालिक रहेंगे, संदेश तो मानो हर युग के लिए सार्थक और सामयिक होगा।

इस कहानी में लेखक ने अपने हर पात्र को कहानी के अंत तक चारित्रिक दृष्टिकोण से निर्मल कर दिया है और समाज के आगे आदर्शवाद की सुंदर और भव्य कल्पना प्रस्तुत की है, जिससे कहानी सोउद्देश्यपूर्ण हो जाती है। रचनाकार ने केवल प्रश्न ही नहीं उकेरे कहानी में, बल्कि पाठकों के समक्ष वास्तविक आदर्श स्थिति को प्रस्तुत कर उनका उत्तर भी दिया है। बूढ़ी खाला का अलगू चौधरी से यह कहना कि बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?-यह प्रश्न तो हर पाठक से है और इसका उत्तर कहानी अपने अंतिम चरण में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत भी कर देती है।नमन है रचनाकार की कला को, उनकी कलम को।

रचनाकार प्रेमचंद ने अपने बारे में लिखा है,” मैं तो नदी किनारे खड़ा नरकुल हूंँ। हवा के थपेड़ों से मेरे अंदर भी आवाज पैदा हो जाती है, बस इतनी सी बात है। मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है, उन हवाओं का है, जो मेरे भीतर बजीं।” और जो हवाएंँ इस महान साहित्यकार के भीतर बजीं, वही उनका साहित्य है, भारतीय जनता के दुख- सुख का साहित्य, हमारे अपने दुख -सुख का साहित्य, जिसे कथाओं के रूप में हम पढ़ते हैं और प्यार करते हैं।

रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड

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