मेरे नाना-प्रेमचंद जी

मेरे नाना-प्रेमचंद जी

हरे रंग की बड़ी सी जनता बस दरवाजे के सामने आकर रुक गई।सफेद खादी का कुर्ता पायजामा पहने मंद मुस्कान के साथ एक सज्जन उतरे। हमारे पिताजी और मामा जी ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया।वे पिताजी से गले मिले और मामा को अपने गले लगाया।
बहुत आदर व प्रेम के साथ पिताजी और मामा उन्हें अंदर ले आए।
आंगन में तख्त बिछा था । तीनों लोग गलीचा बिछे तख्त पर बैठ गए।वो बीच में मामा एक तरफ पिताजी दूसरी तरफ।
मां ने मुझे समझाया था कि मामी के पिताजी आ रहे हैं वे बहुत बड़े आदमी हैं।
मैं दूर खड़ी देख रही थी ,सोच रही थी बड़े कहां से हैं ! ये तो हमारे मामा से भी छोटे है, पिताजी के बराबर भी नहीं है।
तब मुझे “बड़े आदमी ” का सही अर्थ समझ में नहीं आया था।
कुछ समय के पश्चात मुझे उनसे अभिवादन करना था।कहना था प्रणाम नाना जी।मां ने यही समझाया था।
मामी के पिता होने के नाते वे मेरे नानाजी लगते थे।
मैंने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।दो क्षण वो मेरी तरफ देखते रहे फिर बोले _ अरे प्रभा आओ आओ ,कितनी बड़ी हो गई।उन्होंने खींच कर अपनी गोदी में बिठा लिया।मेरे बालों को सहलाया, पीठ थपथपाई और मेरे हाथों को अपने हाथ में दबा लिया। वे पिताजी से बातें करते जाते थे और मुझे प्यार करते जाते थे।
मुझसे पूछा स्कूल जाती हो? जवाब पिताजी ने दिया _ छः साल की होने पर स्कूल जायेगी।
खेलती हो? हमने कहा हां गुड़िया खेलती हूं। एक गुड़िया की शादी हो गई, तुलसी के यहां है।वो नही है तो अच्छा नहीं लगता ।शाम को अपने घर ले आऊंगी।
मेरी बड़ों जैसी बातों पर वे हंस पड़े।
दोपहर भोजन और थोड़ा विश्राम के पश्चात नाना जी ने खेत देखने की इच्छा ज़ाहिर की। तत्काल सजी हुई घोड़ा गाड़ी आ गई।
नानाजी और पिताजी के साथ मैं भी खेत देखने गई।वे दोनो पीछे बैठे और मैं कोचवान के पास। खेत ज्यादा दूर नहीं थे।
दूर तक गेंहू की फसल लहरा रही थी नाना जी ने पौधों को ऐसे सहलाया , गेहूं की बालियों को हांथ से ऐसे प्यार से दबा लिया जैसे वो पौधे नही , कोई अपने हों।।
तभी खेतों में काम करने वाले किसान आ गए ।नाना जी ने सबको ” जै राम जी की” कह कर अभिवादन किया। फिर हाथ जोड़ कर बोले भाईयो ! जब आप लोग दिन रात मेहनत करके अन्न उगाते हैं तब हम घर पर आराम से बैठ कर रोटी खा सकते है।नाना जी बराई खेत ( गन्ने के खेत) और अमराई ( आमों का बाग) भी गए।
पिताजी से उन्होंने पूछा यह लंगड़ा ( बनारस का मशहूर) आम कौन है? पिताजी तुरंत बोले यहां लंगड़ा कोई नही है ,सब दो पैरों वाले हैं।।फिर तो ऐसे ठहाके लगे कि उनकी गूंज दूर दूर तक सुनाई देती रही।थोड़ी देर घूम घर कर वापिस आए और सामने की फुलवारी में टहल कर अंदर आ गए।
अभी अंदर आए कुछ ही समय बीता था कि गांव के कुछ प्रतिष्ठित लोग नाना जी से मिलने आ गए।बार बार प्रेमचंद ,प्रेमचंद जी ही सुनाई देता।मैं सोचती मामी के पिताजी ही तो है , प्रेमचंद नाम में ऐसी क्या खासियत है? मुझे तब क्या मालूम था कि प्रेमचंद कितनी बड़ी शख्सियत है, कितने प्रसिद्ध और लोकप्रिय लेखक हैं।

जब नानाजी बैठक में आगंतुकों से बातें कर रहे थे तभी मामी ने मुझसे कहा तुम्हे एक बात बताऊं प्रभा! घर में जब बाबूजी लिख रहे होते हैं ,उनका पूरा ध्यान लिखने पर होता है,ऐसे में कोई मिलने आ गया तो वे कलम एक तरफ रख देंगे और घुल मिल कर बातें करने लगेंगे।उनके जाते ही कलम उठाई और लिखना चालू। उन्हें पिछला कुछ देखने की अवश्यकता नहीं पड़ती थी और फिर उसी मनोयोग के साथ लिखने लगते थे। एक और विशेषता है बाबूजी की।तुम देखना अभी खाना खायेंगे और तुम पूछोगी क्या खाया नानाजी ? तो वो नही बता पाएंगे।खाते हुए भी उनके ध्यान में कोई न कोई कहानी का प्लाट घूमता रहता है। अम्मा ने कई बार कहा _ खाना मन से खाया करो, स्वाद लेकर खाया करो, थोड़ा खाना बनाने वाले का भी ध्यान रखा करो। थोड़ी देर दिमाग को आराम दिया करो । “अच्छा कल से ऐसा ही करूंगा ” पर वो कल कभी नही आया।
अगले दिन नाना जी को मामी को लेकर बनारस जाना था। सुबह सुबह वे पिताजी के साथ भदोई सब्जियों का बाग देखने गए।तरह तरह की सब्जियां देख कर बहुत खुश हुए।उससे भी अधिक प्रसन्न हुए कुएं से एक विशेष ढंग से पानी निकाल कर दूर तक फैले सब्जी बाग की क्यारियों की सिंचाई होते देख कर।
देवरी आगमन नानाजी का दूसरी बार था।पहले आए होंगे जो मुझे याद नहीं। अब तीसरी बार वे नहीं आयेंगे ।देवरी बनारस से आना कोई आसान है क्या?
घर से करेली,फिर बस से बरमान घाट पहुंचो ,थोड़ा चल कर नदी किनारे पहुंचो, फिर नाव में बैठ कर नर्मदा नदी पार करो।फिर थोड़ा चल कर बस लो तब जाकर कही दो ढाई घंटे में ” देवरी ” पहुंचो। क्योंकि अब उनकी जगह उनके बेटे आयेंगे इसलिए ग्रामीण जीवन का भरपूर आनंद नाना जी लेना चाहते थे।मध्याह्न पूर्व कुएं पर स्नान किया । बिर्रा ( मिस्सी रोटी अर्थात गेहूं चने की रोटी) ताजे मक्खन के साथ खाई ,एक ग्लास छाछ पिया और जाने के लिए तैयार हो गए।
मेरे पिताजी श्री दशरथ लाल जी जो कि पेशे से डॉक्टर थे।
पिताजी का दबदबा था इसलिए विशेष अतिथियों एवं हमारी नानी के लिए बस द्वार पर आ जाती थी। मामी को विदा करते हुए नानी और मां ने उन्हें बस में बिठा दिया।नानाजी ने सबको प्रेम के साथ अभिवादन किया और जाते जाते मामा का माथा चूमा ,मैं सबके पीछे हाथ जोड़े खड़ी थी , नानाजी ने उतर कर , गोदी में उठा कर मेरे सिर पर हाथ फेरा और सबको पुनः अभिवादन करा।
मामी को ससुराल पहुंचाने पहली बार नाना जी ( मुंशी प्रेमचन्द जी) के दोनो बेटे धन्नु ( श्रीपत राय) और बन्नू ( अमृत राय) आए।मेरे लिए वे दोनो मामा थे।दोनो ही भाई अपने पिता समान खुशमिजाज थे। मेरा दोनों मामा के लिए विशेष प्रेम था।
ग्रीष्म अवकाश या दीपावली की एक माह की छुट्टियों में दोनो देवरी आ जाते थे, खूब खुश रहते व सबको खुश रखते थे। लेखन कला और ठाहके उन्हें विरासत में मिले थे।
बन्नू मामा जब हंसते थे तो सारा घर साथ में हंस पड़ता था, उनकी लिखने में बहुत रुचि थी। ” बीज” जैसा बड़ा उपन्यास एवम अनेक कहानी संग्रह अल्पायु में ही प्रकाशित हो चुके थे। लिखा धन्नू मामा ने भी पर उनकी रुचि प्रकाशन की ओर बढ़ गई।
जब मामा ( वासुदेव जी प्रेम चंद जी के दामाद) मामी ( मुंशी जी की बेटी कमलादेवी ) सागर में बस गए तब कभी कभी मामी की अम्मा ,शिवरानी जी भी आकर कुछ दिन बेटी के पास रह जाती थी। नानी , अम्मा बड़ी सक्रिय तथा मेधावी महिला थी।प्रेमचंद जी के घर में उन्हें भी लेखिका बना दिया। बड़े मनोयोग से उन्होंने प्रेमचंद घर में एक प्रकार से अपनी जीवन गाथा लिखी और बाबूजी का अधूरा उपन्यास “मंगलसूत्र ” पूरा किया।
मैं जैसे जैसे बड़ी होती गई नानाजी की कहानियां पढ़ने का शौक भी बढ़ता गया। बी . ए. तक पहुंचते पहुंचते छहों बड़े और लोकप्रिय उपन्यास और मानसरोवर कहानी संग्रह के चार भाग अर्थात सौ से ऊपर कहानियां पढ़ चुकी थी। मैंने यह भी जाना कि विचार प्रधान रोचक कहानियां तथा उपन्यास विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं। गोदान जैसा बड़ा उपन्यास सागर विश्विद्यालय में एम. ए. में पढ़ाया जाता था।
नाना जी के साथ मेरा संपर्क बचपन में अल्पकाल के लिए ही रहा किंतु वे स्वर्णिम स्मृति सदा सदा के लिए अनुपम धरोहर हैं। बाल्यावस्था में उनका कहा या किया अति सामान्य सा लगता था पर असली धारणा बड़े होने पर बनी। वे कितने भावुक है, वात्सल्य मय हृदय है , संवेदन शीलता है,ग्रामीण जीवन और प्रकृति से प्रेम है , मेहनतकश जनता के लिए कृतज्ञ है और शिष्टता कोई उनसे सीखे संबंध निभाना और संबंधों का मान रखना ।
नानाजी के साहित्य में जीवन का कोई पक्ष अछूता नहीं रहा ।सम्मलित परिवार ,एकल परिवार जनों के आपसी संबंध ,मनोविज्ञान तथा आपसी द्वेष ,कलह और फिर प्रेम और त्याग की पराकाष्ठा ।इसी तरह तत्कालीन अनेक समस्याएं भी उनके साहित्य का विषय बनी हैं।

ग्रामीण जीवन के साथ साथ शहरी जीवन का चित्रण ,अछूत समस्या, नशा खोरी अर्थात शराब पीने की लत, कर्ज़ या साहूकारों द्वारा शोषण, ऐसी ही अनेको समस्याएं । आश्चर्य होता है उनकी कुशाग्र बुद्धि पर, लिखने की क्षमता पर , विषय को समझ उसकी प्रस्तुति की विशेष कला पर। मात्र 54 वर्ष की उम्र में अपनी लगन से उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध कर अपूर्व ख्याति प्रदान कराई ।काश जीवन के १० वर्ष और मिल गए होते तो वे साहित्यिक चमत्कार ही कर गए होते।
आज मुझे 94 की उम्र में नानाजी के साथ बिताए महज चंद घंटों की स्मृति सुखद स्वप्न सी लगती है। उनके हाथों की ऊष्मा का अहसास आज भी मुझे रोमांचित कर देता है। कभी कभी सोचती हूं कितनी खुश नसीब हूं मैं जिसको विश्व प्रसिद्ध उपन्यास सम्राट की गोद में बैठने का सौभाग्य मिला।
अपनी प्रिय मामी श्रीमति कमला देवी जी की किस्मत को कहां तक सराहूं जिनको मूर्धन्य साहित्यकार की पुत्री होने का सौभाग्य मिला।मेरे मामा श्री वासुदेव प्रसाद श्रीवास्तव तो अति भाग्यशाली रहे जिन्हे दामाद की हैसियत से हिंदी साहित्य के चमकते सितारे मुंशी प्रेमचन्द जी का पुत्रवत प्रेम प्राप्त हुआ था। हमारे दोनो परिवारों के प्रेमबंधन से ही हम गौरवान्वित अनुभव करते हैं। बनारस से देवरी तक की कठिन यात्रा दो दो बार करके नानाजी देवरी ( मध्य प्रदेश में स्थित) पधारे।उनकी चरण रज से देवरी तो धन्य ही हो गई। आज मेरे नाना मुंशी प्रेमचंद जी हमारे बीच सशरीर मौजूद नहीं हैं किंतु वे कहीं भी हो हमारी स्मृतियों में सदैव बने रहेंगे।सरस्वती माता के वरद पुत्र ने अपनी लेखनी द्वारा हिंदी और स्वयं को सदा सदा के लिए अमर कर दिया है।
नानाजी अब ब्रह्मलीन हैं अर्थात स्वयं ब्रह्म है , ब्रह्ममूर्ति अपने पूज्य नानाजी को शत शत नमन।

प्रभा प्रसाद
नई दिल्ली

(सौजन्य-विनी भटनागर)

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