प्रेमचंद की “सुहाग की साड़ी”
मानवीय संवेदना के कुशल चितेरे, नव जागरण के प्रणेता, सर्वहारा की प्रखर वाणी और तत्कालीन समय को अपनी लेखनी से जीवंत करने वाले, सकारात्मक ऊर्जा की आभा से नव दीप प्रदीप्त करने वाले सर्वकालिक महान लेखक, चिंतक और कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद किसी परिचय के मोहताज नहीं ।
मुंशी जी ने न केवल सामाजिक कुरूतियों, विसंगतियों को रेखाँकित किया अपितु भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी अपनी क़लम से जन जन में देशप्रेम की भावना जाग्रत करने का सफल प्रयास किया।
लगभग दो शताब्दियों से शासन कर रहे अंग्रेजों के दमन और अत्याचार से पीड़ित, आहत हिंदुस्तान ने शांति और पूर्ण असहयोग आंदोलन की राह चुनी तो अनेक आयोजन होने लगे। जिसके अंतर्गत नमक सत्याग्रह में दांडी मार्च का आयोजन हो अथवा विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करके स्वदेशी को बढ़ावा देने हेतु विदेशी वस्त्रों की होलिका दहन का वृहद कार्यक्रम । जिसने समूचे देश को एकता के सूत्र में पिरोकर अंग्रेजों को भारत छोड़ने को विवश किया। मानव सभ्यता में ऐसे शांतिपूर्ण आंदोलन की बहुत कम मिसालें विद्यमान हैं।
प्रस्तुत समीक्षा मुंशी जी की कहानी “सुहाग की साड़ी” पर केंद्रित है।
कहते हैं दाम्पत्य सुख के लिए स्त्री पुरुष के स्वभाव में मेल होना आवश्यक है। जहां कुँवर रतन सिंह कंजूस किन्तु सामाजिक कुरूतियों के खिलाफ थे। वहीं उनकी पत्नी गौरा खुले हाथ से खर्च करने वाली उदार महिला होने के बावजूद मर्यादा की रक्षा पर दृढ़ थी। विधवा विवाह, अछूतों के उत्थान के सख्त खिलाफ थी इसीकारण दोनों पति पत्नी में अक्सर वादविवाद चलता रहता था। फिर भी दोनों ही सहृदय इंसान थे इसकारण उनका दाम्पत्य जीवन सुखमय था।
गौरा स्वाधीनता आंदोलन को मुट्ठी भर पढ़े लिखे लोगों का असफल प्रयास समझती थी वहीं रतन सिंह आशावादी होने के साथ साथ स्वतंत्रता आंदोलन में पूर्ण सक्रिय थे। इसी उद्देश्य से ब्रिटिश हुकूमत को कड़ा संदेश देने एवम स्वावलंबन का अलख जगाने की मंशा से विदेशी वस्त्रों की होली जलाने का कार्यक्रम तय किया गया। स्वयंसेवक घर घर जाकर विदेशी वस्त्रों को एकत्रित करते और सार्वजनिक स्थानों पर सामूहिक रूप से उनकी होली जलाते। इसी क्रम में स्वयंसेवकों की टोली रतन सिंह के द्वार पर भी पहुंची। उनसे भी विदेशी वस्त्रों का दान करने का आग्रह किया गया। उनके आव्हान पर घर में कार्यरत सभी लोग महरी, साईस, कोचवान आदि भी अपने अपने वस्त्रों की गठरी ला कर दे देते हैं किन्तु गौरा को ये सब नाटकीयता लगती है। उनके अनुसार ऐसा करने से कोई स्वाधीनता आने वाली नहीं। लेकिन पति की प्रतिष्ठा एवम आग्रह के कारण उनको भी विदेशी वस्त्रों से भरे अपने बक्से खाली करने को बाध्य होना पड़ता है। वस्त्र निकालते निकालते उन्हें अपने सुहाग की साड़ी दिखाई पड़ती है जिसे वो छिपा लेती है। उनके अनुसार भारतीय नारी के लिए अपने सुखद एवम स्थायी वैवाहिक जीवन के प्रतीक स्वरूप सुहाग की साड़ी बहुत पवित्र स्थान रखती है। पति की दीर्घायु और घर में सुख समृद्धि के लिए भी इस साड़ी को महत्वपूर्ण माना जाता है।
इसकारण गौरा ये साड़ी देने को हरगिज़ तैयार नहीं होती। पति पत्नी में बहुत वादविवाद होता है। आखिरकार रतन सिंह निराश होकर चले जाते हैं।
चूंकि विदेशी वस्त्रों को दान करने वाले व्यक्ति से शपथपत्र भी लेने का प्रावधान रखा जाता है किन्तु धर्मसंकट में पड़े रतन सिंह को समझ नहीं आता क्या करें। झूठा शपथ पत्र देने को उनकी अंतर्रात्मा गवाही नहीं देती। परेशान रतन सिंह झूठा शपथ पत्र देने का निर्णय लेते हैं। पति की इस अवस्था को देख कर और अपने यहां काम करने वाले लोगों द्वारा बिना मोह अपने वस्त्र सौंपने से गौरा को आत्मग्लानि होती है । अपनी जिद के आगे पति द्वारा झूठे शपथ पत्र दिए जाने से व्यथित होकर वो अपने सुहाग की साड़ी भी दान कर देती है।
लेकिन साड़ी दान करने के साथ ही गौरा के मन में अमंगल का भय व्याप्त हो जाता है। रतन सिंह की मामूली अस्वस्थता भी उन्हें किसी अनिष्ट की आशंका लगने लगती है। भय, आशंका से ग्रसित गौरा दिन प्रतिदिन अवसाद की ओर बढ़ने लगती है। उनकी ये दशा देख कर कुँवर रतन सिंह उन्हें अन्यत्र स्थान पे ले जाते हैं। स्वास्थ्य में सुधार होने पर जब वो वापस लौटते हैं तो पता चलता है। उनके यहां कार्यरत सभी नौकर चाकर काम छोड़ का जा चुके होते हैं।
घर के सारे काम गौरा को ही करने पड़ते हैं। गौरा का मन बहलाने के लिए एक दिन रतन सिंह उन्हें घुमाने स्वदेशी बाजार ले जाते हैं। स्वदेशी बाजार में जब उन्हें अपने साईस और महरी मिलते हैं जो अब स्वदेशी वस्त्रों का व्यवसाय करके निर्धनता से ऊपर उठ चुके होते हैं। विदेशी वस्त्रों को त्याग कर स्वदेशी अपनाने का चमत्कृत प्रभाव देख कर गौरा अत्यंत प्रभावित होती है। उन्हें जब पता चलता है कि उनके द्वारा सुहाग की साड़ी दान करना समूचे प्रान्त में एक आदर्श का प्रतीक बन जाता है। जिससे प्रेरित होकर लोगों ने स्वदेशी अपनाया और वर्षों से बंद पड़े हाथ करघे चल पड़े । देश में निर्मित वस्त्रों की भारी मांग निकल पड़ी । ये सब देख कर गौरा के मन का भय और अनिष्ट की आशंका समाप्त हो जाती है। अपनी सुहाग की साड़ी का इतना सकारात्मक स्वरूप देख कर उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता होती है । वो अपने पति कुंवर रतन सिंह को जन कल्याण एवं स्वदेशी आंदोलन को और मजबूत करने हेतु अपना सर्वस्व दान करने को प्रेरित करती है।
मुंशी जी की ये कहानी आज भी प्रासंगिक है। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में बेरोजगारी की समस्या का निदान करने हेतु मशीनीकरण के अति विस्तार पे अंकुश के साथ कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करना होगा। चंद नौकरियों की तरफ दौड़ते असंख्य युवाओं को स्वावलंबन का पाठ पढ़ाकर स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना होगा। विगत में जिस ब्रिटिश सामान का बहिष्कार कर स्वदेशी को बढ़ावा दिया गया जो हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में मील का पत्थर साबित हुआ। आज भी हमें चीनी सामानों का त्याग करके स्वदेशी को अपनाना होगा । भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में जहां सीमित साधनों के कारण निर्धनता अत्यधिक है। सबसे दुःखद पहलू ये है कि आजादी की लड़ाई जीत चुके हम लोग जनजीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पा रहे। अब समय आ गया है कि हम पुनः अपनी जड़ों की ओर लौटें और गांव कस्बों प्रान्तों में लुप्त हो चुके कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करें। अपने देश में उपलब्ध विशाल श्रम का सदुपयोग करने का सतत प्रयास करें। तब ही मुंशी जी की कथा और चिंतन सार्थक हो पाएंगे।
अरुण धर्मावत
जयपुर, राजस्थान
व्यवसाय : स्टेशनरी प्रिंटिंग
अब तक प्रकाशित : संदल सुगन्ध, हमराही, मृगनायना, रक्तमंजरी, कलमकार, भाषा सहोदरी हिन्दी, सहित्यनामा, लघुकथा कलश, स्टोरिमिरर, भाषा सहोदरी हिन्दी सोपान- 6, समय की दस्तक के साथ साथ अनेक साझा संग्रह एवम समाचार पत्र – पत्रिकाओं में कविता एवम कहानियां प्रकाशित हो चुकी है ।
आकाशवाणी जयपुर, पत्रिका टीवी एवम दूरदर्शन जयपुर से
रचना पाठ।