फिर से वहीं

फिर से वहीं

बैंक खुलने का समय तो दस बजे है लेकिन छोटे से गाँव के बैंक में कौन देखता है। आधा-एक घंटा देरी तो मामूली-सी बात है। अभी चार छह लोग आ गए हैं। बिनय है, उसे अपनी दुकान के लिए लोन चाहिए। आशा देवी हैं, जिन्‍हें सिलाई मशीन खरीदने के लिए लोन चाहिए और ऐसे ही दो तीन लोग और खड़े हैं। शायद इनके साथ आए हैं। देश दुनिया की बातें होने लगती हैं। गाँव हमारा बड़ा है, तीन हजार की आबादी वाला। लेकिन अभी शहर नहीं हुआ तो सभी के साथ दुआ सलाम भी हो जाती है। गाँव का रहना तो ग्‍लास घर में रहने जैसा है, कुछ भी छिपा नहीं है। कहां मेहमान आए, कहां गाय खरीदकर आई। ऐसे तो कहीं-कहीं कुछ दरक रहा है, लेकिन कुल मिलाकर हालात ठीक-ठाक हैं।

पिछले महीने पंचायत में एक मीटिंग हुई थी। गाँव के पढ़े-लिखे नौजवानों को बुलाया था। गुरुचरण के साथ हम भी पहुंचे। और भी सात-आठ लड़के थे। एक दो शायद अलग दिखते थे। कभी पहले देखा नहीं था। मोटी चेन, काला चश्‍मा, जींस की पैंट। शायद बैंक मैनेजर ने बुलाया होगा। गाँव में तो हम सबको पहचानते हैं। उस छोटी सभा का सार-संक्षेप तो यही था कि गाँव के लड़के गाँव में कुछ व्‍यापार या काम-धंधा ढ़ूंढें, बैंक उनकी मदद करेगा। एक बिजनेस आइडिया उन्‍होंने दिया कि दो-चार कम्‍प्‍यूटर लेकर एक ‘साइबर कैफे’ खोल लिया जाए। अच्‍छा ही लगा। गुरुचरण ग्‍यारहवीं फेल था और मैं बीए फेल। नहीं पढ़ पाया बस। रोज धक्‍के खाते हुए कॉलेज पहुंचो, आज टीचर नहीं, कल शहर बंद। ऐसे में दो साल निकल गए। फिर बाबूजी को कह दिया कि नहीं पढ़ पाएंगे। उनकी चमकती आंखों को राख में बदलते देखा मैंने। खैर, कुछ करना चाहिए, सोचकर हाथ-पांव मारने लगा मैं। खेतों में तरकारी उगाकर बेचना भी ठीक है, लेकिन दाम नहीं मिलते। निरीह-सी दिखने वाली भिंडी, कद्दू, तोरी ने ही घर-गृहस्‍थी थाम रखी है। गुजर-बसर हो जाती है लेकिन हमें तो जिंदगी जीनी है, गुजर-बसर से काफी नहीं है। दिन-रात लगाकर हमने एक बिजनेस का प्‍लान बनाया। कॉलेज में हमारा एक दोस्‍त बना था – मृणाल। होशियार था, अच्‍छी अंग्रेजी भी लिख लेता था। उसको फोन किया बहुत सकुचाते हुए। लेकिन उसने आनन-फानन में तीन पन्‍ने का प्‍लान बना दिया। चार कम्‍प्‍यूटर, चार लड़के, चार टेबल, चार कुर्सियां। और फिर एक मैनेजर की कुर्सी-टेबल। अपने घर के आगे के कमरे में खोल लें, दुकान? मृणाल ने कहा, उन गोल-गोल, पानी से भरी सड़कों पर कौन आएगा। दुकान तो गाँव के बाजार में रखो। पंचायत की दुकानों में से एक ले लो। मृणाल की बात से लगा कि सपने देखना भी बुरा नहीं। जो होना होता है, उसके लिए रास्‍ते भी खुद निकल आते हैं।
नीले फोल्‍डर में छह पन्‍ने का बिजनेस प्‍लान, कम्‍प्‍यूटर के खरीद के लिए दाम, अपने बैंक के खाते का नंबर लेकर गुरुचरण और मैं बिल्‍कुल उत्‍साहित थे। क्‍या बोलते हैं न, अगर छोटी भी जगह हो तो सूरज वहां रोशनी देना नहीं भूलता। उम्‍मीद जाग उठी थी उस दिन पंचायत ने बैंक मैनेजर की बात सुनकर। साढ़े बारह बज चुके थे। अभी अपना नंबर दो लोगों के बाद ही आएगा।
गुरुचरण और मैं बैठे हैं, बैंक मैनेजर मिश्रा जी के सामने। गोरे, गोल मुंह ऐसा लगता है कि हंसी दबा रहे हों। तीन बार हमारा कागज पलटा, देखा। हां, सवा एक लाख के करीब मंजूर कर देंगे। लेकिन काम इनके साथ करना होगा। और वही दो महापुरुष जो काला चश्‍मा लगाकर उस दिन मीटिंग में बैठे थे, अचानक छोटे से केबिन में आ गए। कमरा छोटा जान पड़ा। रकम मिलते ही इनको बीस हजार दे देना। बाकी रकम तुम्‍हारी। उससे अपना बिजनेस संभाल लेना। बड़ी असमंजस हुई। हां बोले, तो दिल नहीं मानता। बेईमानी होगी। और ना बोलें तो काम शुरु नहीं होगा। इतने पैसे ही नहीं होंगे। इतने सपने बना लिए थे। सुबह-सुबह अपनी आंखों में, मोटरसाइकिल पर चढ़कर अपने कैफे पहुंचने तक का, सफर पूरा भी कर लिया। हमें जीवन में क्‍या चाहिए वह उस बात पर निर्भर करता है कि हम उसे कैसे समझते और लेते हैं। गुरुचरण और मैं बैंक से बाहर निकल आए हैं। शायद अभी हमारा समय नहीं आया है। मुझे इस अवसर को गंवाने का दुख भी नहीं है। सबसे ऊंची चढ़ाई के बाद ही सुंदर दृश्‍य दिखता है- अभी उस चढ़ाई के लिए मुझे और तैयार होना है।

डॉ. अमिता प्रसाद

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