बड़े शहर का छोटा सा गांव

बड़े शहर का छोटा सा गांव

नई दिल्ली में छोटा सा गांव क़ुतुब मीनार से मात्र कुछ मिनट की दूरी पर। कीकर के पेड़ मीलों तक, साथ में चारों ओर हरियाली।सड़के भी २० बरस पहले निकली ,चारो ओर से घनी हरियाली में फैला हुआ।जहां आबादी संभ्रांत परिवार जाटों की ,अपने में मस्त होकर जीने वालों की।पुरुषसत्तात्मक मानसिकता के कारण पुरुषों की ही चलतीं हैं, पंचायत में आज भी उनकी ही चलती है।
घर से बहू को घूंघट ,चुन्नी से ढंकना अनिवार्य था, जो आज भी है।चाहे हाथ में क्वार्ट्ज की घड़ी हो या कीमती मोबाइल।सुबह उठते ही गोबर के ढेर से उपले पाथते ,भैंस का दूध दुहते दिन की शुरुआत होती हैं।खूबसूरत कमसिन सी” सज्जो” भूरी, गोरी को भी प्यारवश कल्लो, लंबो आदि नामो से बुलाने में खुशी होती थी…. किसी का नाम उसके व्यक्तित्व पर निर्भर होता था या फिर उसके घर के सदस्य पर —– पपीते की बहू, सीढ़ी वाले का पोता , “क्रांति ” का दूंड ( इन्होंने क्रांति पिक्चर् में लूले का रोल निभाया था)
किसी बुड्ढी दादी के मरने का ही न्यौता भेजा जाता था, नाई के हाथ। ये रिवाज़ आज तक बरकरार है…आज फलां जगह में घर के “एक सदस्य” का ” जीमण का न्योता है” , चूल्हा न्योत भी कहते है(आमंत्रण)।

ऐ सज्जो !! करवा चौथ का व्रत करती हो , नए सूट तो लाई होगी?
ऐ जिज्जी! कदे हमरे तो गांवा में रिबाज है ,मायके से ही ज़िन्दगी भर लत्ते आवे है। ये खर्चा भी के कर सके है, दो दो बहनें एक घर में शादी करके भेज दी जावे है, कम उम्र में, इनकी सेवा करन वास्ते।
हमाड़ी तौ सासू के भी अभी तक लत्ते (कपड़े) उसके मायके से आते है। मरते दम तक कैसे भाई और पिताजी पर आश्रित रहती है ये हम ही जानते है। किसी की हैसियत और भाई ना होवे तो के करे?

अरे ! जिज्जी हम तो अब वो प्रथा ना बढ़ाने के, किदे उन घरा मा का होवेगा जिनके घरां में बेटी ही होवेगी?अब बेटी को अपने पैरो पे खड़ा करने में कोई चूक न होने देवंगे।हमने तो घणी परेशानी झेली हैं।अब हर घर मा छोरियां पर बढ़िया खर्चा करे है।विदेशों में, तैराकी – खेल कूद,सरकारी नौकरी, डाक्टरी, फैशन ,पायलट सभी में अव्वल रहेगी, कोई पिच्छ्चे ना रखे है जिज्जी।
खुद चाहे मन मार कर जीवन व्यतीत कर लिया होगा, क्युकी शादी कम उम्र में होती थी।अपने मन में तमाम हसरतें दफन थी उस घूंघट की आड़ में। किसी तरह से कोई कम नही थी। घर को कैसे रखा जाता है, सेवा कैसे होती है ।सारे घर का जीर्णोद्धार इनके कंधे पर रखा जाता था। उठना बैठना शायद ही कहीं होता था, घर से फुर्सत जो मिले! बस सारी कमी पढ़ाई को लेकर रही थी हमेशा।
मन में अब बच्चो को पढ़ा लिखा कर कुछ बनाने का जुनून सिर पर सवार था।हर मां सुबह उठते ही घर से कोचिंग क्लास, चाहे पढ़ाई की हो या खेल कूद की ,दौड़ते भागते बच्चो की सेहत के साथ एडी चोटी एक कर देती थी। कोई बेटी अपने पैरो पर खड़ी होने से अछूती शायद ही होगी।
आज बेटियों को देख कर गर्व होता है। साथ ही उस मां की मुस्कुराहट बहुत कुछ उसकी सफलता बयान करती है। इसी को वो अपनी ताकत मानती हैं। विदेशो में पढ़ाने का हौसला भी नहीं गवाया और बेटियों ने जहाज की उड़ानों के साथ नाम रौशन करा। मोहल्ले की हरेक बेटी की शादी में पूरा समुदाय बड़ी ही धूमधाम से लगा होता है।मानो अपनी ही बेटी हो ।

३० बरस में कितनी जंग लड़ते देखा इस नारी को ,जो मेरे साथ ब्याह के आई थी। अभी भी दिल के एक कोने में ये डर है कि क्या हम बेटियों के हौसले व परिस्थितियों को सच में बदल पाए है ? उनको वो आश्रित जीवन आज के समाज में अभी भी उसी प्रकार जीने को मजबूर करेगा क्या या उनको आत्मनिर्भर बनाने में हम कहां तक सक्षम हुए??

उनके मुंह से ही हमने अपने ससुराल की चर्चा सुनी थी।
उनके बीच में मेरा परिवार एक पढ़ा लिखा था जिसमे मेरे ससुर वकील और उनकी पत्नी वकिलन (वैसे पुरानी दिल्ली के स्कूल की प्रिंसपल) मेरी सास अपने बच्चो को कितनी मेहनत से पढ़ाया और कैसे सरकारी अफसर ( आई आर एस— एस. डी एम)बना दिया था। जिसकी खुशी पूरे मोहल्ले में मनाई जाती रही। वो घर के बाहर लगी तख्ती पर सारे घरों में नाज़ का विषय रहा।ये सब बाते बच्चो का हौसला बढ़ाने और उनके लिए एक मिसाल रही थी।
अब एक सज्जो नहीं हैं, कई सज्जो ने आवाज़ बुलंद की है ।तो फिर बेटी क्यों ना ऊंची उड़ान
भरे ।आज भी हम वहीं उनके प्यार व सीधे पन के कायल है , जो इस मोहल्ले ने आपस में एक दूसरे को दिया।

विनी भटनागर
नई दिल्ली

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