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हिंदी के महान कहानीकार और उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म काशी के समीप लमही नमक गांव में ३१ जुलाई १८८० को हुआ था।प्रेमचंद जी का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था।८ वर्ष की उम्र में इनकी माता एवम् १६ वर्ष की उम्र में इनके पिताजी का देहांत होने से घर का सारा बोझ इनके कंधो पे आ गया और फिर मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण होने के बाद ये एक स्थानीय स्कूल में अध्यापक नियुक्त हो गए।नौकरी के साथ इन्होंने पढ़ाई जारी रखी और बी.ए. पास करने के बाद ये शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हो गए, बाद में सरकारी नौकरी छोड़कर लेखन कार्य में जुट गए।
शुरू में प्रेमचंद जी धनपत राय नाम से लिखते थे, बाद में वे अपने दोस्त मुंशी दयानारायण निगम की सलाह पर प्रेमचंद नाम से लिखने लगे।इनके लिखे उपन्यास “सेवासदन”,”प्रेमाश्रम”,”रंगभूमि”,”निर्मला”,”कायाकल्प”,”कर्मभूमि”,”गोदान”,”गबन” आदि हैं।
नाटकों में “संग्राम”,”कर्बला”,”प्रेम की वेदी” प्रमुख हैं।इनकी कहानियों में “कफ़न”,”नमक का दारोगा”, “माँ”,”बड़े भाईसाहब”,”बड़े घर की बेटी”,”पूस की रात”, “प्रेमसूत्र”,”पंच परमेश्वर”,”ईदगाह” आदि लगभग ३०० कहानियां प्रमुख हैं।
प्रेमचंद जी की ईदगाह कहानी मेरे दिल के बहुत करीब है। इसमें उन्होंने ग्रामीण परिवेश और हामिद नाम के बच्चे का जिस तरह सजीव चित्रण किया है वह दिल को छू लेता है। इस कहानी में दर्शाया गया है कि हामिद के अब्बा और अम्मी दोनों ही काल के गाल में समा चुके थे। हामिद अपनी दादी अमीना के साथ बड़ी तंगहाली में रहता था। रमज़ान के बाद ईद का शुभ दिन आया था। ईद के दिन सब खुश थे वहीं अमीना सोच रही थी कि ईद का उसके घर क्या काम। गांव वाले ईदगाह जाने को तैयार थे और हामिद का उत्साह भी देखते ही बनता था,उसे अपनी गरीबी से कोई सरोकार नहीं था। ईदगाह पहुंचने पर नमाज़ के बाद कुछ बच्चे हिंडोले और चखरी का आनंद लेने लगे तो कुछ खिलौने और मिठाइयों की दुकान की ओर बढ़ जाते हैं पर हामिद के पास केवल तीन पैसे हैं और उनसे वो ना हिंडोला झूलता है, ना मिठाई खाता है। हां ललचाई आंखों से देखता ज़रूर है। वो लोहे की दुकान पर जाकर रुकता है जहां चिमटे वगैरह बिक रहे हैं।उसे ख्याल आता है कि उसकी दादी के पास चिमटा ना होने से उसके हाथ जल जाते हैं तो अगर दादी के लिए चिमटा ले ले तो फिर उनकी उंगलियां जलने से बच जायेंगी और वो छ:पैसे का चिमटा मोलभाव करके तीन पैसे में लेने में सफल हो जाता है और उसको अपने कंधे पर रखकर इस शान के साथ गांव लौटता है जैसे कंधे पर चिमटा नहीं बंदूक रखी हो। जब हामिद वो चिमटा अमीना को देता है तो वह हतप्रभ रह जाती है और यह सोच कर परेशान हो जाती है कि दोपहर होने को आई और हामिद भूखा ,प्यासा ही लौट आया ।उसे मेले में भी अपनी दादी का ही ख्याल रहा। अमीना का मन गदगद हो गया और वो उसे दुआएं देती रही और आंसू बहाती रही। दादी का ऐसा स्वाभाविक चित्रण भी मन को मोह लेता है। हामिद के त्याग और मनोभावों को भी जिस खूबसूरती से प्रेमचंद जी ने उकेरा वो लाजवाब है।
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर