बड़े लोकेर बेटी लोग
यह बहुत पुरानी बात नहीं है। एक शहर में एक व्यापारी परिवार था। धन दौलत, ऐशो–आराम की कोई कमी नहीं थी। दूसरे विश्व युद्ध के समय कपड़ों के व्यापार में अच्छी आमदनी हुई। पूरे शहर में एक ही कोठी थी-पीली कोठी। घर के सामने बगीचा, शेरों वाली मूर्ति और संगमरमर का फव्वारा। आजादी के बाद नए-नए आयाम खुले और बिजनेस अच्छा चलता रहा। परिवार बढ़े तो कोठियों में कमरे बढ़े। पीली कोठी एक विशिष्ट जगह बन गई शहर की। राजश्री इस पीली कोठी की तीसरी पीढ़ी है। सुंदर, सौम्य व्यक्तित्व। कभी ऊँची आवाज में बोलते नहीं सुना। यहीं शहर के कॉलेज में पढ़ाई की। आगे पढ़ने के लिए दिल्ली जाना चाहती थी लेकिन चाचा-ताऊ-भाइयों ने क्या करना है’ कहकर रास्ता ही बंद कर दिया। घर के बिजनेस में लगाने का प्रश्न नही था। तो ऐसे ही समय काटने के लिए संस्था खोल ली। नाम रखा ‘सुबह’ और संस्था काम करती थी लड़कियों को कुछ हुनर सिखाने का। पीली कोठी में ही एक तरफ गेट खुलवा दिया गया और दो कमरे दे दिए। “सुबह” जैसा नाम, वैसा ही भोर की तरह एक आशा की किरण लेकर आई उन लड़कियों के जीवन में, जहाँ सुबह की किरण ही नहीं पहुँचती। सौतेली माँ, बिन पैसे के परिवार, शादी की उमंगें सजाती गरीब लड़कियाँ, आँखों में चमक लेकिन मुस्कान के बिना- जितनी लड़कियाँ, उतनी कहानियाँ। किस-किस की रातें ‘सुबह’ में बदल सकते हैं? लेकिन उम्मीद पर दुनियाँ कायम है। कहानी तो ऐसे ही चलती अगर घनश्याम वहाँ मैनेजर बनकर नहीं आता। रुपए-पैसे के हिसाब के लिए एक मैनेजर चाहिए, थोड़ी दौड़ भाग भी। बैंक जाना, लड़कियों के लिए लोन लेना, रात को उनको छोड़ना- ये सारी छोटी ज्वाबदारियाँ घनश्याम ने अपने ऊपर ले ली। बड़ी सरलता से। और घनश्याम की बातें भी मजेदार थीं। खाने से लेकर पकाने, तक उसकी बातें ही खत्म नहीं होती। राजश्री और उसकी उम्र में ज्यादा फासला नहीं था। शायद हम उम्र ही होंगे। गरीबी और मजबूरी के थपेड़े ने उसको समझदार बना दिया था। एक लड़का और लड़की मित्र हो सकते हैं,लेकिन कभी-न-कभी वो एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो ही जाते हैं। भले ही गलत समय पर।
तूफान तो तब आया जब राजश्री ने अपनी माँ को बताया कि वह घनश्याम से शादी करना चाहती है। ऊँच–नीच, गरीबी-अमीरी का फर्क बताया माँ ने। सौभाग्य से जाति एक निकली, नहीं तो एक और अग्निरेखा फाँदनी पड़ती। राजश्री अडिग रही। हार नहीं मानी उसने– जीवन की शुरुआत कहीं से भी हो सकती है। आज पैसे हैं, पहले तो नहीं थे न। दादाजी ने कमाया। हम भी कमा लेंगे। बड़े घर की बेटी हो, ऊँच-नीच की समझ नहींतुम्हें । भाइयों ने कहा। वह पैसे को देख रहा है, ऊँची कोठी के सपने। उन गलियों मेंकहाँ रहोगी तुम। दो साल समझते-समझाते, रोते, गिड़गिड़ाते गुजर गए। घनश्याम ने भी काम बंद कर दिया। इतनी मुसीबत ही काफी थी। लेकिन एक दिन अचानक राजश्री की माँ का फोन आया। हमसे मिलो, माता-मिता के साथ। सकुचाते हुए घनश्याम और सब पहुँचे। बड़े लोग, बड़ी बातें। लेकिन सब लोग सहजता से मिले। जिंदगी में हम किसी से यूँ ही नहीं मिलते। कहीं तो कोई बात रही होगी। लेकिन फिर वही हुआ जो होता है। बड़े घर की बेटी छोटे घर में कहाँ ब्याही जाएगी? राजश्री को भागकर शादी करने का ख्याल ही नहीं आया। कह भी नहीं पाई कि आप सब मेरे लिए एक बार मुस्कुराओ न।
राजश्री आज पैंतालीस साल की है। उसने निर्णय ले लिया कि वह अपनी जिंदगी अपनी शर्त्तों पर जिएगी। उसकी संस्था को बहुत पुरस्कार मिले। आपने इतने बड़े घर की होकर भी गरीबों के साथ जो किया-लोग सराहते नहीं थकते थे। भले ही अपने रास्ते में फूल नहीं खिले, लेकिन सुबह तो इंतजार नहीं करती। घनश्याम को उसने मुड़कर नहीं पुकारा। शायद उसकी आवाज भी अब वह भूल गया होगा। जब आपको सुबह नहीं मिलती तो अंधेरे में ही बैठ कर इंतजार करना होगा। बड़े घर की बेटी होने का ये छोटा फर्ज निभाया उसने।
डॉ. अमिता प्रसाद