कमली

कमली

“कमली….अरे कमलिया! कहाँ मर गयी रे? तुझे कहा था इन बकरियों को बाड़े में बांधने… सारी साग चबा गयीं…ये लड़की तो मेरे जी का जंजाल ही बन गयी है”. कमली की चाची भुनभुनाती हुई बकरियों को हाँकने में लग गयी. उधर चाची की घुड़की औऱ बड़बड़ाहट सुनकर कमली भागती हुई आई. उसे पता था गलती तो हो गयी है… शायद अब खाना भी नहीं मिलेगा. वह भी क्या करे. हमउम्र बच्चों के साथ खेलना, ऊधम मचाना उसे बेहद पसंद था. चाची की मार का डर तो था लेकिन लंगड़ी टाँग खेलने का मज़ा भी तो कितना था!

कमली पाँच वर्ष की उमर से ही अपने चाचा-चाची के साथ रहती थी. अभागी की माँ जचगी में ही चल बसी थी औऱ पाँच बरस की होते होते बाबू भी सरग सिधार गए थे. अब वह दस बरस की हो चुकी थी. अकेली कमली को चाचा-चाची का ही सहारा था.

चाचा वैसे तो ठीक थे लेकिन चाची के सामने उनकी कुछ चलती नहीं थी. उनके अपने भी चार बच्चे थे. एक कमली का हमउमर औऱ तीन उससे छोटे. कमली ही उनको नहलाती-धुलाती, खाना खिलाती और साथ बकरी चराने भी ले जाती. चाचा की माली हालत भी कहाँ ठीक थी. वो औरों के खेतों में मजूरी करते औऱ चाची दूसरों के घरों में कुटानी पीसानी कर कुछ कमा लाती. फिर भी सात जनों का परिवार था, बड़ी मुश्किल से गुजारा हो पाता.
लेकिन इस गाँव की एक भीषण समस्या थी. दो नदियों के बीच बसे हुए इस गाँव को हर साल बाढ़ की विभीषिका झेलनी पड़ती थी. सावन की दस्तक होते ही लोगों में खुशी के साथ एक खौफ भी व्याप्त हो जाता था. कमली का परिवार भी तबाही झेलता था क्योंकि उनकी तो सारी आमदनी ही खेती से जुड़ी हुई थी.

उन्हीं दिनों चाची का भाई संजय गाँव आया हुआ था. चाची ने उसके सामने भी अपना दुखड़ा रोया, ” ये अभागन अपने माँ-बाप को तो खा गयी, अब हमारी छाती पर मूंग दल रही है. इतनी कम कमाई में हम अपने बच्चों को पालें या इसे खिलाएं. पता नहीं कब पिन्ड छोड़ेगी हमारा !” संजय बोला, “अरे दीदी, हमारे बगल के जिले के गाँव में कुछ बड़े बड़े जमींदार टाइप लोग हैं. उनके परिवारों में हमेशा ऐसे बच्चों की तलाश रहती है जो घर का काम भी करे औऱ उनके बच्चों के साथ खेले भी. तुम कमली को मेरे साथ वहाँ भेज दो. उसको पेटभर खाना भी मिलेगा औऱ तुम्हारा पीछा भी छूटेगा” !

कमली की चाची को संजय की बात जँच गयी.अब वह पति रमेश को भी मनाने में जुट गयी, ” अरे, खूब ठाठ से सेठानी की तरह रहेगी वहाँ! अच्छा खाना, अच्छे कपड़े ,औऱ काम भी क्या… सिरफ़ बच्चों के साथ खेलना! ” रमेश को ना चाहते हुए भी राजी होना ही पड़ा.

कमली अपना गाँव, जाने पहचाने लोगों का साथ छूटने के नाम से बेहद दुखी थी, लेकिन उसके हाथ में था ही क्या! किसके आगे रोती-बिसूरती. मन मारते हुए अपनी छोटी सी गठरी उठाई औऱ चल दी अपने नसीब की राह पर. पाँच घन्टे की बस की सवारी कर वह उस गाँव पहुंची जहाँ उसे रहना था. जमींदार का घर सामने ही था. बड़ा सा किलेनुमा मकान, किन्तु कुछ कुछ खंडहर जैसा….. जमींदारों की ढहती हुई खोखली हैसियत की तरह.
“बाप रे! यहाँ तो रात को भूत भी आते होंगे ” कमली ने चारों तरफ निहारते हुए सोचा.
बड़े से फाटक को पार करके अंदर अहाते में एक बड़ा सा चबूतरा था. संजय मामा ने वहीं बैठने का इशारा किया.यह भी चेताया कि यहाँ सभी बड़ों को मालिक-मालकिन कहके बुलाना है. खैर, थोड़ी देर में घर की मालकिन बाहर आई, उसे ऊपर से नीचे तक परखने वाली नज़रों से देखा, फिर बोलीं,
“बहुत छोटी है, सब काम सिखाना पड़ेगा. अभी तो अनाज पर भी भारी है.”
मतलब जबतक वह काम मन मुताबिक ना करने लगे, तनखाह नहीं मिलेगी, सिर्फ खाना-कपड़ा. उसी में क्या कम खर्च लगता है ! ऊपर से तेल-साबुन अलग से, क्योंकि बच्चों के साथ खेलना है तो उसकी साफ-सफाई भी तो देखनी पड़ेगी !

कमली को काम करते कुछ महीने बीत चले थे. उसने देखा कि घर में लोग मालिक के बारे में बड़ी उपेक्षा से बातें करते थे. उसने अभी तक घर के मालिक को देखा नहीं था.वह बाहर ही फाटक के पास बने एक कमरे में रहते थे जिसे घर के लोग आउटहाऊस बोलते थे. वह कभी घर के अंदर नहीं आते. बाहर ही उनका खाना-पीना भिजवा दिया जाता. कमली ने बाकी नौकरों से सुना कि उन्हें नशा करने की आदत थी औऱ इस वजह से जमीन जायदाद बिक रहे थे. नौकरानियां तो उनके सामने भी नहीं जाती थीं.
कमली को मालिक के प्रति घरवालों का व्यवहार कुछ अजीब सा लगता. वह जानना चाहती थी कि ये मालिक हैं कैसे! मालकिन तो कमली को दिन रात काम में ही लगाए रहतीं. ग्यारह-बारह साल की कमजोर देह, वह कभी कभी बेहद थक जाती. जरा बैठ जाती तो कोई न कोई झट से कोई दूसरा काम बता देता. कहा तो यह कहा गया था कि घर के बच्चों के साथ खेलना होगा, लेकिन यहाँ तो उसे बच्चों से बात भी नहीं करने दिया जाता था. वह अपने गाँव को याद कर कभी-कभी बेहद उदास हो जाती. चाची बुरी थीं लेकिन गाँव तो अपना था !

एक दिन मालिक को खाना पहुंचाने वाला नौकर बीमार पड़ गया तो मालकिन ने कमली को बाहर मालिक का खाना लेकर जाने को कहा. पहले तो कमली घबरा गई, फिर सोचा जल्दी से खाना रखके भाग आऊँगी. इसी बहाने यह भी देख लूंगी कि मालिक आखिर हैं कैसे !
खाना लेकर वह बाहर अहाते में आई. फिर आउटहाऊस का बंद दरवाजा देख ठिठकी औऱ जी कड़ा करके बाहर से ही मिमियाई ,
“खाना लाई हूँ ! ”
थोड़ी देर तक कोई आवाज़ नहीं हुई, फिर दरवाजा खुला औऱ सामने उसकी चाचा के उमर का ही, थोड़ी पकी दाढ़ी वाला एक इंसान खड़ा था. कमली जल्दी से खाने की थाली रखकर भाग जाना चाहती थी इसलिए लगभग धक्का देती हुई अंदर घुसी औऱ थाली एक स्टूल पर रखकर पलटकर जाने को हुई.सामने दरवाज़े पर रास्ता रोके मालिक खड़े थे. उनके होठों पे मुस्कान औऱ आँखों में अजीब सा भाव था.कमली उनके बगल से निकल गई. पीछे से कमली ने उनकी आवाज़ सुनी,
“अरे, थोड़ा ठहरकर सांस तो ले लो ”
कमली बिना रुके भागती हुई घर के अंदर चली गई. उसका दिला जो़र से धड़क रहा था .” बाप रे, कितने लंबे-चौड़े मालिक हैं! ”
उस दिन के बाद से अक्सर ये सिलसिला बन गया. जब भी कोई नौकर नहीं दिखता औऱ आउटहाऊस कुछ पहुँचाना होता तो कमली की ड्यूटी लगती. धीरे धीरे कमली का डर भी कम होने लगा. उसे लगा, मालिक तो भले हैं, उसे कभी नहीं डांटते, प्यार से बातें करते हैं. लोग बेवजह उन्हें बुरा भला कहते हैं!
एक दिन जब वह खाना लेकर गई तो मालिक ने उसे बगल में बैठकर साथ खाने के लिए भी कहा. पहले तो वह झिझकी, फिर एक अल्हड़ हँसी हँसकर खाना शुरू कर दिया.
इस तरह कुछ महीने बीत गए. कमली अभी भी खाना लेकर जाती थी किन्तु एक लंबे अंतराल के बाद जब लौटती तो उसका चेहरा उतरा होता. बहुत धीमी चाल चलती हुई वह खोई हुई सी घर के अंदर दाख़िल होती. अब वह किसी से हँसती बोलती नहीं थी. बेमन से काम करती औऱ चुपचाप बैठकर शून्य में कुछ निहारती रहती, मानों वहाँ अपने सवालों के जवाब ढूँढ़ रही हो.
थोड़े दिनों बाद पता चला घर के कुछ लोग उसे शहर ले गए हैं, जहाँ दो दिन उसे अस्पताल में भी रहना पड़ा. वहाँ उसके शरीर के साथ क्या हुआ उसे कुछ नहीं पता. वापस घर लौटने पर उसे लगा दुनिया औऱ भी बुरी हो गयी है. अब उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं रहता था. वह एक जिंदा लाश की तरह इधर उधर डोलती.
लेकिन घर की मालकिन को उसका इस तरह रहना नागवार गुज़र रहा था.
“काम की ना काज की, ढाई मन अनाज की! अरी ओ सेठानी! दिनभर पसरी रहेगी तो काम कौन करेगा? हमनें क्या यहाँ खैरात खोल रखा है? ”
मालकिन की ये बातें सुनकर कमली का मन विद्रोह करने लगा था. वह सोचती, मालिक जैसे भी हों, मुझसे ठीक से व्यवहार तो करते हैं. प्यार से बातें करते हैं, कभी डांटा-झिड़का नहीं, नाही उसे नीचा दिखाने की कोशिश की. क्या हुआ जो उन्होनें मेरे शरीर को कभी छू लिया!

इस विद्रोह की भावना ने उस अल्पायु में ही कमली को परिपक्व बना दिया. अब वह कभी कभी मालकिन को जवाब भी दे देती. शुरू में तो मालकिन सन्न रह गई थीं औऱ उसकी पिटाई भी की थीं. लेकिन धीरे धीरे मालकिन ने भी अपनी नियती को स्वीकार कर लिया था औऱ परिस्थितियों से समझौता कर लिया. यह समझौता कमली औऱ मालकिन दोनो के लिए बेहतर था.
धीरे धीरे मालकिन शान्त होती गईं और कुछ बीमार सी भी दिखने लगीं . कमली अभी भी पहले की तरह घर की नौकरानी वाले सारे काम करती रही.
एक दिन अचानक मालकिन चल बसी.अर्थी पर लिटाने के पहले उन्हें दुल्हन की तरह लाल साड़ी में सजाया गया…. सुहागन जो मरी थीं. भले ही सालों से दोनों ने एक दूसरे का चेहरा भी ना देखा हो. कमली को हँसी आ गई, फिर जल्दी से उसने अपना मुँह दबाया… उसे हंसते किसीने देख ना लिया हो!.
तेरहवीं तक कमली दिन रात काम में लगी रही. श्राद्ध निपटते ही घर के बाकी लोगों का मालिक के प्रति बर्ताव औऱ भी बुरा हो गया. मालकिन कम से कम खाना तो समय से भिजवा देती थीं. अब तो उसकी भी किसीको परवाह नहीं थी. कमली खुद ही सुबह शाम थाली पहुँचा देती थी.

एक दिन घरवालों का रवैया देख कमली के मन में कुछ उपाय कौंधे. गाँव से तीस कोस दूर मलिकानों की लंबी चौड़ी खेती थी. फसल कटाई के समय मालिक अक्सर वहाँ जाते थे. वहाँ बोरिंग से लगी हुई एक कोठरी औऱ बरामदा था जो गुजारे के लिए काफ़ी था. कमली ने मालिक को वहीं चलकर रहने के लिए तैयार कर लिया और घरवालों से विदा ले ली. और फार्म पर अपनी गृहस्थी बसा ली.
इसी तरह कुछ बरस बीत गए. अब यहाँ फार्म पर खेत में काम करनेवाली औरतों से उसकी अच्छी बनने भी लगी थी. सब सुख दुख में एक दूसरे का साथ देतीं. कमली बाकी काम करते हुए भी अपने मालिक का पूरा ख्याल रखती थी. लेकिन उनकी ढलती उमर को वह कैसे रोक सकती थी. बुढ़ापे के साथ कई तरह की बिमारियों ने भी उन्हें घेर लिया था.
जाड़े के दिन थे. मालिक को बहुत दिनों से बुखार आ रहा था. कमली ने डाक्टर को भी दिखाया. कोई आराम नहीं मिला. वह दिन-रात उनकी सेवा करती. कभी काढ़ा पिलाती, कभी लेप लगाती, कभी तलवे रगड़ती. एक दिन तो कुछ औऱ नहीं मिला तो अपना पुराना कंबल जला कर उसने मालिक के लिए दूध गरम किया था. किन्तु उसका कोई भी उपाय काम न आया और वही हुआ जिसका डर था. मालिक चले गए.

मालिक की मृत्यु की खबर पाते ही उनके सगे संबंधी पहुँच गए और उनका पार्थिव शरीर गाँव ले आए. किसीने कमली की तरफ ध्यान भी नहीं दिया, ये नहीं पूछा कि अभी तक मालिक कैसे रह रहे थे. कमली दहाड़ें मारकर रो रही थी, लेकिन उसका दर्द उन्हें समझ नहीं आ रहा था. भला एक बांदी, एक चेरी को इतना क्या दुख !
सबके जाने के बाद कमली भी रोते हुए, छाती पीटते हुए अपनी बनिहारिन समाज के साथ मालिक के गाँव पहुंची. वह मालिक से लिपटकर खूब रोना चाहती थी किन्तु उसे पास जाने नहीं दिया जा रहा था. वह वहीं अहाते में बैठकर जो़र जो़र से विलाप करने लगी. कि तभी अंदर से एक रौबदार किन्तु कर्कश आवाज़ आई
” कमली! ओ कमली! तू वहाँ क्या बिसूर रही है? चल, जा अंदर! ढेर सारे बर्तन पड़े हैं, जाकर माँज उनको!”

बस, इतना सुनना था कि कमली के धीरज का बाँध टूट गया. वह तड़पकर उठी औऱ तनकर सीधी खड़ी हो गयी.अपने सर का आँचल ठीक करते हुए जो़र से चिल्लाई ,
” खबरदार जो किसीने मुझे ऑर्डर देने की कोशिश की. यहीं हंसिए से काट डालूँगी! ” बगल में बैठी बनिहारिन से उसने हंसिया छीनते हुए कहा .
” क्या समझते हो तुमलोग? इन बड़े घरों में रहकर हमारी आत्मा भी खरीद लोगे? हमारी नज़र में तुमलोगों की औकात कौड़ी भर भी नहीं! तुमने मुझपर कोई एहसान नहीं किया है, उल्टा मैनें तुमलोगों को तार दिया है ! तुम मुझे क्या दोगे? खुद अपने लिए भी तुमहारे पास कुछ है? तुमलोगों की आँख का पानी ही नहीं, आत्मा भी मर चुकी है! ”
यह कहते हुए कमली ने बाकी बनिहारिनों को इशारा किया. वो सब एक साथ उठ खड़ी हुईं .फिर कमली उन सबके साथ हवा के झोंके की तरह लहराती हुई सी
उस बड़े से फाटक से बाहर निकल गयी.

रेखा सिंह
मुबंई, महाराष्ट्र

0
0 0 votes
Article Rating
285 Comments
Inline Feedbacks
View all comments