निर्मला : एक औरत
मुंशी प्रेमचंद, जो कि कलम के सिपाही, के नाम से भी जाने जाते हैं, ने हिन्दी साहित्य की अभूतपूर्व सेवा की है। उर्दू और हिन्दी में लिखी उनकी 300 कहानियों और करीब 45 उपन्यासों ने सौ वर्षों से अधिक समय से साहित्य प्रेमियों को गुदगुदाया है, उत्साहित किया है, प्रेरित किया है। प्रेमचंद से मेरा परिचय हिन्दी की कहानियों से हुआ जो कि कक्षा आठ और नौ में पढ़ाई जाती थी। “ईदगाह’ और “बड़े घर की बेटी’ ने तो हमारे किशोर मन को अभिभूत कर दिया था। कितनी सहज, सुंदर भाषा। मानव मन के अंतर्मन को सहजता चाहिए। ‘ईदगाह’ कहानी तो पता नहीं कितनी बार पढ़ी होगी। दादी की ऊँगलियां जल जाती हैं, इसीलिए वह नन््हा बच्चा चिमटा ले आता है। नन्हे दिल को इतनी बखूबी से कौन बता सकता है। प्रेमचंद जब लिख रहे थे तब पाश्चात्य देशों में भी सार्थकता और सहजता से ही साहित्य को लिखा जा रहा था। रूसी क्रांति, देश की आजादी, के परिपेक्ष्य में सोचते थे मुंशी प्रेमचंद |
लेकिन मेरी पसंदीदा रचना है निर्मला’। ‘निर्मला’ एक उपन्यास है जिसमें निर्मला एक कम उम्र की लडकी की शादी एक बडी उम्र के पुरूष से हो जाती है। उस व्यक्ति के पहली शादी से तीन बड़े बच्चे हैं। इस अनमेल विवाह की कहानी को उन्होंने 4925 से 4926 तक “चाँद पत्रिका में धारावाहिक के रूप में प्रस्तुत किया था। बाद में यह उपन्यास में बदल गया। औरत के मन के दुंद्र, उसकी बेड़ियाँ, बोलने की कम आजादी और नियति को स्वीकार कर लेना-उस जमाने की औरतों की लड़ाई, जमाने के साथ, अपने साथ भी थी। कुरीतियों से लड़ने की क्षमता शायद नहीं थी। लेकिन प्रेमचंद ने एक मशाल दिखाई । उपन्यास, कहानियाँ और लेखक के विचार-समाज के दर्पण हैं। आज से करीब नब्बे साल पहले लिखी हुई इस कहानी में मुझे क्या अच्छा लगा।
• पहला तो यह कि इस पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों की मनःस्थिति का चित्रण है। औरतें भी आजाद हो सकती हैं अगर उसे अवसर मिले।
• यह एक मनोवैज्ञानिक कथा है। निर्मला अपनी बहन को कहती है हम औरते हैं और हमारा
कोई घर नहीं है। फिर एक जगह कल्याणी, जब घर छोड़ना चाहती है तो कहती है-भगवान ने सबके लिए जगह बनाई है तो मेरे लिए भी कहीं कुछ होगा। औरतों के लिए कोई जगह नहीं है कहीं-प्रेमचंद इस प्रश्न का उत्तर खोजते हैं।
• औरत का अंतर्मन द्वंद्र में भी हो तब भी अपने कर्त्तव्य से नहीं हटता। नैतिकता का पाठ उसे घुट्टी में पिलाया जाता है। तोताराम और उनके बच्चों को निर्मला अपनाती है और वही शायद उसका कर्त्तव्य था। उस कर्तव्य से उसे मुँह मोड़ना नहीं आया इस कहानी में यही त्रासदी है।
• औरतों को जगाया उन्होंने। उस दौर में उन्होंने समझाया कि औरत किसी की सम्पत्ति नहीं है। लेकिन बगावत नहीं कर पाई वो। उसी धुरी में घिरी रह गई।
किशोरावस्था में यह कहानी जब पहली बार पढ़ी थी तो निर्मला पर रोष हुआ था। क्यों नहीं उसने अपने दिल की बात कही। लेकिन क्या एक पंद्रह वर्ष की किशोरी अपना अच्छा बुरा सोच सकती है? क्या वह दिल की बात बता सकती है। रुढ़ियों, अशिक्षा, बेडियों में जकड़ी थी वह लड़की । जब मैंने यह कहानी दुबारा पढ़ी थोड़ी वयस्कता में, तब समझ में आया कि तब समाज में जो हो रहा था, उसी को मुंशी प्रेमचंद ने लिखा और उस माध्यम से ‘ऐसा नहीं होना चाहिए’ का एक संदेश दिया।
क्या कुछ बदला है समय के साथ-साथ? क्या औरतें पूरी तरह स्वतंत्र हैं अभिव्यक्ति के लिए? मेरे ख्याल से थोड़ा बहुत। अपनी इस कहानी में उन्होंने बेमेल विवाह, विधवा की स्थिति और लड़कियों पर जबरन समाज से थोपा हुआ संस्कार-सब कुछ सहजता से बताया था। समाज को पूरी तरह से बदलने के लिए शायद और भी प्रेमचंद चाहिए होंगे इस देश को।
डॉ. अमिता प्रसाद