रानी की गुड़िया

रानी की गुड़िया

“अम्मा मेरी गुड़िया गिर गई । अम्मा ट्रक रुकवाओ ना ।”
नन्ही रानी बिलखती रही पर ट्रक चल चुका था ।
लॉक डाउन में पाँच दिन तक रानी अपनी अम्मा के कंधे पर बैठकर जयपुर से आगरा पहुंची थी। जब अम्मा थक जाती तो उसे पहिए वाले सूटकेस पर बिठा देती और उसको सट्रैप से घसीटती रहती। रानी अपनी गुड़िया को सीने से लगाए, किसी तरह सूटकेस पर टिकी रहती।
रानी के पिताजी राधेश्याम, जयपुर में गोलगप्पे व चाट का ठेला लगाते थे और अम्मा एक नए पांच सितारा होटल की बन रही बिल्डिंग पर ईंट उठाती । छह साल पहले वह पहाड़ से अपना गांव छोड़कर जयपुर आए थे । उनका एक ही सपना था कि उनकी बिटिया रानी पढ़ लिखकर टीचर बने, उनकी तरह मज़दूर नहीं।
जयपुर में जमा सारे पैसे ख़त्म हो गए । मकान मालिक अपनी छोटी सी, अंधेरी कोठरी का रोज़ किराया मांगने लगा, ट्रेन और बस सब बंद थे और उनके चलने के कोई आसार नहीं थे, तो राधेश्याम ने तय किया कि पैदल ही अपने गांव जाएंगे। जब दूसरों ने समझाया 800 किलोमीटर पैदल नहीं जाया जा सकता तो राधेश्याम का एक ही जवाब होता,”हां मुश्किल तो होगा भैया,लेकिन असंभव नहीं।”
“चुप जा रानी। गुड़िया ही तो है, दोबारा ठेला लगाएंगे तो फिर ले लेंगे,” कहते हुए अम्मा ने पसीने से भीगी धोती के पल्लू से रानी के ना थमने वाले आंसू पौंछने की कोशिश की।
रानी के लिए वह गुड़िया छुटकी थी, उसकी सबसे अच्छी दोस्त। वह अपने मन की सारी बातें, सारे सपने, सुख-दुख छुटकी को ही बताती थी । जब उसके मां-बाप काम पर जाते तो अकेली छुटकी ही तो उसके साथ रहती थी । फिर एक दिन छुटकी से आकर्षित होकर, सड़क पार की बस्ती से गीता और उसकी छोटी बहन उषा ने भी रानी से दोस्ती कर ली। रानी टीचर बन जाती और वह सब उसकी विद्यार्थी। जब रानी स्कूल जाने लगी तो छुटकी भी बस्ते में छुप कर जाती । गुड़िया ही सही पर उसे भी तो पढ़कर नौकरी करनी थी।
धूप में चलने से रानी के पिता के पैरों में छाले पड़ गए थे, चप्पल तो बहुत पहले ही टूट गई थी । रात को थक कर मेहंदीपुर में एक घर की बाउंड्री वॉल की आड़ में चददर बिछाई ।
जब अम्मा ने कोरोना के डर से मास्क और साबुन खरीदने की बात की तो राधेश्याम झुंझला गया,” क्या बात करती हो रानी की अम्मा ? खाने को तो पैसे नहीं है, मास्क कहां से खरीदेंगे ? चलो, बचे हुए बिस्कुट खा कर सो जाओ, पता नहीं कल कब खाना मिलेगा ।”
दीवार के पार से घर से आवाज़ें आ रही थीं ।
” राजा बेटा, चलो दूध पी लो। लॉक डाउन की वजह से मोटरसाइकिल पर पापा रोज़ की तरह तुम्हें घुमाने नहीं ले जा सकते।”
” नहीं ,नहीं ,नहीं,” पैर पटकते हुए बॉबी ने कहा ।
अंत में हार कर स्टैंड पर ही पापा ने मोटरसाइकिल स्टार्ट कर दी और बॉबी को उस पर बैठा दिया । मम्मी दूसरी तरफ खड़ी होकर, हाथ में गिलास पकड़ कर धीमे-धीमे उसको दूध पिलाती रहीं।
सुबह मोटरसाइकिल की घुर्र – घुर्र से रानी की आंख खुली। अंदर झांका तो फिर रात वाला सीन था। मोटरसाइकिल पर बॉबी बैठा था और उसकी मम्मी अब उसे संतरे का जूस पिला रही थीं।
” जब कहीं जाना नहीं है तो मोटरसाइकिल का तेल क्यों बर्बाद कर रहे हैं ? दूसरों को तो अपनी आयल कम्पनी के पोस्टर बांटते हैं -‘ईंधन बचाओ। जितनी ज़रूरत, उतना इस्तेमाल करो और लाल बत्ती पर भी गाड़ी बंद करो । प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, गर्मी और बीमारियां भी ‘ और घर में बच्चे की ज़िद के सामने कोई परवाह नहीं ,” बाबी की नानी भुनभुना रहीं थीं।
“यह तो पढ़े लिखे लोग हैं, समझदार हैं । अब इन्हें कौन समझाए,” अम्मा ने भी कपड़े बटोरते हुए कहा।
“सामने हैंडपंप है, मैं मुंह धोने जा रही हूं । रानी तुम भी आ जाओ।”
तभी बॉबी की नानी की नज़र गेट की सलाखों से झांकती रानी पर पड़ी। मुंह पर मास्क पहनकर उन्होंने दूर से पूछा,”बेटी, क्या खाना चाहिए?”
रानी का उत्तर सुन वह अवाक रह गईं।
” माताजी , खाना रहने दीजिए, अगर हो सके तो तीन मास्क दे दीजिए । कहते हैं, बिना मास्क के आदमी मर सकता है, ” रानी ने मासूमियत से कहा।
बॉबी की नानी ने गेट के पास एक थैला लाकर रख दिया, “मास्क तो और नहीं है पर इसमें तीन गमछे हैं। चेहरे पर लपेट लो, नाक और मुंह ढका रहना चाहिए। कुछ पराठें और अचार भी है।”
” नानी, उसने तो खाना नहीं मांगा था फिर आपने अपने नाश्ते के पराठें क्यों दे दिए ?” बॉबी ने पूछा।
“बेटा, संवेदनशील इंसान वह है, जो दूसरों की मदद करे और उसके बिना कुछ कहे उसका दुख समझ सके । दूसरों के लिए बिना अपेक्षा कुछ करने से बड़ी खुशी, दुनिया में और नहीं है ,” नानी ने कहा।
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मेहंदीपुर से आगरा तक पैदल दो दिन लगे। एक ट्रक के पास भीड़ देख राधेश्याम पूछने गया । वह ट्रक हल्द्वानी तक सामान ले जा रहा था । ड्राईवर, एक व्यक्ति के लिए दो हज़ार किराया मांग रहा था।
“चलो, रानी की अम्मा, हमारे पास कहां पैसा है । यहां तो कर्ज़ या उधार भी नहीं मिल सकता। अम्मा ने थैली से अपना मंगलसूत्र निकाल कर हथेली में रख दिया।
“अपने घर ज़िंदा पहुंच जाएंगे तो फिर बनवा देना । सोचो मत, नहीं तो ट्रक में जगह नहीं मिलेगी।”
ट्रक में चढ़ने वालों की भीड़ में, जब रानी को गोदी में लेकर राधेश्याम चढ़ रहा था तो धक्का-मुक्की में रानी की गुड़िया, छुटकी उसके हाथ से फिसल गई। ट्रक के दरवाज़े पीछे से बंद कर दिए गए।
“अम्मा मेरी गुड़िया गिर गई ………..।
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ट्रक के अंदर करीब पचीस लोग ज़रा सी जगह में भेड़ बकरियों की तरह भरे थे। कुछ लोग मध्य प्रदेश के रास्ते महाराष्ट्र और गुजरात से आ रहे थे। सब की एक ही कहानी थी, सब भूखे प्यासे थे और कर्ज़ लेकर किसी तरह अपने घर वापस जाना चाहते थे।
ट्रक की गति धीमी हुई। किसी ने इंजन पर डंडा मारा।
“ट्रक रोको।”
अंदर सब लोग डर गए।
“चलो दरवाज़ा खोलो। अंदर क्या है ?”
पुलिस वाले की आवाज़ आई। ड्राईवर ने डरते डरते दरवाज़े का सांकल खोला। खुलते ही असंख्य चेहरे नज़र आए- कुछ बड़े- कुछ छोटे, कुछ के मुंह पर मास्क, पर सब सहमे हुए कि अब क्या होगा ?
“कोरोना के समय में ऐसे एक साथ भरकर लोगों को ले जाना मना है, इंफेक्शन हो सकता है,” सिपाही, विजय यादव की आवाज़ गूंजी।
एक 14 साल का लड़का पीछे से आगे आया।
उसके गले में तखत्ती थी -“मुझे ‘अपने घर’ जाने दो । राजू ”
पढ़कर सिपाही की भी आंखें नम हो गई।
फुटपाथ के पास खड़ी एक महिला व उनका परिवार जिनके पास लैया, चना, बिस्कुट और छाछ के पैकेट थे को सिपाही ने आवाज़ लगाई।
“आइए मैडम, आप खाने का सामान देना चाहती थीं। इनको दे दें। राजू को कृपया दो पैकेट दीजिए, इसने सब के लिए आवाज़ उठाई,” सिपाही ने मुस्कुरा कर कहा।
रानी की आंखें उस महिला के कंधे पर लटके पर्स पर अटक गईं, जिससे एक गुड़िया, बड़े से छल्ले से लटकी थी । मोटी मोटी दो चोटी, चेक की फ्रॉक, मोज़े-जूते।
महिला ने छल्ले से गुड़िया उतारते हुए कहा यह एंजिल है यानी फरिश्ता इसे मैं नारवे देश से लाई थी, अब तुम इसका ध्यान रखना। रानी ने कांपते हाथ बढ़ाकर एंजिल को लिया और सीने से चिपका लिया, मानो उसे पूरी दुनिया मिल गई ।
“मैडम जी, थैंक यू । मेरे सारे दोस्त तो अब छूट गए पर अब मुझे एक नया दोस्त मिल गया ।”
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कोरोना की महामारी हुए करीब बीस वर्ष हो गए थे। गरीबों के बिना फीस पढ़ाने का ‘सहयोग’ संस्था का रंग बिरंगा कमरा, दूर से पहाड़ी पर नज़र आता। दीवारों पर बहुत सारे पोस्टर व बैंचों पर अनेक बच्चे बैठे पढ़ रहे हैं।
ब्लैक बोर्ड के सामने रानी खड़ी होकर पढ़ा रही है , “ड्रीम यानी सपने । मैंने सपने भी देखें और जीवन में इतना खराब समय देखा जो बुरे सपने से भी बदतर था पर मैंने केवल अपने अच्छे सपने याद रखे । कड़ी मेहनत और अपने में विश्वास करने से बड़े से बड़े सपने, वास्तविकता में बदल जाते हैं । सपने ज़रूर देखो पर खुली आंखों से।”
टेबल पर रखे पर्स से रानी की पुरानी दोस्त व गुड़िया एंजिल लटक रही थी। आज भी उसके मुंह पर मास्क था । वह सदैव रानी को याद दिलाती कि बुरा समय बीत जाता है पर हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।

डॉ . अनिता भटनागर जैन

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