संस्मरण प्रेमचंद जी के परिवार का
बचपन में पांचवीं, छटी से ही पुस्तकों में दिनकर, महादेवी वर्मा,मैथिली शरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ जिनके नाम का तिराहा आज भी है, डॉ राम कुमार वर्मा, हरिवंश राय बच्चन जी जो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के “अंग्रेज़ी डिपार्टमेंट , फ़िराक़ गोरखपुरी जी भी अंग्रेज़ी डिपार्टमेंट के हेड रहे पर दोनों की लेखिनी और योगदान हिंदी व उर्दू शायर के रूप में जाना जाता है। इसके साथ ही हमेशा प्रेमचंद जी की कहानी को पढ़ कर ही जीवन की शुरुआत होती थी।उनके पात्र दिल में कुछ ऐसे घर कर जाते थे मानो मेरे घर के सदस्य ही हो। प्रयाग का आधा हिंदी साहित्य ही इन महान हस्तियों की देन है।छायावाद, राष्ट्रवाद आदि शब्द तो बच्चे बच्चे की ज़ुबान पर अटके होते थे।उत्तर प्रदेश ने अपने आप में ही कितना साहित्य समेट रखा है।
कितनी बिल्डिंग आज भी गेरू , ईट की बनी जो इंडियन प्रेस” “हिंदी साहित्य सम्मेलन ” ” प्रयाग महिला विद्यापीठ” जिसकी पहली प्रधानाचार्या महादेवी थी जो उनके नाम से विख्यात हुआ ।इन सबकी शोभा यूहीं नहीं है प्रयाग में।इसके अंदर वो लकड़ी और शीशे की बंद अलमारियों में रखी किताबो के पन्नों की खुशबू आज भी पुराने दावात की महक को फैला देती है।
कुछ सुनहरी यादें पापा ,बुआ के बचपन से लेकर हम तक पहुंची थी। जब श्री धनपत राय उर्फ प्रेमचंद जी की पत्नी (श्रीमती शिवरानी देवी प्रेमचंद) गोरी सुंदर सी घरेलू महिला और उनकी बेटी कमला देवी जी व बेटे श्री अमृत राय जी और बड़े बेटे श्रीपत राय जी का सीधा -साधा ,जैसा की अनेकों पुस्तकों में पूर्व लिखित है ,वहीं प्रारंभिक जीवन था।
प्रेमचंद जी के बनारस के लमही के गदौलिया मुहल्ले का वो पैतृक गांव का पुराना घर ,गोल सीढ़ी बड़ा सा आंगन घर के सामने आज भी एक पोखरा है और ये स्थान चूने से पुता अब वहां के निवासियों के संरक्षण में छोटा सा संग्रहालय व उनके कुछ “सामान” यादों में तब्दील हो गया है। जहां शिक्षक व छात्र छात्राएं आते हैं उस जगह में कुछ यादों को खोजने।
प्रेमचंद जी के बाद सारे पैत्रिक संस्कार व साहित्य के साथ मां सहित परिवार इलाहाबाद के लिए रुख कर गया, जहां उनके छोटे बेटे श्री अमृत राय जी का परिवार अब बहुत संभ्रांत स्थिति में था। मां भी आखिरी वक़्त तक वहीं रही। सुंदर सी पान की शौक़ीन,जैसा कि मेरी बुआ बताती है — पान की बूंदे दोनों तरफ से अक्सर बाहर टपकती रहती थी।
इनके परिवार से जुड़ी इलाहाबाद की मेरे बचपन की भी यादें ताज़ा होने लगती है …होश संभालते ही जब पता लगा आज ” बन्नू मामा ( अमृत राय जी) और सुधा मामी “आने वाले है, जो मेरे पापा के भी मामा थे,सुन सुन कर हम भी मामा ही बोलने लगे।
मां की स्पेशल कप और तश्तरी नीली वाली जब भी निकलती केतली के साथ।मतलब कोई ख़ास आयेगा।बाग से कुछ बेले के फूल भी मेज पर सज जाते थे।क्योंकिक मामा ,मामी बहुत शौक रखते थे। इतना याद है मरून रंग की बड़ी सी कार से दोनों उतरते …..लंबा डीलडौल , खादी की घुटने से नीचा लंबा कुर्ता कभी हल्के आसमानी ,पीला और कभी सफेद ।चौड़ी मोहरी का सफेद पायजामा। हल्की भूरी कोल्हापुरी चप्पल,घुंघराले थोड़े बड़े और अधपके बाल , पान खाई हुई मुस्कुराहट और साथ में सुधा मामी जिनकी खूबसूरती और गाती हुई आवाज़ आज भी मेरे ज़हन में घर कर बैठी हुई है। छोटे कद की ,वैसे ही खादी की कीमती साड़ी सन की तरह बाल , दोनों की उपस्थिति सिर्फ ज़ोरदार ठहाको से गूंज जाती थी। सारा वातावरण उन्मुक्त हंसी का हो जाता था।मामी भी जबलपुर की जानी मानी लेखिका सुभद्रा कुमारी चौहान जी की बेटी थी और मामा प्रेमचंद जी के छोटे बेटे ।
अक्सर इलाहाबाद मेरे लूकरगंज के घर के आंगन में आकर खुरहरी खाट पर बैठना ही पसंद करते थे। जीजी इसमें जो आनंद है वो कहीं नहीं।हां! आकर दादी के हाथ से बड़े चाव से पान का बीड़ा लगवाया जाता था, वो भी खास पत्ते का। घर का एक कोना पीतल के पान दान का होता था।बीच बीच में ४,६ पान उंगलियों में फंसा कर पेश करे जाते थे।घंटों मेरी दादी बड़ी दादी ,बाबा, मां हम सब उनके उत्साह वर्धक व्यक्तित्व में उलझ जाते थे। पुरानी यादें, साहित्य ,फूल फलों के पेड़ ,सात्विक खाने की चर्चा । मेरे पापा ( देवदास श्रीवास्तव, प्यार का नाम गोपाल) जो कि वैद्यनाथ आयुर्वेद के उच्च पद पर कार्यरत थे । अरे गोपाल ! समय निकाल कर जरा हमें भी कुछ बता दो ना… ये प्यार भरा गाता हुआ अनुरोध होता था।
उनके साथ घंटो च्यवनप्राश ,गुलकंद, लाल मंजन , अमरूद की टॉफी, फलों से मार्मलेड ना जाने कितनी चीजे बनाने की विधि की जानकारी चलती थी। उस वक्त अधिकतर समान घर पर ही निर्मित होते देखा था।फूड प्रिजर्वशन भी मुख्य विषय हुआ करता था।
बुआ – फूफा ( प्रतिभा और फूफा डॉ अरविंद मोहन जी) जो कि इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में फिजिक्स के प्रोफेसर थे ।उनके साथ भी काफी उठना बैठना था , मां के साथ हम दोनों बहनों को भी अक्सर ही उनके घर जाने का मौका मिलता।
इलाहाबाद के पॉश कॉलोनी सर्किट हाउस के समीप उस घर की शोभा अलग ही होती थी। गेट पर अमृत राय “हंस प्रकाशन” का छोटा सा बोर्ड लगा रहता ,दोनों तरफ बगीचे “लंबे रास्ते से होकर हल्के रंग से पुता घर, जिस पर ” धूप छांव” लिखा आज भी उसी शान से खड़ा है। बड़ा सा ‘वरांडा ‘ केन के सोफे बिछे रहते। पहुंचते ही वहीं गले लगा कर कुछ मिनट भाव में खो जाना उनका प्रेम निछावर करने का तरीका हमने बचपन से देखा था।
उनके घर जाने पर बाग के फलों को खुद अपने हाथ से काट कर खिलाने से शुरुआत होकर स्वादिष्ट खाना परोस के खिलाने पर खत्म होता था । उनकी दृष्टि अत्यंत प्रेम पूर्ण हुआ करती थी ।बीच बीच में अपनी “बैठक” में भी उठ कर चले जाते थे , जहां उनका और पुस्तकों का साथ होता था। वो कमरा जिसमें ज़मीन पर मसनद ,तकिए, सफेद और बादामी खादी की चादरों से लैस ,बीच में छोटे छोटे स्टूल से सज़ा होता था ….. हम भी धीरे से झांक के देख लिया करते थे। ये यादें कोई २,४ साल की नहीं है।वर्षों साथ मिला हमको।
एक और याद ; शायद १९७५ की होगी । उनके एक बेटे का अकस्मात निधन हो चुका था, दूसरे बेटे आलोक चाचा ( जिनको हम बुलाते थे) राजुल चाची ।दोनों बहुत ही प्रेमी और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी डिपार्मेंट के प्रोफेसर थे, बाद में शायद जेएनयू में रहे। जो शायद आज भी इलाहाबाद के निवासी है, उनके भी नाम की पुस्तकें आज हमारी पीढ़ियां पढ़ रही है।जब मामा की पोती हुई उसका नाम ” बिटिया ” रखा, जिसको बाद में प्यार से टिया” बुलाया जाने लगा, उस के जन्मदिन पर हम सब “धूप छांव” में पहुंचे। फूलो की सजावट ,झूले लगे।कठपुतली का शो रखा गया था। उसी बीच मेरी आंखे चुंधिया गई — ये क्या आज किताब में जिनको पढते है, वो मेरे आगे खड़े है । ” गिल्लू” कहानी की लेखिका महादेवी जी “मै सबसे छोटी हूं” के लेखक सुमित्रा नंदन पंत जी। कुछ और भी जाने मैने चेहरे जिनकी यादें धुंधली हो गई है।
बस देखते ही रहे इन महान हस्तियों को। महादेवी जी की वो सीधे पल्ले कि किनारीदार खादी की सफेद साड़ी, गोल चश्मा और पंत जी को भी खादी की स्लेटी पतलून और आधी बाजू की सफेद बुशर्ट तिस पर वो स्लेटी बॉब्ड बाल ,वो अनोखा व्यक्तित्व भुलाए नहीं भूलते। हम अक्सर अपनी ऑटो ग्राफ पुस्तक साथ रखते थे ,पर मजाल कि मेरे हाथ उन तक पहुंच पाए। मेरे दिल में कैद वो यादें बहुत कीमती है। और एक बहुत प्यारी याद — मेरी प्रिय ‘टस्सर सिल्क साड़ी’ जो स्वयं जाकर हमको मेरी पसंद की , गांधी आश्रम से मेरी शादी के लिए दिलाई थी।मेरी अपनी दादी सागर के संभ्रांत परिवार की महिला थी । जिनकी बड़ी भाभी कमला देवी जी मुंशी प्रेमचंद जी की बेटी थी।मेरे पापा और बुआ के सगे मामा मामी। उनके मुख से अक्सर कुछ बाते सुनी जो आप तक पहुंचाने में समर्थ है।
श्री वासुदेव श्रीवास्तव जी (मामा) और ( प्रेमचंद जी की बेटी)श्री मती कमला जी मामी ,जिनका रूप और व्यतित्व भी बिलकुल अपने पिता पर था, प्रेमचंद जी की तरह ही देखने और विचार में उतनी ही सौम्य सरल। पुस्तकों के साथ उनका चोली दामन का साथ होना वाजिब भी था और मुंह में पान का बीड़ा हमेशा दबा रहता। मेरी बुआ बताती है, एक बार उनके घर ‘ सागर ‘ गई तो अम्मा ( मेरी दादी) ने ननद की तरह प्रेमचंद जी की बेटी ( जो उनकी भाभी थी) से कहा ” भाभी ये चौके में जाले बहुत हो रहे है कोने में”उनका जवाब था ” हां बीबी! ये हमारे घर के झाड़ फानूस है”। ये कुछ उनका मसखरा व्यक्तित्व झलकाता है। ननद भावज की चुटकियों के उनके स्नेह संवेदना के,उनके प्रगाढ़ रिश्तों के अनेक घरेलू किस्से हैं जो मेरी पारिवारिक जीवन से जुड़े है।
मेरे लिए बाबा दादी की भी ऐसी अनेक यादें हैं …. मेरी मां के चौके में खड़े होकर जब उनके मुख से सुना ” मीना, तुम्हारा मसालदान अपने आप में ही एक आयुर्वेद का पिटारा है।” हमारी आधी बीमारी की समस्या इन्हीं से सुलझ सकती हैं।
पिछले वर्ष हम अपने एनजीओ से हर वर्ष की तरह “सीनियर सिटिज़न डे” के लिए दिल्ली के पार्क में गए। जो आजकल कल आम रिवाज़ हो गया है ,हमारे रिश्तों को एक दिन अहमियत दे कर ” डे” मनाने का।
वहां एक महिला ने हमारा ध्यान आकर्षित किया जिनसे हमने उत्सुकता वश परिचय पूछा तो हम हदबुद हो गए …..दुनिया बहुत छोटी लगी जब सुना ये मुंशी प्रेमचंद जी के बड़े बेटे श्रीपत राय जी जिनको सब प्यार से धुन्नू मामा के नाम से जानते थे,जिनका संपर्क मेरे ताऊजी से अधिक था जो दिल्ली वासी थे, उनके साथ आना जाना अक्सर सुना था।
उनकी बहू ( मुन्शी प्रेमचंद जी की पौत्र बहू) श्रीमती स्मितरेखा जी है।बस फिर क्या था हम दोनों भी आत्मीयता से गले लग लिए, उनको अपना इलाहाबाद का परिचय दे कर। इनकी पैदाइश भी बनारस की थी, अब दिल्ली में स्थित हैं। जिनका शौक कजरी,ठुमरी शास्त्रीय संगीत की ओर रहा, जो अभी भी कायम है । उनके पति श्री अनिल राय जी ( प्रेमचंद जी बड़े बेटे के पुत्र) जो दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थ शास्त्री रहे।
अक्सर कुछ लोग समाज में लुप्त हो जाते है ,उनकी पहचान ,उनकी स्मृतियां भी गुम होने लगती हैं।
मेरे दिल ने भी ना जाने कितने वर्षों से इन कीमती यादों को कितनी तहों में संजो के रखा था ।आज उनको बिखेर कर दिल हल्का करने में ” गृहस्वामिनी” ने जो अवसर हमको दिया ,उसके हम आभारी है।
विनी भटनागर
नई दिल्ली