सुभागी
महान कथा सम्राट, क़लम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी “सुभागी” पर समीक्षात्मक आलेख।
कहा जाता है। जितना कहा जाना था। जितना लिखा जाना था, वो सब कहा और लिखा जा चुका है। प्रकृति प्रदत्त पंच तत्वों के नैसर्गिक एवम भौतिक प्रतिमान शाश्वत हैं। जिनकी विद्यमानता अनादिकाल से अनवरत स्थापित है। समय काल परिस्थितियों के कारण होने वाले परिवर्तनों से उन्हीं शाश्वत नैसर्गिक प्रतिमानों का स्वरूप बदल रहा है किंतु बीज वही है। आधुनिक काल में जब समग्र दुनिया और जीवन विस्तृत हो कर भी सिमटती जा रही है। व्यक्ति की सोच उसका चिंतन, बात विचार, व्यवहार, खान पान आदि पूर्व की अपेक्षा कुछ नवीन प्रयोगों द्वारा परिवर्तित होने की ओर अग्रसर है। फिर भी वर्तमान दर्शन उसी बुनियादी स्वरूप में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में विद्यमान है।
अशिक्षा, अज्ञानता, अंधविश्वास एवम कुरूतियों का अंधकार आज भी मौजूद है। प्रकृति प्रदत्त अथवा सामाजिक सरोकारों एवम विरासत में पाए संस्कारों का प्रभाव मानव जीवन पर दृष्टिगोचर है। काम क्रोध लोभ मोह माया आदि गुण आज भी मनुष्य में घर किए हुए हैं अपितु वृद्धि ही हुई है।
हमारे इन्हीं संस्कारों की विरासत को संजो कर रखने का दुर्लभ कार्य किया है सशक्त लेखकों ने। अतीत और वर्तमान को जोड़े रखने का कार्य भी लेखकों ने ही किया है। कहते हैं अतीत को जानना हो तो तत्कालीन साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। यूँ तो इस कार्य को अनेक लेखकों एवम साहित्यकारों ने वृहत रूप में किया है।
तुलनात्मक दृष्टि से आंकलन ना करके हम निर्विवाद रूप से कह सकते हैं कि मानवीय संवेदनाओं के कुशल चितेरे मुंशी प्रेमचंद का कोई सानी नहीं है ।
सामाजिक जीवन की समस्त विसंगतियों को जिस प्रकार उन्होंने जीवंत किया वो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। हिन्दी कहानी की यात्रा पर हम दृष्टि डालें तो मुंशी जी से आरंभ हो कर उन्हीं पे समाप्त हो जाती है। उन्होंने जिस सहज, सरल और संवेदनशीलता से सामाजिक विसंगतियों को उकेरा है वो कालजयी बन कर आज भी पाठकों के हृदय में स्थायी रूप ले चुका है।
जिन विषयों पर उन्होंने क़लम चलाई वो आज भी विद्यमान है।
ऐसी ही एक कहानी है “सुभागी” जिसके माध्यम से उन्होंने नारी जीवन की बहुआयामी वेदना को चित्रित किया है।
प्रस्तुत कहानी में उन विसंगतियों को उठाया गया है जो आज भी विद्यमान है।
सर्वप्रथम तो यही कि पुत्र को कुलदीपक और पुत्री को बोझ समझने की प्रवृति। पिता तुलसी महतो द्वारा पुत्र रामू के जन्म पर हैसियत से अधिक धन खर्च करना और बेटी सुभागी के समय धन होते हुए भी खर्च ना करना ये समूची नारी जाति के लिए अपमान तिरस्कार और उपेक्षा का आरंभ होता है। जब पुत्र जन्म पर थाली बजा कर सोहर गाया जाता है और बेटी को कर्ज के रूप में अनपेक्षित समझा जाता है।
आज भी सभ्रांत परिवारों में गर्भ जांच सामान्य बात है । भ्रूण हत्या हमारे जीवन का हिस्सा है। होश संभालते ही कन्या को ‘पराया धन’ और जीवन भर वसूल करते रहने वाली कर्जदार के रूप में समझा जाता है। बाल विवाह करके तुरन्त सर का बोझ उतारने की प्रवृति के चलते उसकी शिक्षा दीक्षा पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता।
ग्यारह वर्ष की अल्प आयु में विधवा होने का वज्रपात उस नन्हीं जान को समय से पहले बड़ा बना देता है और संघर्ष के कंटकीय पथ पर चलना सिखा देता है। कहते हैं ना दर्द की कोख से संवेदना का जन्म होता है। इसीकारण बाल विधवा सुभागी न केवल घर के काम काज में अपितु खेती बाड़ी के काम में भी निपुण हो जाती है और अपने माता पिता के लिए अगाध प्रेम का अखण्ड दीप प्रज्ज्वलित कर लेती है।
वहीं अत्यधिक लाड प्यार का परिणाम एक मात्र पुत्र रामू को अकर्मण्य एवम संवेदनहीन बना देता है। विवाह उपरांत भी पुत्र के दायित्वों का पालन न करके घर में अशांति का कारण बन जाता है।
सुभागी की बढ़ती उम्र के साथ दूसरे विवाह के लिए दबाव, उस कालखंड में भी विधवा विवाह की सात्विक बयार का झोंका प्रतीत होता है। लेकिन अपने भाई भाभी द्वारा सबके प्रति दुर्व्यवहार को देखते हुए उस समय विवाह ना करने का निर्णय उसकी दृढ़ता का परिचय देता है।
आज भी असंख्य बेटियां पुत्र बनकर बेटे का दायित्व निभा रही है। भाई भाभी द्वारा बंटवारा करके अलग हो जाने के बावजूद संघर्ष की मिसाल बन कर सुभागी अपने माता पिता का भरण पोषण करते हुए ‘नारी कभी न हारी’ का प्रतीक बन कर उभरती है।
पिता एवं माता के देहांत पर विधि विधान से क्रिया कर्म करवाना पुत्र रत्न की चाहत में न जाने क्या क्या उपाय करने वाले लोगों की मानसिकता पर गहरी चोट है। आज भी बेटियों को अंतिम संस्कार के दायित्वों से दूर रखने का प्रयास किया जाता है।
तत्कालीन समय में जात पाँत का अत्यधिक घृणित रूप देखने को मिलता था ऎसे में तेहरवीं पे ब्राम्हणों द्वारा निम्न वर्ग के घर भोज करना, नव समाज और मानवता की परिकल्पना को पोषित करता है।
सोभागी द्वारा अपने माता पिता की मृत्यु पर सहृदयी ठाकुर सजन सिंह से पांच सौ रुपये का कर्ज़ लेना तत्कालीन समय में सूद खोर महाजनी परंपरा के समाप्ति का सुखद संकेत प्रतीत होता है। कालांतर में सोभागी द्वारा सजन सिंह को पूरा कर्ज़ चुकाना दृढ़ निश्चयी एवम अथक परिश्रमी होने तथा साहसिक महिला होने के गौरव का आभास कराती है।
कहानी के अंत में पिता तुल्य ठाकुर सजन सिंह द्वारा सोभागी को पुत्रवधू के रूप में अपनाने का प्रस्ताव संवेदना के सेतु को तोड़ कर स्नेहिल प्रपात की मृदुल अश्रु धारा छलक जाने को विवश कर देता है।
अपने नाम को सार्थक करती और नारी जीवन के कोमल हृदय की छवि को सिद्ध करती। साथ ही संघर्ष की भट्टी में तप कर कुंदन बनी दृढ़ निश्चय का प्रतीक बनी सोभागी जैसे पात्र को जन्म देने के लिए परम श्रद्धेय मुंशी प्रेमचंद जी को सादर वंदन !
मुंशी जी स्वयं जीवन पर्यन्त अभावों को झेलते रहे। समाज में व्याप्त अनेक कुरूतियों का सामना करते रहे। फिर भी विधवा विवाह, जात पाँत की संकीर्णता, अंतर्जातीय विवाह जैसे साहसिक परिवर्तनों की उस काल में परिकल्पना करना उनकी वृहत सोच एवम नैसर्गिक लेखक होने का प्रमाण है।
अरुण धर्मावत
साहित्यकार
जयपुर, राजस्थान