‘आनंदी’ : मेरी प्रिय चरित्र
‘कथा सम्राट’ मुंशी प्रेमचंद जयंती के अवसर पर, ‘गृहस्वामिनी’ पत्रिका के तत्वावधान में आयोजित आलेख एवं कथा प्रतियोगिता के अंतर्गत आलेख का विषय, “आपको प्रेमचंद की कौन सी कहानी सबसे अधिक पसंद है और क्यों?” पढते ही उम्र के इस पड़ाव पर भी मेरे जेहन में जो नाम आया वह है, ‘बड़े घर की बेटी’, और तभी मुझे इस बात का अहसास भी हुआ कि संभवतः कक्षा छः में पहली बार यह कहानी पढ़ी थी तब से लेकर आज तक इसे कभी भूली ही नहीं।
हिन्दी माध्यम से पढ़ाई की है तो, पाठ्यक्रम में एक न एक प्रेमचंद की कहानी शामिल रहती ही थी। बचपन का दिमाग कच्ची मिट्टी के समान होता है, उस पर जो भी अंकित हो जाये, वह एक अविस्मरणीय स्मृति बन कर इंसान के साथ जीवन पर्यंत चलता है। आज भी जब भी प्रेमचंद की कहानियों की बात होती है, तो मेरे दिमाग में सबसे पहले उसी दौर में पढ़ाई गई कहानियों के शीर्षक कौंधतें हैं : ‘दो बैलों की कथा’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘ईदगाह’, ‘बड़े घर की बेटी’, और ‘नमक का दारोगा’।
बचपन या किशोरावस्था में जब भी इन कहानियों को पढ़ा या कक्षा में पढ़ाया – समझाया गया, तो तात्कालिक रूप से हमने उसे प्रश्नोत्तर, व्याख्या या चरित्र – चित्रण के दृष्टिकोण से पढ़ा और समझा। इस उम्र में कहानियों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की क्षमता नहीं होती। यह समझ में नहीं आता कि, इतने महान कथाकार द्वारा लिखित शब्द एक बालमन… एक किशोर मन पर समाज के प्रति कैसी अवधारणा पैदा करता है, उस कथा के किस पात्र ने उसे इस हद तक प्रभावित किया होता है कि वह उसे अपना आदर्श मानकर अपने खुद के व्यक्तित्व निर्माण का ताना – बाना उसी पात्र के इर्द-गिर्द बुनने की कोशिश करता रहता है।
मैं बात कर रहीं हूँ, ‘बड़े घर की बेटी’ के केंद्रीय पात्र आनंदी की। यह उन दिनों की बात है जब संयुक्त परिवार की अवधारणा बाजाब्ता कायम थी। और यह कहानी भी संयुक्त परिवार की पृष्ठभूमि में बुनी हुईं ऐसी कहानी है, जिसका टैगलाइन है, ‘औरत ही घर बनाती है और औरत ही घर बिगाड़ती है’। कहानी का सार-संक्षेप यह है कि नायिका ‘आनंदी’ एक संपन्न घर की लड़की की शादी एक सामान्य, गृहस्थ परिवार के बड़े बेटे श्रीकंठ सिंह के साथ हो जाती है।बी. ए. पास श्री कंठ सिंह, एक आदर्श वादी, निर्बल शरीर वाला किताबी कीड़ा तरह का नौकरीपेशा इंसान है और शहर में रहता है। श्रीकंठ सिंह का छोटा भाई ठीक उसके विपरीत गठीले बदन का सुदर्शन परंतु अनपढ़ उजड्ड और गंवार तरह का इंसान है। एक दिन दाल में घी नहीं होने के कारण देवर – भाभी में जबर्दस्त कहा – सुनी हुई और नौबत यहां तक आ गई कि श्रीकंठ सिंह ने अपने भाई से अलग रहने का फैसला सुना दिया। अपने बड़े भाई के फैसले का आदर करते हुए लाल बिहारी सिंह खुद ही घर छोड़कर जाने लगता है, पर पिछली सारी बातें भूलकर आनंदी अपने देवर के साथ सुलह ही नहीं करती बल्कि बहुत ही
मान – मनुहार से उसे घर छोड़ कर जाने से रोकती भी है, इस तरह एक घर टूटने से बच जाता है।
इस कहानी में आनंदी को ‘बड़े घर की बेटी’ बताकर संभवतः कथाकार यह संदेश देना चाहते थे कि जो भी लड़की अपने घर परिवार को प्रेम के बंधन में बांध कर रखती है वह बड़े घर की बेटी कहलाती है।
हमलोगों की पीढ़ी की लड़कियां गुड्डे – गुड़ियों के ब्याह रचाने का खेल खेलतीं थीं, जो कि उनकी आंखों में आनेवाली जिंदगी और अपनी गृहस्थी के सपनों को बसने का पर्याप्त अवसर देता था। उस कच्ची उम्र में इस कहानी को पढ़ने के बाद किसी भी बच्ची के मन में ‘आनंदी’ और प्रकारांतर में ‘बड़े घर की बेटी’ बनने का सपना अगर जागा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं… यह सपना मेरे मन में भी जागा… ।
अब समय बहुत बदल गया है, संयुक्त परिवार के विघटन और माता – पिता दोनों के नौकरीपेशा होने के कारण बच्चों की जिंदगियां किस तरह तबाह हुईं हैं, इससे हम सब भली – भांति अवगत हैं। इस कोरोना काल में जिस प्रकार प्रवासी मजदूर अपने गांव घर की ओर लौटने के लिए मजबूर हुए हैं, ऐसे में इस कहानी की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। आज बहुत ही जरूरत है आनंदियों की… बड़े घर की बेटियों की..।इसलिए आज भी ‘बड़े घर में की बेटी’ कहानी मुझे सबसे ज्यादा पसंद है।
ऋचा वर्मा
पटना, बिहार