वर्तमान साहित्य में स्त्री उत्थान क्यों और कैसे ?
साहित्य के संदर्भ में चाहे अतीत हो या वर्तमान अथवा भविष्य। उत्पीड़ा की एक त्रासदी होती है। अतीत हमेशा भुक्तभोगी पीड़ाओं से गुज़रता है, तो वर्तमान आशादायी भविष्य की ओर संकेत करता है। पीड़ा और त्रासदी में कोई परिवर्तन नहीं होता, केवल समय गतिशील होता है और पीड़ा का स्वरूप बदल जाता है लेकिन पीड़ा तो सिर्फ़ पीड़ा ही रह जाती है। ऐसी स्थिति में साहित्य हमारे जीवन-मूल्यों को परिवर्तनशील बनाता है। साहित्य हमारे अंतर्मन में संवेदनाओं को जगाता है तथा सामाजिक मूल्यों से सरोकार स्थापित करता है। साहित्य समाज को प्रभावित करता है अथवा समाज और साहित्य एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। जैसे-जैसे समाज की गतिविधियां बदलती गई, साहित्य भी परिवर्तनशील बन जाता है अथवा समाज और साहित्य एक दूसरे की गतिविधियों के साथ बदलते जाते हैं। इसीलिए साहित्य में कई धाराओं का उद्भव हुआ है और होता रहेगा। जैसे-काव्य में प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कविता, साठोत्तरी कविता और गद्य साहित्य में खड़ीबोली का साहित्य, जीवनवादी, मार्क्सवादी और यथार्थवादी साहित्य आदि। साहित्य में विचारों के नये-नये विमर्श विकसीत होते रहेंगे जैसे- स्त्री विमर्श और दलित विमर्श आदि। साहित्य भले किसी भी विचारधारा से प्रभावित हो, किसी भी युग में लिखा गया हो। वह उस समाज की गतिविधियों का दर्पण होता है। संत कबीर के दोहे तत्कालीन समाज में ही नहीं आज भी प्रासंगिक है, इसलिए जब तक हिंदी साहित्य है तब तक कबीर के दोहे जन-समाज से कभी नहीं मिटेंगे।
हम आज भी प्रेमचंद को कभी अतीत में नहीं बदल सकते, प्रेमचंद के विचार हमारे लिए सदैव प्रासंगिक है और रहेंगे। साहित्य और समाज एक ही पहलू के दो अभिन्न अंग है। समाज में जीनेवाला व्यक्ति समाज की घटित घटनाओं को कल्पना अथवा यथार्थ के माध्यम से साहित्य में अंकित करता है और उस घटना को पाठक भलि-भांति समझ लेता है। अतः हम साहित्य के द्वारा समाज सुधार की परिकल्पना कर सकते हैं। हम यदि इतिहास के पन्नों को पलटकर देखते हैं तो स्पष्ट होता हैं कि आंदोलन किसी विशिष्ट विचारधाराओं से प्रभावित होते हैं और उस विचारधारा की छाया साहित्य में अंकित हो जाती है।
वर्तमान समय में सरकार देश के किसानों एवं महिलाओं के लिए कई योजनाएं चला रही हैं, समाज उत्थान के लिए गैर-सरकारी संगठन एवं कई सेवाभावी संगठन देश के विभिन्न इलाकों में विकास कार्य करने के बावजूद भी हम होरी और धनिया को अप्रासंगिक नहीं बना पा रहें हैं। क्या ऐसी स्थिति में साहित्य हमारी सामाजिक समस्याओं को हल करने में कामियाब हो जाता है? क्या साहित्य हमारे जीवनमूल्यों में परिवर्तन लाता है? इतनी सी चर्चा के बाद हम हमारे विषय वर्तमान समय में साहित्य द्वारा स्त्री उत्थान क्यों और कैसे? पर विचार करते हैं। विषय से जुड़े दो प्रश्नों पर विचार करने से पहले मैं यहां एक कविता की पंक्ति प्रस्तुत करना चाहता हूं —
बचपन में कहा लोगों ने,
छोटी बच्ची हैं,
कुछ जानती-वानती नहीं,
बैठ जा चुप-चाप।
जवानी में कहा लोगों ने,
अब जवान हो गई है,
भला-बूरा जानती नहीं,
बैठ जा चुप-चाप।
बुढापे में कहा लोगों ने,
अब बुढी हो गई है, करेगी भी क्या
बैठ जा चुप-चाप।
यह कविता वर्तमान समय में साहित्य द्वारा स्त्री उत्थान क्यों और कैसे की प्रासंगिकता को अपने आप स्पष्ट हो जाती है। साहित्य भले किसी भी युग में लिखा हुआ हो, वह हमारा वर्तमान बन जाता है तथा प्रेरणा एवं संवेदना के माध्यम से साहित्य हमारे उज्जवल भविष्य का पथप्रदर्शक भी हो जाता है। हम आज भी प्रेमचंद की कहानी “`शुद्रा” के पात्र गौरा और मंगरू को पारिवारिक जीवन के तौर पर कभी नहीं भूल सकते वे आज भी हमारे वर्तमान समय में मौजूद है। केवल समय गतिशील रहा है, सभ्य समाज में मनुष्य की त्रासदी में कोई परिवर्तन नहीं आया।
साहित्य द्वारा स्त्री उत्थान क्यों और कब किया गया यह बताना अत्यंत कठिन है। फिर भी स्त्री उत्थान का प्रारंभ सबसे पहले राज राममोहन राय ने सती प्रथा के विरोध से किया। नवजागरण काल में स्त्री उत्थान के लिए काफी प्रयास किये गये। नीलम गुप्ता सन् 1975 को महिलाओं का पुनर्जागरण के वर्ष के रूप में स्वीकार करती है, उनके अनुसार सन् 1975 से महिलाओं ने संगठित होकर अपने लिए संघर्ष की शुरुआत की थी। स्त्री अभी तक वह संघर्ष तो कर रही थी पर अपने मुक्ति के लिए नहीं। इस महिला आंदोलन से कई मुद्दे जुड़े थे, उनमें दहेज और वेश्यावृत्ति के मुद्दे अत्यंत महत्वपूर्ण थे। सन् 1980 में महिला आंदोलन में मुख्यतः बलात्कार, दहेज, दहेज हत्या और पुलिस अत्याचार यह मुद्दे शामिल हुए। (संदर्भः स्त्री मुक्ति का सपना-अतिथि संपादक-अरविंद जैन, लीलाधर मंडलोई, नारी संघर्ष के दो दशकः क्या खोया, क्या पाया- नीलम गुप्ता)
महिला आंदोलन और मुक्ति से संबंधित मराठी में मीनाक्षी मौन और उर्मिला पवार की “आम्ही ही इतिहास घडविला” नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। हिंदी में डॉ.सुमन राजे की पुस्तक “हिंदी साहित्य का आधा इतिहास” प्रकाशित की गई जो स्त्री उत्थान का समग्र अवलोकन करती हैं।
मुंशी प्रेमचंद ने अपने उपन्यास गोदान में कई सामाजिक प्रश्न उपस्थित किये हैं, जिसमें विधवा पुनर्विवाह एक प्रमुख प्रश्न है। हिंदी साहित्यकारों ने हिंदी में नायिका के रूप चित्रित किये हैं, लेकिन प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य में सबसे पहली विद्रोही नायिक के रूप में धनिया को प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने गोबर और झुनिया के विवाह से विधवा पुनर्विवाह की समस्या का हल निकाला है। इसी उपन्यास में पिछड़े वर्ग की महिला सीलिया के साथ अनैतिक संबंध रखकर समाज में सम्मान पानेवाले मातादीन ब्राह्मण और विधवा से विवाह करने पर गांव में हुक्का पानी बंद होने की स्थिति को चित्रित किया है। इस माध्यम से प्रेमचंद ने एक सामाजिक स्तर को प्रकट किया है, एक ओर विधवा से विवाह करने वाला अपने गांव और बिरादरी में हुक्का पानी बंद हो जाता है और सीलिया चमारिन से अनैतिक संबंध रखनेवाला मातादीन समाज में उसी गांव और बिरादरी के बीच सम्मान प्राप्त करने का हकदार हो जाता है।
शुद्रा की नायिका गौरा एक आदर्शवादी और पतिपरायण नारी है। गौरा गांव में अपने माँ के साथ झोपड़ी में सेर दो सेर अनाज पाकर खुश रहती है। शुद्रा कहानी के द्वारा प्रेमचंद ने पारिवारिक एवं स्त्री मानसिकता से संबंधित कई सवाल किए हैं। कहानी की शुरुआत चिंता से होती है, वह है गौरा की सगाई। एक दिन गौरा मंगरू के साथ परिणय सूत्र में बंध जाती है। कुछ दिन अच्छे गुजरते हैं और एक दिन गौरा का पति मंगरु उसे छोड़कर कहीं चला जाता है। कई सालों तक पति के विरह में जीनेवाली गौरा ब्राह्मण के बहकावे में आकर पति के तलाश में निकल पड़ती है काफी समस्याओं का सामना करने के बाद आखिर वह अपनी गहरी निष्ठा के कारण अपने पति को प्राप्त करती है। उसके पति को मिरिच में गुलाम बनाया गया था। एकबार यदि कोई किसी अंग्रेज अधिकारी के चुंगूल में फँस जाता तो वापस कभी नहीं आता था। मंगरू की भी कहानी कुछ ऐसी ही थी। मंगरू का मालिक अंग्रेज अधिकारी गौरा की ओर काम-वासना से देखता है और मंगरू से कहता है कि गौरा को उसके पास भेजें। यह कहने पर मंगरू मना करता है, कहता है कि वह मेरी पत्नी है। तब अंग्रेज अधिकारी मंगरू की कौड़ों से पिटाई करता है, गौरा उसी अंग्रेज अधिकारी के मन में वात्सल्य और मातृत्व का भाव जगाती है। अंग्रेज अधिकारी कोड़ों से जख्मी मंगरू को अस्पताल में भरती करवाता है। गौरा तीन दिन तक अपने पति के पास बे-दाना पानी खड़ी रही। मंगरू को पाने के लिए गौरा ने सबकुछ छोड़ दिया। कहानी का अंत भी एक प्रश्न से होता है, “क्या साहब के बंगले में तुम्हारे लिए जगह नहीं है।” इस प्रश्न का उत्तर ही गौरा और मंगरू के जीवन का अंत हैं। प्रेमचंद की कहानी शुद्रा एक स्त्री की मानसिकता से संबंधित कई सवाल करती है।
साहित्य के परिप्रेक्ष्य में स्त्री उत्थान के संदर्भ में जब हम विचार करते हैं तो आज हिंदी साहित्य में महिलाओं के प्रश्नों को लेकर अधिकतर पुरुष मानसिकता के लेखक अथवा लेखिकाएं अधिकतर लिख रही हैं। परिणामतः स्त्री की पीड़ा को लेकर लिखनेवाले अलग रह जाते हैं और उनकी वेदनाएं समाज का हिस्सा नहीं बन पाती। स्त्री वेदना के भुक्तभोगी नहीं लिख पाते और स्त्री-विमर्श अथवा महिलाओं के प्रश्नों को सापेक्ष्य संवेदना के रूप में देखा जाता है। पुरुष मानसिकता का स्त्री लेखन समाज में महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचारों को सही ढंग से चित्रित नहीं करता। दूसरी तरफ महिलाओं को पीड़ा से मुक्त करने के लिए कानून भी बनाए गये हैं, किन्तु समाज का एक वर्ग इस कानून को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा हैं। इसीलिए स्त्री मुक्ति के प्रश्न पर हमेशा के लिए प्रश्नचिन्ह लगा है। आखिर कैसा होगा स्त्री उत्थान? स्त्री की पीड़ा का वर्णन चंद्रकांत देवताले की “बाई! दरद ले” कविता में इस प्रकार किया हैः-
बाई! तुझे दरद लेना है
जिंदगी भर पहाड़ ढोए तूने
मुश्किल नहीं है तेरे लिए,
दर्द लेना
(संदर्भःबाई! दरद ले- चंद्रकांत देवताले)
स्त्री उत्थान संबंधी लेखन में भुक्तभोगियों द्वारा न लिखा जाना, केवल अनुभूति के स्तर पर लिखा जाना। यह स्त्री लेखन संबंधी एक समस्या है। सामाजिक तौर पर देखा जाए तो एक स्त्री ही दूसरी स्त्री की शत्रु हैं।
वर्तमान में स्त्री उत्थान से संबंधित कई चुनौतियां हैं। स्त्री से संबंधित समस्याएं हमारी गहरी आस्था का प्रश्न है, क्योंकि स्त्री माता, बहन, बेटी और पत्नी है। कहा जाता है कि स्त्री कुछ समय के लिए पत्नी और अनंतकाल के लिए माता होती है। लेकिन आज का स्त्री विमर्श एक ऐसा सापेक्ष्य संवेदना का हिस्सा है, जो वास्तविक समस्याओं पर पर्दा डालता है। स्त्री मुक्ति के लिए संविधान ने कानून बनाया है, लेकिन अधिकतर महिलाएं इस कानून का गलत प्रयोग कर रही हैं। दहेज से संबंधित अनगिनत झूठे मामले अदालत में दर्ज हो रहें हैं। महिलाएं ऐसे कानून का सहारा लेकर, परिवार जनों को मुश्किलों में डाल रही हैं, एक तरफ गौरा जैसी महिलाएं समाज के कुचक्र में फंसकर आत्महत्याएं कर रही हैं। जब तक महिलाएं अपने दोहरेपन के प्रति सचेत नहीं होती जब तक स्त्री उत्थान की कल्पना करना व्यर्थ हैं।
डॉ नीरज कृष्ण
पटना, बिहार