छाप ‘मंत्र’ की

छाप ‘मंत्र’ की

सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यकार प्रेमचंद की बहुत सी कहानियों ने मुझे पुनः-पुनः पढ़ने के लिए विवश किया| उनकी कहानियों के कथानक और चरित्र हमारे आस-पास की घटनाओं और चरित्रों से इस कदर मिलते-जुलते है कि हमारे भावों और संवेदनाओं को छूते हैं| साथ ही उनका लेखन आज भी प्रासंगिक हैं| प्रेमचंद की कहानियों में से “मंत्र” कहानी ऐसी थी जिसको मैंने सर्वप्रथम किशोरावस्था में पढ़ा था| कहानी के कुछ अंश स्मृतियों में कुछ इस तरह अंकित हो गए थे कि आज भी पढ़ने को विवश करते हैं| मेरा कार्य-क्षेत्र भी मरीजों से जुड़ा था सो इस कहानी का स्वतः ही मेरे जीवन से जुड़ जाना बहुत स्वाभाविक था|
जगह-जगह पर कहानी की पंक्तियाँ बूढ़े भगत की गरीबी और लाचारी की बयानी करती हैं| साथ ही बूढ़े भगत के व्यक्तित्व में भोलापन कहानीकार ने भरा है कि पढ़ने वाला भावुक हो उठे| बूढ़ा भगत जब अपने मरणासन्न बेटे को डॉक्टर चड्डा के पास दिखाने लाता है तब डॉक्टर चड्डा उसको बगैर देखे गोल्फ खेलने चले जाते हैं तब वो सोचता है….कि‘संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते,शायद इसका उसे अब भी विश्वास नहीं आता था|’सो कॉल्ड सभ्य समाज का ऐसा निर्मम व्यवहार बूढ़े भगत की समझ के बाहर था| तभी तो वो अपने सात में से इकलौते बचे बेटे के प्राणों की भीख माँगता रहा| पर डॉक्टर चड्डा नहीं पिघले|बूढ़े भगत के घर की दुर्दशा का वर्णन भी कहानीकार ने बहुत सजीव किया है| गरीबी और लाचारी है मगर स्वाभिमान भी है| जब भगत को डॉक्टर चड्डा के बेटे को सांप के काटने का पता चलता है तब दवंदों-अन्तर्दयवंदों में घिरा भगत जाने के लिए माना करने के बाद भी डॉक्टर चड्डा के बेटे को बचाने पहुँच जाता है| भगत ने कभी किसी की भी तकलीफ को नजरंदाज नहीं किया था| कहानी के उस मोड़ पर भगत कहता है…“भगवान बड़ा कारसाज़ है”…इस छोटी-सी पंक्ति में जीवन का मर्म छिपा है| कहानी के अंत में स्वाभिमानी भगत के लिए डॉक्टर चड्डा पश्चाताप व आत्मग्लानि से भरकर कहते हैं….
‘एक चिलम तंबाकू का भी रवादार न हुआ भगत’| क्यों कि मंत्र फूँककर डॉक्टर चड्डा के बेटे को जीवित करने के बाद भगत बगैर कुछ जताए और लिए वहाँ से चुपचाप चला जाता| जिस सज्जनता के पाठ को भगत ने डॉक्टर चड्डा को पढ़ाया वो उनके लिए बहुत बड़ा था|
कहानी पढ़ते-पढ़ते जब संवेदनशील व्यक्ति की आँखों के सामने घटनाएं सचित्र अश्रुओं संग तैरने लगे तब लेखन सार्थक हो जाता है| ऐसा ही पाठक के रूप में मेरे साथ हुआ| यह कहानी मरीजों के साथ समय गुजारने पर मेरे लिए हमेशा प्रेरणा बनी| ताकि कोई भी जरूरतमन्द कभी गलती से भी उपेक्षित न हो जाए| लाचार गरीब मरीजों के दिए रुपयों को मैंने कभी नहीं गिना| जो भी उन्होंने दिया सहर्ष स्वीकार कर रख लिया| परिणामस्वरूप ईश्वर ने अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखी|
कुछ इस तरह कहानी ‘मंत्र’ से मेरा साथ बना रहा|

प्रगति गुप्ता

जोधपुर, राजस्थान

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