‘आज का होरी’ कौन लिखेगा ?

‘आज का होरी’ कौन लिखेगा ?

किसान की फसल जब तबाह हो जाती है
तब सियासत की फसल लहलहा उठती है।

‘भारत एक कृषि-प्रधान देश है’ जब यह पंक्ति हमारे नीति-निर्माता, योजनाकार जब मौके-मौके पर कहते हैं तो उनके मुँह से यह सुनकर न तो हँसी आती है और न ही गुस्सा, बल्कि यह सोचना पड़ता है कि हमारे ये नीति-नियामक या तो मूर्ख हैं या फिर धूर्त। हाँ, भोले तो कतई नहीं।

प्रेमचंद और गोदान के बारे में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि गोदान जन-जीवन के साहित्यकार प्रेमचंद का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है। इसमें उन्होंने अभावग्रस्त भारतीय किसान की जीवन-गाथा का चित्र उपस्थित किया है। देहात की वास्तविक दशा का खाका खींचा है। इसमें हमारे ग्रामीण-जीवन की आशा-निराशा, सरलता-कुटिलता, प्रेम-घृणा, गुण-दोष सभी का मनोहारी चित्रण हुआ है।

गोदान को किसान जीवन की समस्याओं, दुखों और त्रासदियों पर लिखा गया महाकाव्य माना जाता है। इस महाकाव्य की कथा में गांव और शहर के आपसी द्वंद्व, भारतीय ग्रामीण जीवन के दुख, गांवों के बदलने टूटने बिखरने के यथार्थ और जमींदारी के जंजाल से आतंकित किसानों की पीड़ा का मार्मिक चित्रण है। यह उपन्यास होरी के नायकत्व के चारों ओर बुना गया है। होरी कोई धीरोद्दात नायक नहीं न ही उसके चरित्र में महानता और चमत्कार ही है। वह एक अतिसाधारण मनुष्य है और अतिसाधरण भारतीय किसान का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र है। धूप और संघर्षों से सांवली और सूखी पड़ गई उसकी त्वचा,पिचका हुआ मुंह, धंसी हुई निस्तेज आंखें और कम उम्र में ही संघर्षों की मार से बुढ़ाया हुआ मुख– होरी के इस बिंब से किसी भी भारतीय किसान का चेहरा बरबस सामने आ जाता है।

हिंदी कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं के पात्र आज भी शोषण की जंगी मशीन में पिस रहे हैं। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ का नायक होरी आज भी महाजनों के चंगुल में है। किसान आज भी कर्ज में डूबा है। वह तिल-तिल कर मर रहा है। मुंशी के पात्र घीसू-माधव, पुनिया-गोबर का चरित्र आज भी समाज में ढूंढना कठिन नहीं है। ऐसे में उनकी प्रासंगिकता आज भी वैसी ही है।
किसानों की गर्दन साहूकारों के पांव के नीचे दबी है। किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। कर्ज से कराह रहे हैं। नगरों की कोलाहलमय चकाचौंध ने गांवों की विभूति को कैसे ढंक लिया है, जमींदार, मिल मालिक, अध्यापक, पेशेवर वकील और डॉक्टर, राजनीतिक नेता और राजकर्मचारी जोंक बने कैसे गांव के इस निरीह किसान का शोषण कर रहे हैं। आज भी गांवों के वही हालत है। वही गरीबी, वही शोषण, वही रूढ़ियां, वही पोंगापंथ।
होरी और उसके जैसे असंख्य किसानों की जीवन दुर्दशा का चित्र पेश करते हुए प्रेमचंद लिखते हैं– घर का एक हिस्सा गिरने को हो गया। द्वार पर केवल एक बैल बंधा हुआ था, वह भी नीमाजान- अब इस घर के संभलने की क्या आशा है- सारे गांव पर यही विपत्त्ति थी। ऎसा एक भी आदमी नहीं था जिसकी रोनी सूरत न हो। चलते फिरते थे, काम करते थे, पिसते थे, घुटते थे, इसलिए कि पिसना और घुटना उनकी तकदीर में लिखा था। जीवन में न कोई आशा और न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई हो, भविष्य अंधकार की भांति उनके सामने है।”
सम्पूर्ण गोदान में किसानों का खून चूसने वाली महाजनी सभ्यता का क्रूर शोषण चक्र दिखाई देता है। इस चक्र में फंसा हुआ होरी और उस जैसे असंख्य गुमनाम किसान साधन विहीन हैं। व्यवस्था के शोषण के शिकार ये किसान अपमान और पीड़ा से भरी जिंदगी को मर मरकर जीते हैं। शोषण और संत्रास को चुपचाप सहते जाने की इस लंबी परम्परा को होरी न उलटता है और न पलटता है केवल बर्दाश्त करता है। वह मानता है कि ‘जिन तलवों के नीचे गर्दन दबी हो उनको सहलाने में ही कुशल है’। यह उपन्यास जमीदार, अफसर,पटवारी, साहूकार, पुरोहित के आतंक में फंसे होरी की लाचारी का मार्मिक बिंब है। महाजनी सभ्यता के क्रूर पंजों में फंसे होरी की कहानी किसी भी गरीब और शोषित भारतीय किसान की भांति ही है जो गरीबी की मार, बंटवारे का दर्द्, कर्ज की मार, बैलों की जोड़ी के बिक जाने या मर जाने का सदमा, आधा खेत साझे की खेती का अपमान और अपने खेतों की नीलामी का दंश सहता हुआ आखिरकार् मजदूरी करने को बाध्य हो जाता है। होरी के चरित्र में विद्रोह और क्रांति की इच्छा न दिखाकर प्रेमचंद ने होरी को एक आम किसान का प्रतिनिधि बनाए रखा। यह लेखक का यथार्थवादी नजरिया है जिसके चलते होरी को महान क्रांतिकारी नायक न दिखाकर या शोषण करने वालों का हृदय परिवर्तन न दिखाकर कथा को दुखांत रूप दिया है।

प्रेमचंद ने गोदान को संक्रमण की पीड़ा का दस्‍तावेज़ बनाया है। इस उपन्यास में होरी ही एकमात्र ऐसा पात्र है जो युग के साथ बदलता नहीं है। यही न बदलना होरी की शख्सियत का अहम पक्ष है। सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर बदलते युग में होरी का बेटा गोबर किसान से मजदूर बन जाता है। गोबर का शोषण बरकरार रहता है लेकिन वो बच जाता है और उसमें प्रतिरोध का स्‍वर बना रहता है।

गोदान दो सभ्‍यताओं का संघर्ष है। एक ओर किसानी सभ्यता है जिसका प्रतिनिधित्‍व होरी करता है जबकि दूसरी ओर महाजनी सभ्‍यता है। यह स्‍वाभाविक है कि सामंती सभ्यता से महाजनी सभ्यता के इस बदलाव में आखिरकार होरी पराजित होता है।खेती-किसानी कभी मुनाफे का धंधा हुआ करती थी, लेकिन अब वह घाटे का कारोबार हो गई है। देश में खेती-बाड़ी की बदहाली हाल के वर्षों की कोई ताजा परिघटना नहीं है, बल्कि इसकी शुरूआत आजादी के पूर्व ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही हो गई थी। अंग्रेजों से पहले के राजे-रजवाड़े खेतीबाड़ी के महत्व को समझते थे। इसलिए वे किसानों के लिए नहरें-तालाब इत्यादि बनवाने और उनकी साफ-सफाई करवाने में पर्याप्त दिलचस्पी लेते थे।

स्वतंत्रता के पश्चात एक बहुत ही सुनियोजित तरीके से आज तक की सभी सरकारों की यह मंशा रही है कि गाँव के किसानों को बाध्य कर दिया जाये कि वह लचर होती किसानी को छोड़ कर शहर के पूंजीपति उद्योगपतिओं के कल-कारखानों/ उद्योगों में उन्हें एक मजदुर के रूप में उपलब्ध हो सकें। किसान फसल आने के पहले ही कर्जा लेते हैं तो छोटे व्यवसायी और अन्य श्रमिक वर्ग आय के मौसम के आधार पर उधार पर खरीददारी करने लगा है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे देश में उपभोग प्रवृत्ति में गुणात्मक परिवर्तन आया है जबकि आय के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। स्थिति यह है कि लोगों ने खाने पीने से अधिक आधुनिक सामानों पर व्यय करना शुरु कर दिया है। किसान, छोटे व्यापारी तथा लघु उद्योगपति की आय के स्वरूप में वैसी प्रगति नहीं हुई पर उपभोग प्रवृत्ति के बदलाव ने उन्हें निम्न वर्ग में ला खड़ा कर दिया है।

होरी ही है जो संक्रमण को समझ नहीं पाता वह सामंतवाद / उपभोक्तावादी मूल्‍यों को ढोता रहता है, न मरजाद को छोड़ पाता है न गाँव को, न जमीन को और न किसानी को ही। अंतत: वो मरता भी है गाँव को शहर से जोड़ने वाली सड़क को बनाते हुए, वही सड़क जो अंतत: गाँव पर शहर के अधिपत्‍य की घोषणा है। यह सड़क सामंतवाद के पतन की और पूंजीवाद की जीत की निशानी है। वह अपना जीवन मर्यादा के परम्परागत मिथ को पाने के लिए झोंक देता है और अपनी मृत्यु के समय भी गाय के दान जैसे काम को न कर पाने के दुख से भरा हुआ है।

आज का होरी भी कितने ही कष्टों को सहकर भी मरजाद का मोह नहीं छोड़ पाता है। आज भी उसका जीवन मरजाद के मिथ से घिरा हुआ है। उस पर धर्म, संस्कारों, नैतिकता और आदर्शों का दबाव गहरा है। एकाध स्थान पर जब वह अपनी नैतिकता से डगमगाता भी है तब भी वह द्वंद्व और दर्द का अनुभव करता है। होरी जैसे मामूली से किसान को भी लेखक ने मध्यवर्गीय नैतिकता का शिकार दिखाया है। इस द्वयंद के कारण न तो वह नैतिकता का पूरी तरह से पालन कर पाता है और न अपने स्वार्थों की पूर्ति कर पाता है। यह व्यवहार एक आम आदमी की अपरिभाषित और ओढी हुई नैतिकता की देन है जो इंसान को भीरू बनाए रखती है। गोदान के होरी की जिंदगी की यही नैतिकताजन्य नियति आज भी आम भारतीय किसानों की नियति है। गरीबी और शोषण के बावजूद मर्यादा से जीवन जीने की तमन्ना और जिद में पिसता हुआ होरी।

आज का होरी भी सुबह काम पर जाता है दिन भर पसीना बहाकर अपना पारिश्रमिक लेकर शाम को घर चूल्हे जलाने की व्यवस्था करता है, अंग्रेजी में इसे हैंड टू माउथ कहा जाता है। अगर इनके घर में कोई बीमार हो जाये तो अपने मालिक से कर्जा लेना पड़ता है और विवाह हो तो चक्रबृद्धि ब्याज पर उधार लेना पड़ता है। ये वे बेबश दुर्भाग्यशाली इंसान हैं जिनका जन्म कर्ज में होता है, मृत्यु के उपरांत इनका कफ़न भी कर्ज का होता है और तेरह दिन बाद तेरहवी भी कर्ज में होती है…….. यही तो आज के होरी की भी व्यथा-कथा।
जिस खेत से दहका को मयस्सर नहीं रोटी
उस खेत के हर गोशा ए गंदुम को जला दो!
अल्लामा इकबाल ने जब ये शेर कहा था तब के दौर की यही इन्तहा रही होगी मगर आज इंतिहा अपने हदे पार कर चुकी है। किसानो के नाम पर बेशर्म सियासत का बाजार गर्म है। राजनितिक दलों ने अपने कोठे सजा लिए हैं। मगर मुल्क के किसान की निगाह में उसका आसरा अब महज रस्सी का वो टुकड़ा ही रह गया है जिसे गले में फंसा कर वो मौत की पनाह में चला जा रहा है।

डॉ नीरज कृष्ण
पटना, बिहार

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