काहे बिहाए बिदेश
गाँव का चबूतरा जो हमेशा गुलजार रहता था, आज सुनसान है। वहाँ हमेशा एक भीड़ हुआ करती थी, खोमचे वाले, बस पकड़ने वाले, फेरी वाले। सुस्ताने की एक वही जगह थी। पीपल का बड़ा पेड़ और चारों तरफ बड़ा चबूतरा। एक हैंड पम्प भी लगा हुआ है। दरअसल कल ही सरकारी दफ्तर से खबर आई है कि बड़े, बूढ़े, बच्चे कोई भी घर से ना निकलें। वैसे गाँव था छोटा- यही कोई चार सौ घर, तीन पक्के, बाकी कच्चे घर।| कुछ घरों पर लोगों ने खपरैल छत बनवा ली है। यहाँ के ज्यादा लोग बगल के शहर में काम करने चले जाते हैं। दिल्ली भी दूर नहीं है। बारह घंटे में दिल्ली पहुंच जाओ। खेत खलिहान परती हैं, पानी है नहीं। गाँव में घर-जोरू-अम्मा यही संभालती हैं छोटे खेत। बस गुजर बसर हो जाए समझो। धीरे-धीरे खेतों पर लोगों का विश्वास कम हो गया है।
तीन-चार दिनों से एक सुगबुगाहट है। कोरोना अजीब सी बीमारी है। छूत की बीमारी से भी खतरनाक। दूर बैठो और नाक-मुह पर कपड़ा डाल लो। अब गरमी में तो गमछा गाँव में हर लोग लगा ही लेते हैं। गाँव के डेढ़ सौ लड़के लौट आए हैं। बदहवास, टूटे हुए सपनों के साथ। पैसा नहीं, किसी ने दो दिन नहीं खाया, किसी के साहूकार ने सब पैसा रखवा लिया। छोटे बच्चों और पत्नियों के साथ चल पड़े। हीरा ने एक साइकिल खरीदी दुगने दामों पर और सब क॒छ लादकर ले आया बीबी के साथ । बीबी मृदुला आठवीं पास है और थोड़ा बहुत लिख पढ़ लेती है। चलते हुए कर्जा जोड़ रही थी। बकाया मकान का किराया बारह सौ रुपए, पड़ोसन चाची के नौ सौ रुपए, बनिया का डेढ़ हजार- सब छोड़छाड़ कर आ गए। बोल आए हैं कि दो तीन महीनों में लौटेंगे, तब चुकता करेंगे। घर छोड़ना पड़ा। काम धंघा बंद हुआ तो क्या भरोसा। जब लोटेंगे तो देखेंगे | मृदुला बहुत अन्यमनस्क थी। पिताजी ने देखकर शादी की थी। लड़का फैक्टरी में है। शहर में अकेला रहता है। कोई किचकिच नहीं है। ससुराल वालों की। गाहे बगाहे कोई गाँव से आ जाए तो ठीक, नहीं तो अपनी मरजी के मालिक |
यह घर आना कोई पर्व त्योहार जैसा नहीं था। मुँह ढापे सब मुँह चुराए घूम रहे थे। ना काहू से दोस्ती ना काहू से बेर। हीरा और मृदुला खेर अभी दो ही थे। बच्चा नहीं हुआ था। एक सरकारी स्कूल की गिरती इमारत में डाल दिया सबको, यहीं रहो। खाने को दो बार खिचड़ी | गाँव के लोग अलग पहरा दे रहे थे कि इस जगह से कोई भागे ना। कितनी प्यारी है न जान सबको। गाँव में कोई मिलने भी नहीं गए। चौदह दिन अब यहीं रहना होगा। चौदह दिन रामचंद्र जी के बनवास की तरह। खिचड़ी ही पका देते हैं-तीन चार औरतों ने कहा। कम से कम खाने लायक तो हो। रात में अंधेरा हुआ तो मृदुला ने हीरा को कहा – इतने जतन से बाबू ने ब्याहा था और हम फिर वहीं आ गए नरक में। हीरा भी हाँ की सिर हिला रहा था। कब खुलेगा और कब जाएँगे। दिल्ली में एक नशा है, खुमार है। गरीब के पैसे तो सब दबाते हैं। लेकिन अपनी मरजी के मालिक तो थे शहर में। येगाँव की मिट्टी और खुशबू नहीं बाँध पाती किसी को ।
आज गाँव लौटे हुए सोलहवां दिन है। मई का महीना है। तपती गरमी है गाँव में। न पंखा, न बिजली और न कोई डॉक्टर | सब राम भरोसे ही हैं। ऐसे शहर में भी गरीब को कौन पूछता है। तीन बार लाइन में खड़ा हुआ था तो एक पाँच किलो चावल का थेला मिला था। अम्मा बाबूजी भी घर पर डरे बैठे हैं। स्वागत सत्कार तो हुआ लेकिन रुका हुआ सा ही। चलो ठीक-ठाक आ गए तुम सब। अब यहीं संभालो। यहीं रुको और कुछ काम धंधा देखो। गाँव में कहाँ काम धंधा है, सब ही तो बंद हो गया। जुलाहे की जगह ले ली मिल के कपड़ों ने, बढ़ई भी बेकार हो गए, सुनार और लुहार की भी अब कोई गिनती नहीं। फिर से हम पुराने गाँव नहीं जा सकते। मृदुला को हँसी आती है बूढ़े काका की बातों पर। गुजरा हुआ जमाना नहीं लौटता, काका। अगर गाँव के लड़के शहर ना जाएँ तो खाना भी ना मिले किसी को।
हीरा को अगली सुबह देखा कुदाल उठाकर गाँव के तालाब की ओर जाते। आज से तालाब की सफाई का काम करवा रहे हैं मुखिया जी। मृदुला भी साथ हो ली। थोड़ी बहुत कमाई जो जाएगी। सीता की तो यही नियति है। अपने राम के पीछे हो लो- चाहे बनवास हो या बिदेश। मुस्कराते हुए मृदुला ने भी कुदाल उठा ली। पहले कभी नहीं किया यह काम। रास्ता ऊबड़-खाबड़ हो तो मुस्कराते हुए चलने में वो जल्दी कट जाता है- बाबा की बातें याद आती हैं। तो सीता भी पहले कहाँ जंगल में रही थी। बेचारी राजकमारी थी महलों की। चलो दिन हैं चार, कट ही जाएंगा।
डॉ. अमिता प्रसाद