सुहानी बारिश
“मुनियाँ के दद्दा !…… सो गये का ?”
पत्नी ने झिंझोड़ कर पूछा तो करवट ले कर उठते हुए रामदीन बोला ….
“नहीं री नींद कहाँ आवेगी …. तीन दिनों से पानी पड़ रहो है ….. बच्चन के पेट में अन्न का दानों भी नहीं गयो । समझ नहीं आ रहो का करें”
पत्नी फिर बोली …
“लाला की दुकान से कछु अनाज दाल उधार लेई आवो, पानी बंद होते ही मजूरी पे जावेंगे तो लाला को चुकती कर देंगे”
अनमना सा रामदीन प्लास्टिक की बोरी से सर ढक कर लाला की दुकान की ओर चल पड़ा। मन ही मन खुद को समझाता और लाला की झिड़कियों को सहने की हिम्मत जुटाता पहुँच गया लाला की दुकान ….
“राम – राम लाला ….”
कोई जवाब न पाकर पुनः लाला को राम राम कहता हुआ रामदीन दुकान के एक कौन में खड़ा हो गया। सौदा तोलकर लाला ने न देखने का स्वांग करते रामदीन से कहा
“बोल भाई पिछला हिसाब चुकता करने आयो है ?”
“नहीं लाला “….
इतना सुनते ही लाला का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया ….. और गुस्से में दांत पीसते हुए चिल्ला पड़ा ….
“देख रामदीन सीधे तरीके से हमरा रूपइया दे दे वरना तू जानता है हम का कर सकत हैं ”
गिड़गिड़ाकर रामदीन बोला… “तीन दिन से पानी पड़ रहो है …. मजूरी पे भी जा नहीं रहे काम बंद है … काम पे जाते ही तुम्हारी पाई पाई चुका देवेंगे। बस आज कुछ चावल दाल देई दो ….. हमरे बच्चे भूख से बिलख रहे हैं लाला। हम तुम्हारे हाथ जोड़ कर बिनती करते हैं। तुम्हारा सब रुपइया दे देंगे। … ”
कुछ देर सोच कर लाला ने कहा
“अरे हम कौनु दान करने नहीं बैठे हैं। अइसे तो हमारा दिवाला निकल जावेगा ।….पर एक बात है पचास पहले के और पचास अभी के कुल जमा हुए सौ रुपइया, लेकिन तू हमें डेढ़ सौ रुपइया देई सको तो ठीक है, नहीं तो चलते बनो”
मरता क्या न करता मासूम बच्चों के मुरझाये चेहरों को याद कर रामदीन तैयार हो जाता है। दाल चावल लेकर घर आता है …. राह तकती चिंतित पत्नी पूछती है
“मिलो का कछु …… ? बहुते ही देर लगाई रहे”
रामदीन चुपचाप थैला पत्नी को थमा देता है और बीड़ी सुलगा कर चिंता मगन हो जाता है ….. हर कश के साथ चिंता बढ़ने लगती है अगर ऐसे ही बारिश होती रही तो कल भी काम नहीं मिलेगा …. फिर लाला को कहाँ से चुकायेगा और बच्चों को कहाँ से खिलायेगा । ….. उधर पत्नी बाड़े में पड़ी गीली लकड़ियों से चूल्हे पर हंडिया चढ़ा देती है और धुंए से बेहाल… आँखों के आंसू पोंछती जैसे तैसे चावल पका लेती है ।….. हिंडोलियम जिसे देहात में अल्मुनियम भी कहते है उसकी मुड़ी तुड़ी रक़ाबी में बच्चों को परोस कर …. रामदीन से कहती है…
“तुम्हें भी डाल दें ?”
चिंतामग्न रामदीन मना कर देता है, पर भारतीय नारी के त्याग और समर्पण से वाक़िफ़ बोल पड़ता है ।
“ठीक है देई दे हमें भी और तू भी खाई ले”
क्योंकि वो जानता है उसके न खाने पर पत्नी भी भूखी रहेगी ।
किरासन की ढिबरी में टपकती छत के नीचे करवट बदलते सारी रात जाग कर ईश्वर से मन ही मन मनोती मांगता रहता है ।…. कल तो सूरज निकल जाए और मुझे काम मिल जाए ….।
शायद कभी – कभी वंचितों और असहायों की सुन भी लेता है भगवान
दूसरे दिन बारिश थम जाती है बेहद उल्लसित मन से रामदीन पत्नी को साथ लेकर काम पे निकल पड़ता है ।… पर ठेकेदार का फरमान निराश कर देता है
“बहुते ही पानी पड़ो है ससुरा! अब इत्ते लोगन से काम नाहिं करवा सकेंगे ।…. आधी मजूरी मिलेगी काम करनो है तो रुको, बरना वापिस जाओ”
सब मजदूर सर पकड़ कर बैठ जाते है और आपस में तय करते हैं। चूल्हा तो जलेगा बच्चों का पेट तो पालना है। ये सोच कर आधी मजदूरी में काम करने की हामी भर देते हैं !
भूखे प्यासे सब लोग शाम को मिलने वाली मजदूरी की आस में जुट जाते हैं। शाम ढले जब मुनीम आकर रूपये बांटता है तो सब ठगे से रह जाते हैं। …. ठेकेदार के आदेशनुसार अतिवृष्टि से काम नहीं होने के कारण रूपये का इंतजाम नहीं हो पाया इस कारण सबको आधे आधे यानि कुल मजदूरी का एक चौथाई हिस्सा ही मिलेगा ।…. पर ये अभिशप्त महामानव कभी हताश नहीं होते और जो मिलता है लेकर अपने – अपने घरों की तरफ चल देते हैं !
गहरी चिंता में रामदीन भी पत्नी के साथ रवाना होता है ।…. रास्ते में लाला की दुकान पड़ती है। …. रामदीन को आता देख लाला ऊँची आवाज़ में बोलता है
“आओ भईया रामदीन! आज तो मजूरी मिल गई हेगी? लाओ हमरा रुपइया”
रामदीन लाला से पुनः आग्रह करता है। मिन्नतें करता है पूरे रुपये चुकाने को कुछ और मोहलत दे दे, पर लाला नहीं मानता ।…रामदीन अंतिम प्रयास करते हुए कहता है ..
“लाला आज आज की मोहलत और देई दो आज हमऊ दिहाड़ी भी नाहिं मिली है … कल तुम्हारा सब रुपइया चुका देवेंगे । हमारे बच्चे भूखे हैं लाला हम हाथ जोड़ रहे तुम्हारे। जो मिले हैं वो ले लो और हमें आटा दाल दे दो।”
पर गुस्से में लाला आपे से बाहर हो जाता है और अपने लठैत बुला लेता है आपस में बहुत झगड़ा होता है और ……लाला बोल पड़ता है…
“मारो साले को! हमरा रुपइया हराम का समझे है का”
इसी बीच किसी के हाथ से कुल्हाड़ी का वार रामदीन पर पड़ता देख उसकी पत्नी बीच बचाव करने आगे आती है और वो कुल्हाड़ी के वार से वहीं गिर जाती है । तभी दूसरे वार से रामदीन भी ढेर हो जाता है।
सिर्फ डेढ़ सौ रूपये के लिए दो जिंदगियां, एक पूरा परिवार समाप्त हो जाता है ।
तब ही तेज़ बारिश होने लगती है और लाला की दुकान के ऊपर छत से उसके बच्चों की बारिश में भीगते हुए हसीं गूंज उठती है।
सावन के आनन्द में ये ख़बर न जाने कहाँ बह जाती है …. न जाने कितने रामदीन और उसके बच्चे तड़प रह जाते हैं। टपकती छान के कच्चे घरों में जीवन की जिजीविषा में लड़ रहे हैं अपने आप से सवाल करते हुए। …. कभी तो ये दुर्भाग्य की बारिश थमेगी और उनके जीवन में भी खुशियों की धूप खिलेगी …..!
अरुण धर्मावत
जयपुर, राजस्थान