नारी सशक्तिकरण का स्वरूप – “सौत”
हिंदी साहित्य में जब भी कहानी की चर्चा होगी, वह मुंशी प्रेमचंद जी का नाम लिए बिना हमेशा अधूरी ही रहेगी। उनकी कहानियों में समाज के सामान्य वर्ग; जिनमें छोटे, दबे कुचले, सहमे और सताए लोगों से जुड़ी समस्याओं का विशेष स्थान रहा है। अपने जीवन-काल में जिस आर्थिक तंगी का उन्होंने सामना किया और उसके परिणामस्वरूप जिन जिन दिक्कतों से उन्हें जूझना पड़ा, वह सारा दर्द उनकी कहानियों के पात्रों के माध्यम से उभर कर सामने आया है। जहां तक सवाल उनकी कौन सी कहानी मुझे सर्वाधिक पसंद है, तो बिना लाग-लपेट के यही कहना चाहूंगी कि बचपन से प्रेमचंद जी की जितनी भी कहानियां स्कूल या कॉलेज के पाठ्यक्रम में पढ़ी, वे विस्तृत रूप से तो याद नहीं, पर उनके पात्र कहीं न कहीं मानस पटल पर अंकित हैं। हां, चूंकि मैं स्वयं पिछले चार सालों से मानवीय संवेदनाओं और नारी से जुड़े मुद्दों पर ही ज्यादा कलम चला रही हूं, तो उस लिहाज से मुझे मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी “सौत” विशेष रूप से प्रभावित करती है।
‘सौत’ कहानी है रजिया की, जो मुंशी प्रेमचंद जी के अन्य महिला पात्रों की भांति ही स्वयं को कर्म शक्ति और साहस के क्षेत्र में पुरुष के समकक्ष प्रस्तुत करती है, पर महिला की नैसर्गिक अस्मिता, गरिमा और कोमलता को अक्षुण्ण रखती है। शादी के कुछ सालों बाद दो तीन बच्चों को जन्म देने के बाद भी ममत्व का सुख न पा सकने वाली रजिया से मन ऊब जाने पर उसका पति रामू दासी नाम की खूबसूरत औरत से दूसरी शादी कर लेता है। अब चूंकि घर को बनाने में रजिया ने दिन रात एक किए थे, तो वह आसानी से अपना अधिकार नहीं छोड़ना चाहती थी। पर रामू नई दुल्हन के आकर्षण में पड़ा हुआ था, तो रजिया की घुटन छोटे छोटे झगड़ों में सामने आने लगी। बस ऐसे ही एक झगड़े में रामू ने रजिया को अपने खर्च खुद उठाने के लिए बोल दिया। बस यही बात रजिया को चुभ गई। फिर भी एक उम्मीद थी कि रामू को अपनी गलती का एहसास होगा। पर दासी के भड़काने पर रामू ने कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की और रजिया का स्वाभिमान आहत हो गया और उसने घर छोड़कर जाने का फैसला कर लिया। यही वह दृश्य है, जहां समग्र नारी जाति का आत्मसम्मान अपनी बुलंद आवाज़ में उभर कर सामने आया है।
“नारी हृदय की सारी परवशता इस अत्याचार से विद्रोह करने लगी। वह आग जो मोटी लकड़ी को स्पर्श नहीं कर सकती, फूस को जलाकर भस्म कर देती है।”
प्रेमचंद जी का स्पष्ट कहना था कि स्त्री अपने गुणों के कारण पुरुष से भी श्रेष्ठ है। और वैसा ही इस कहानी में रजिया के माध्यम से दिखाने में वह सफल रहे हैं। रजिया सारे गांव के सामने राजू का घर छोड़कर चली जाती है और वह भी खाली हाथ। रामू दासी के बहकावे में आकर उसे रोकने की कोशिश भी नहीं करता, पर जाते जाते रजिया अपनी बद्दुआओं से अपनी सौत की झोली भर जाती है। प्रेमचंद जी की कहानियों की एक विशेषता यह भी है कि उनमें नारी समाज की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व करती है और पुरुष हाशिए पर धकेल दिया जाता है।ऐसी ही प्रवृत्ति यहां रजिया की भी हैं। वह साथ के ही एक गांव में जाकर रहने लगती है। पुरुषों के समान, बल्कि उनसे भी ज्यादा परिश्रम करते हुए अपना एक अलग मुकाम हासिल करती है। उसके पास दो बैल हैं, जिन्हें पुत्रवत स्नेह देती है। “वे मनुष्य नहीं, बैल हैं”; यह कहकर प्रेमचंद जी ने मनुष्य की स्वार्थी प्रवृत्ति पर खूब करारा तमांचा कसा है। रजिया इन तीन सालों में उम्र के साथ साथ अपने जीवन में भी प्रौढ़ता को धारण करती है। उनकी इस कहानी में प्रस्तुत रजिया की छवि को देख कर ऐसा लगता है मानो समाज में मानवोचित गुणों की वाहक नारी ही है,और जो पुरुष मानवीय गुणों से संपन्न हैं, वे भी नारी के प्रभाव में आकर ही मानवीयता से संपन्न हुए हैं।
पर अफसोस कि रामू इस बात को समय पर समझ नहीं पाया। रजिया को उसके बीमार होने का पता चलता है। ऊपरी मन से वह परवाह न करने का दिखावा करती है, पर उसके भीतर की औरत तड़प उठती है। रिश्तों की इससे खूबसूरत किस्सागोई क्या होगी कि जिस पुरुष ने दूसरी औरत के चक्कर में उसे घर छोड़कर जाने से रोका भी नहीं था, वह उसी पति के बीमार होने पर उसकी मदद के लिए किसी अंजान व्यक्ति के हाथ कुछ पैसे भी भिजवाती है। पड़ोसन के पूछने पर पति के दोष को छिपा जाती है और आखिर में जब मन को चैन नहीं मिलता, तो किसी के तानों उलाहनों की परवाह न करते हुए उससे मिलने के लिए भी चल देती है। यही प्रेमचंद जी की इस कहानी की खूबी है। वे मानते थे कि त्याग और वात्सल्य की मूर्ति नारी के जीवन का वास्तविक आधार प्रेम है और यही उसकी मूल प्रवृत्ति भी।
उधर रामू भी अब तक दासी के फूहड़पन और शौकीन मिजाजी को समझ चुका है। सब कुछ लुटा कर बीमारी से जूझता हुआ एक बार वह रजिया से माफी मांगना चाहता है। भगवान ने शायद उसकी अंतिम इच्छा का मान रखा और वह रजिया की गोद में ही दम तोड़ देता है। नारी हृदय धरती की भांति है, जिसमें मिठास भी मिल सकती है और कड़वाहट भी। पर रजिया भारतीय नारी के उस तबके का प्रतिनिधित्व करती है, जिसके मूल में स्नेह, ममता और त्याग ही उसे भौतिक जगत से कहीं ऊपर उठकर देवी के रूप में स्थापित करते हैं। रजिया रामू के अंतिम संस्कार का सारा इंतजाम करती है। इतना ही नहीं, दासी और उसके दुधमुंहे बच्चे जोंखू के सिर पर अपनी ममता का हाथ रखती है। उसके पालन-पोषण का उत्तरदायित्व बिल्कुल उसके पिता की तरह निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। कहानी के अंत में दासी के कहे इन शब्दों के साथ कि “सोहाग का सुख तो मुझे तुम्हारे राज में मिला।” सारा दर्द दोनों के आंसुओं में बह निकलता है।
नारी स्नेह चाहती है, अधिकार और परीक्षा नहीं, बस इसी अभिव्यक्ति को जीवंत करती मुंशी प्रेमचंद जी की यह कहानी निस्संदेह हर काल में समसामयिक है। कहानी की भाषा सहज, सरल,एकदम सटीक और साधारण है, इसलिए सीधे जन मानस के मन पर असर करती है । उनकी शैली व्यावहारिक, प्रवाहपूर्ण, मुहावरेदार एवं प्रभावशाली है तथा उसमें अद्भुत व्यंजना-शक्ति भी विद्यमान है। निस्संदेह यह कहानी जनमानस के मन पर भारतीय संस्कृति और समाज में नारी के उच्च स्थान को प्रतिपादित करती हुई एक बेहतरीन कहानी है।
सीमा भाटिया
लुधियाना, पंजाब