आज भी जिंदा है होरी

आज भी जिंदा है होरी

त्रासदी सामान्य मनुष्य के जीवन का एक अनिवार्य अंग है। सुख और दुख दोनों ही जीवन के दो पहलू हैं। आशावादी कलाकार जीवन के दुख में क्षणों में भी आने वाले सुख की किरण देखता है और निराशावादी इस द्विधा में जीवन में दुखाक्रांत क्षणों को ही देखता है और उसे ही अपनी तूलिका से संवार कर एक अभिनव कृति का रूप में प्रदान करता है। दुख पीड़ा अवसाद के चितेरे यथार्थवादी और सुख, विलास और आशा के चित्रकार आदर्शवादी होते हैं। प्रेमचंद जी के वादों और सीमाओं से परे एक सृजनशील उपन्यासकार थे।। उन्होंने आदर्श और यथार्थ दोनों को अतिवादी माना तथा कामदी या त्रासदी की पूर्व कल्पना या पूर्वाग्रह से युक्त होकर कुछ भी नहीं लिखा। इस दृष्टि से उनकी महान औपन्यासिक कृति गोदान पर विचार करना चाहिए।

गोदान में उपन्यासकार की मुख्य दृष्टि भारतीय कृषक जीवन का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत करने की है। समग्र जीवन और उसमें कृषक जीवन को आलोकित करने के लिए वह एक नगरीय संस्कृति के जीवन को समानांतर लेकर चलता है। समूची कथावस्तु में जीवन की रंगीनी, वैभव-विलास और ग्राम सुधार की दिखावटी भावना से प्रेरित छलछद्म पूर्ण नगरीय संस्कृति की मनोरम झाँकी के साथी ही मुख्य कथा की वरुण धारा प्रवाहित होती रहती है। इस मूल कथा के केंद्र में कथा नायक होरी है और उसकी पत्नी धनिया उसके चरित्र को निखार प्रदान करती है।

“गोदान” नामकरण इस उपन्यास की त्रासदी का एक भारी प्रतीक और व्यंग है। होरी एक प्रतिनिधि है जो करोड़ों भारतीय किसानों के समान ही कुडकी, कर्ज, भाग्यवाद, अंधविश्वास, गरीबी और रूढ़ियों से जकड़ा हुआ है। जीवन पर्यंत दुख के आघातों को सहता हुआ वह जीवन जीता है। वह कभी भी परिस्थितियों से टूटता नहीं, बल्कि सब कुछ अपने भाग्य के प्रसाद मानकर सहर्ष अंगीकार करता चलता है। प्रारंभ में ही वह अपने जमींदार साहब राय अमरपाल सिंह से मिलने के लिए जाने की तैयारी करता है और उसी प्रसंग में धनिया से कहता है:
“तू तो बात समझती नहीं उसमें टांग क्या अड़ाती है, भाई। मेरी लाठी ला दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है, नहीं तो कहीं पता न लगता कि किधर गए। गांव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदखली नहीं आई, किस पर कुडकी नहीं आई। जब दूसरे के पाँव तले अपनी गर्दन दबी है तो उन पावों को सहलाने में ही अपनी कुशल है।“
उसके इस कथन में उसकी पीड़ा झाँक रही है। ‘पाँव तले गर्दन दबी है’ इसी मुहावरे के ब्याज से वह अपनी रहनी को प्रदान कर देता है। उसके जीवन में सब कुछ ले देकर इतना ही है कि महज “उसकी जान बची है”। शेष क्या घूंट-घूंट कर जीवन व्यतीत करना, परिस्थितियों के थपेड़े को झेलना और कमा-कमा कर कर कर्ज भरना यही तो उसकी नियति है। पर इसकी महंगी कीमत तो चुकानी ही पड़ रही है। इन परिस्थितियों में उसकी आर्थिक दशा कैसी है अभी देखने योग्य है। उसमें आत्यंतिक अभाव और विवशता है पर विद्रोह नहीं। वह घुटन को भी नियति का प्रसाद समझकर अंगीकार किए हुए है। उसकी पत्नी धनिया छत्तीस वर्ष की है पर उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई है, सारे बाल पक गए हैं। आंखों से भी कम सूझने लगा है। तीन पुत्र बचपन में ही मर गए। धनिया को इस बात का दुख जीवन भर बना रहता है कि वह उसके लिए धेले की भी दवा नहीं मँगवा पायी।

इस आर्थिक विपन्नता का वरदान उसे अपनी काहिली या अकर्मण्यता से नहीं मिला है बल्कि किसान के जीवन का फंदा ही ऐसा है कि वह कठोर से कठोर श्रम करके भी अभाव और विवशता में जीने के लिए बाध्य होता है। माघ के महीने में जब शरीर को चीरने वाली शीतल वायु के वेग से चलते हैं, होरी अपने खेत पर मडैया बनाकर रखवाली करता है। उसके पास वस्त्र भी नहीं है उसकी दीनता और उसके पीछे के कारणों का एक मूल चित्र उपन्यासकार प्रेमचंद के शब्दों में देखिये :
“बेवाय फटे पैरों को पेट में डाल कर और हाथों की जांघों के बीच में दबाकर कंबल में मुंह छिपाकर अपने ही गर्म सांसों से अपने को गर्म करने की चेष्टा कर रहा था। पांच साल हुए हैं यह मिर्जई बनवाई थी। धनिया ने एक प्रकार से जबरदस्ती बनवा दी थी, वही एक बार जब काबुली से कपड़े लिए थे, जिसके पीछे कितने साँसत हुई, कितनी गालियां खानी पड़ी, कंबल तो उसके जन्म से भी पहले का है। बचपन में अपने बाप के साथ वह इसी कंबल में सोता था, जवानी में गोबर को लेकर इसी कंबल में उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में वही कंबल उसका साथी है, पर जब अब वह भोजन को चबाने वाला दांत नहीं दुखने वाला दांत है। जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही नहीं आया कि लगान और महाजन को देकर कभी कुछ बचा हो।“
जीवन की यह त्रदास गाथा केवल होरी की गाथा है? पाँच साल पुरानी मिर्जई पता नहीं अभी उसे कितने साल और पहननी होगी। तीन पीढ़ियों से काम में लाया जाने वाला कंबल कितना ओढ़ने लायक होगा? पर यही तो भारतीय गावों के किसान-मजदूरों की जीवन की असलियत है। इन दारुण परिस्थितियों में गांव का किसान अपनी इज्जत-आबरु के लिए कर्ज लेता है। कुछ धार्मिक विश्वास और मान्यताएँभीतर से कुरेदती रहती है। होरी शुरू में ही जब जमींदार साहब से मिलने आता है तो रास्ते में एक बात अचानक उसके मन में उभरती है :
“होरी कदम बढ़ाए चला जाता था। पगडंडी के दोनों ओर उख के पौधों की लहराती हुई हरियाली को देखकर उसने मन में कहा- भगवान कहीं गों से बरखा कर दें और डांडी भी सुभीते से रहे तो एक गाय जरूर लेगा।“
वह गाय जरूर लेना चाहता है। उसकी जैसी परिस्थितियां है उसमें वह गाय क्या लेता बकरी की भी हैसियत नहीं है। फिर भी वह गाय लेने की लालसा सजोय हुए है। गाय का दूध और उसका बछड़ा उसके आकर्षण का कारण नहीं है बल्कि प्रातः काल गाय का दर्शन करना ही बड़ा भारी पुण्य है। गाय की सेवा करना तो बड़ा भारी धर्म-कार्य है। गाय के रोम-रोम में देवता निवास करते हैं। इसलिए विशेष रूप से वह अपनी दीनतायुक्त फटेहाल जिंदगी में भी गाय लेने का सपना संजोता है। पर उसका सपना-सपना ही रह जाता है क्योंकि गाय खरीद कर भी वह उसे अपने हाथ धो लेता है।
बातें तो बहुत सारी होरी-धनिया की जीवन में आती-जाती है। जीवन के प्रत्येक प्रसंग त्रासदी के मूर्त रूप है पर उपन्यास का जो शीर्षक है उसमें उसकी जीवन की त्रासद गाथा का गहरा व्यंग है। फसलें तो अच्छी भी होती है पर बचता कहां है? जमींदार और महाजन के दो पाटों के बीच पिसता हुआ बेचारा किसान जिंदा रहता है यही बहुत है वह गाय-गोरु क्या लेगा? उसकी दशा यह है :
“इस फसल में सब खलिहान में तौल देने पर भी अभी तक उस पर कोई तीन सौ कर्ज था, जिस पर कोई सौ रुपयै सूद के बढ़ते जाते थे। मंगरू साह से आज पांच साल हुए बैल के लिए साठ रूपये लिए थे, उसमें साठ दे चुका था पर वह साठ रूपये ज्यों के त्यों बने हुए थे। दातादीन पंडित से तिस रूपये लेकर आलू बोए थे। आलू तो चोर खोद ले गए और इस तीस के तीन वर्षों में तीन सौ हो गए। दुलारी विधवा सहुआइन थी जो गांव में नोन, तेल, तंबाकू की दुकान लगा रखी थी। बंटवारे के समय उससे चालिस रूपये लेकर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रूपये हो गए थे क्योंकि आने रूपये का ब्याज था।“
यह महाजनी सूद भला गांव के किसानों को सिवाय सूद की पुश्तदर पुश्त अदायगी के कुछ और करने देगा? यही तो होरी के जीवन की नियति है। इसी में वह अधमरा सा झूल रहा है पर उसके धर्म-प्रवण जीवन की लालसा है “एक गाय जरूर खरीदने की।“
होरी ईमानदार आदमी है। परिश्रमी और कर्मठ है। “होरी किसान था और किसी जलते घर में हाथ सेकना नहीं जानता था। संकट की वस्तु लेना उसकी दृष्टि में पाप था पर वह अपनी रूढिगत नैतिकता और संस्कारगत आदर्शवादिता के कारण शोषित होता रहता था।“ उधर उस को लूटने-खसोटने वाले महाजन, जमींदार, पंडित आदि ताव से मूछें ऐठ कर मौज उड़ा रहे हैं। उनके ऊपर प्राकृतिक प्रकोपों का कुछ भी प्रभाव नहीं है। वे नीच है। ठगी उनका धंधा है। शोषण उनकी आजीविका है पर भौतिक जीवन में वे सुखी हैं। दुख की छाया भी उनका स्पर्श नहीं करती। उधर होरी नैतिकता और ईमानदारी का पुतला है पर उसकी फसल कभी उसके घर तक नहीं पहुंच पाती। वर्षा-ओला से बची तो चोर ले गए और उनसे भी बची तो महाजन-पंडित-जमींदार ले गए।
सामाजिक विडंबना भी कैसी है कि दातादीन पंडित का लड़का मातादीन सिलिया को भ्रष्ट करता है तो उसे ना तो बिरादरी का दण्ड लगता है और समाज में उसकी अप्रतिष्ठा होती है पर होरी का लड़का झुनिया से सात्विक प्रेम करता है तो समाज से उसे दण्ड भोगना पड़ता है और होरी को सामाजिक प्रतिष्ठा भी खोनी पड़ती है।
होरी गाय तो खरीदता है। यह धर्म की प्रतिक ही उसके जीवन के लिए अभिशाप का केंद्र-बिंदु बनती है। जो गाय पुण्य की अधिष्ठात्री है वही होरी के लिए संकटों की जननी बनती है। इस प्रसंग के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि यह तो संयोग है पर ऐसे संयोग भी होरी जैसे करोड़ों किसानों के लिए ही विधि के विधान में सुरक्षित है।
नैतिकता और आदर्श के भार से दबा हुआ होरी अपनी बेटी रूपा के लिए एक प्रौढ़ वर तय करता है और मजबूरन उससे दो सौ रुपया ऋण लेता है- लड़खड़ाते और कांपते हाथों से। उसका मन तो कह रहा है कि बेटी को बेच नहीं रहा है। इस बोझ से अपने मन को हल्का करने के लिए सुतली कात कर पैसे एकत्र कर रहा है कि दामाद के ऋण को चुकता कर देगा। केवल बीस आना ही जुटा पाया था कि मृत्यु आ धमकी। मृत्यु के समय गोदान तो हिंदू गृहस्थी के लिए अनिवार्य ही है पर इसके लिए पैसे कहाँ? अंततः दामाद का कर्ज चुकाने के लिए रखा हुआ बीस आने ही “गोदान” कर दिया जाता है। यही होरी और इस उपन्यास की त्रासद अवसान है।

इस प्रकार मुंशी प्रेमचंद ने अपने इस उपन्यास के माध्यम से गाय और गोदान का प्रतीक से एक भारतीय गृहस्त के जीवन की धार्मिक-नैतिक परवशता और रुढियों से जकड़न का एक कथानक लेकर होरी के माध्यम से एक भारतीय किसान की त्रासद गाथा कहने का प्रयास किया है। होरी के जीवन में कुछ ऐसा नहीं है जो गांव के किसी भी किसान मजदूर के जीवन में ना हो। लगभग नब्बे वर्ष पहले लिखे गए इस उपन्यास में जो भारतीय किसान की त्रासदी प्रस्तुत की गई है वह बहुत कुछ अंशों में आज भी विद्यमान है। फटी बिवाय वाले पैर, पाँच साल पुरानी मिर्जई और दो-तीन पीढ़ी पुराने कंबल आज भी हमारे अन्न-दाताओं के घर और बदन की शोभा बढ़ाते हैं। “गोदान” के माध्यम से होरी की ही नहीं बल्कि भारतीय गांव की किसान-संस्कृति के समूचे परिवेश, परंपरागत रुधी संस्कारों और दारिद्रय की दुखद वेदना की त्रासदी प्रस्तुत हुई है।

डॉ नीरज कृष्ण
पटना, बिहार

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