प्रेमचंद का ‘नशा’

प्रेमचंद का ‘नशा’

यूँ तो प्रेमचंद की सारी कहानियां दिल को छू लेने वाली हैं.पर उनमें से एक जो मेरे दिल में गहरी उतरती है वह है उनकी उत्कृष्ट रचना ‘ नशा ‘. यह कहानी हमारे स्कूल के हिन्दी पाठ्यक्रम का एक हिस्सा थी औऱ उस उम्र में भी इसका मर्म मुझे झकझोर गया था.

‘नशा’ मुख्यतः दो पात्रों की गाथा है , ईश्वरी (कहानी का वाचक)और बीर . ये समाज के दो विभिन्न वर्गों से आते हैं. ईश्वरी अमीर जमींदार परिवार से आता है औऱ कहानी का वाचक (कहानी उत्तम पुरुष में है)बीर एक साधारण क्लर्क परिवार से. अपने अपने परिवेश के हिसाब से दोनों की सोच में विषमताएं स्वाभाविक हैं. उनके मूल्यों और सिद्धांतों में भी अंतर है . लेकिन उनके रिश्तों की परिपक्वता कभी टकराव की स्थिति नहीं उत्पन्न करती

यह माना जाता है कि किसी इंसान के व्यक्तित्व के विकास में आनुवांशिकी और परिवेश दोनो का समान योगदान होता है. लेकिन यह कहानी इस बात को सिद्ध करती है कि मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में बेहद अहम किरदार बाहरी तत्व अदा करते हैं. तुलनात्मक रूप से कहें तो क़रीब 25% आनुवांशिक, और 75% किरदार हमारे पारिवारिक, सामाजिक वातावरण और परिवेश अदा करते हैं.

जन्म से ही किसी इंसान का व्यक्तित्व और स्वभाव निश्चित होकर नहीं आता . पालन-पोषण, रहन-सहन बहुत हद तक इसके लिए उत्तरदायी होते हैं. और शायद यही कारण था कि कहानीकार ने उत्तम पुरूष में ही बीर से यह कहलाया है कि , “शायद उसकी जगह मैं होता तो मुझमें भी वही कठोरताएं पैदा हो जातीं जो उसमे थीं, क्योंकि मेरा लोकप्रेम सिद्धांतों पर नहीं, निजी दशाओं पर टिका हुआ था.”

बीर बड़ी आदर्शवादी बातें करता है, आर्थिक विषमताओं और वर्ग-अंतर को समाज की विद्रूपता समझता है और दृढ़ता से ये मानता है कि अमीर सदैव ग़रीबों का शोषण करते हैं . उनकी मजबूरियों का फायदा उठाते हैं. इस बात को लेकर वह अपने जमींदार मित्र ईश्वरी को अक्सर ताने भी कसता रहता है. ईश्वरी मित्र की बात का बुरा नहीं मानता और यह स्वीकार करता है कि समाज में समग्र एकरूपता संभव नहीं है. हर काल में छोटे बड़े का अंतर तो रहेगा ही. यही धारणा तार्किक और व्यावहारिक होगी.

बीर छुट्टियों में मित्र ईश्वरी के गाँव चलने का आमंत्रण स्वीकार कर लेता है. ईश्वरी उसे आगाह करता है कि बीर अपने क्रांतिकारी विचारों को उसके परिवार के सामने ना व्यक्त करे, ” वहाँ अगर ज़मींदारों की निंदा की तो मेरे घरवालों को बुरा लगेगा. यह तो आसामियों पर इसी दावे से शासन करते हैं कि ईश्वर ने आसामियों को उनकी सेवा के लिए ही पैदा किया है. आसामी भी यही समझता है. ”
ईश्वरी का अंदाजा था कि बीर उसके जमींदारी माहौल में जरुर कुछ अलग रूप दिखाएगा, तभी बीर के टोकने पर कि, “तो क्या तुम समझते हो मैं वहाँ जाकर कुछ और हो जाऊंगा? ” ईश्वरी का दो टूक जवाब आता है, ” हाँ, मैं तो यही समझता हूँ !”

जब बीर को ईश्वरी के गाँव पहुंचने पर उसके वैभव-विलास का अनुभव होता है तो इसका भरपूर आनंद लेने में उसे कोई हिचक नहीं होती. अत्यंत शीघ्र वह इस विलासितापूर्ण माहौल में अपने आपको ढाल लेता है. यहाँ उसे वही गरीब नौकर बेचारे और असहाय नहीं नज़र आते. वह भी मालिक की भूमिका में आ जाता है और नौकरों को डांटने फटकारने में कोई कसर नहीं छोड़ता .

बीर पर रईसी का मुलम्मा इस कदर चढ़ जाता है कि वह छोटे मोटे काम जैसे लैम्प जलाना, अपना बिस्तर लगाना और कपड़े धोना इत्यादि हीन समझने लगता है क्योंकि उसके अंतर्मन में यह बात घर कर गयी है कि यह काम उसका नहीं, नौकरों का है. मौक़ा मिलते ही उसके सारे समाजवादी सिद्धांत हवा हो जाते हैं.

इतना ही नहीं, सिर्फ भोग विलास की जिन्दगी को अपना लेना एक बात थी. यहाँ तो मिथ्या पाखंड का अहम भी उसके सर चढ़कर बोल रहा था. जब उसके कथित गाँधीवाद से प्रभावित ठाकुर बीर की लल्लो-चप्पो कर रहा था तो विरक्त होने की बजाय बीर उस खुशामदी से आनन्दित होता दिखा. ठाकुर की सरल, भोली चाटुकारिता को बढ़ावा देते हुए उसने उसे यह आश्वासन भी दे दिया कि जब चीजें उसके अख्तियार में होंगीं तो ठाकुर को अपनी कथित (काल्पनिक) रियासत में जमीन देगा और उसे अपना ड्राइवर भी बना लेगा.उसके इस नकली आश्वासन का भोले ठाकुर के मन पर क्या असर हुआ ,यह उसके बाद की क्रिया कलापों से अंदाज़ा लगाया जा सकता है. ठाकुर ने उस दिन ख़ूब नशा किया, पत्नी को पीटा और महाजन से झगड़ा किया. क्यों ? क्योंकि उसे सम्पन्नता का छद्मबाग दिखाया गया था और उस बाग़ की खुशबू की मदहोशी में वह अपना सुध बुध खो बैठा था.

इस बीच ईश्वरी का पात्र अपने प्राकृतिक, वर्ग-सुलभ अंदाज़ में है. मित्र के प्रति उसका व्यवहार भी सहज है. किन्तु मित्र बीर की एक कृत्रिम छवि अपने घरवालों के सामने प्रस्तुत करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी है.

कहानी का सबसे दिलचस्प हिस्सा, जो इस कथा का चरम या अंतिम भाग भी है, सारगर्भित है. प्रयाग वापस लौटते वक्त जब इन दो मित्रों को ट्रेन के तीसरे दरजे में सफर करना पड़ता है तो ईश्वरी तो इसे स्वीकार कर लेता है लेकिन बीर को तीसरे दर्जे की भीड़, और मैले-कुचैले लोगों की धक्का मुक्की से बेहद परेशानी होती है. वह असहज महसूस करता है क्योंकि अब उसे आरामतलब, वैभवपूर्ण जिंदगी का चस्का लग गया था. पीठ पर गठरी लादे एक साधारण व्यक्ति का उससे टकराना उसे असहनीय लग रहा था. इसी विवेकहीनता में बीर उस निरीह इंसान को तमाचे जड़ देता है. यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि यह बीर के हीन भावना से ग्रसित दिमाग का प्रभाव भी हो सकता है.

तमाचे मारने के बाद ट्रेन में बैठे लोगों के वक्तव्य, जो उसके कृत्य की निंदा कर रहे थे, उसकी खुमारी के ऊपर बर्फीले पानी का सा प्रभाव करते हैं. थोड़ा थोड़ा नशा तो काफूर होने ही लगा था, किन्तु जब उसके जमींदार मित्र ईश्वरी ने भी उसे अंग्रेजी में झिड़का, ” व्हाट इन इडियट यू आर बीर ” तो उसका नशा पूरी तरह उतर चुका था.

रेखा सिंह
मुंबई, महाराष्ट्र

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