प्रेमचंद की कहानियों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
प्रेमचंद एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने हिंदी भाषा में ३०० लघु कहानियां, आत्मकथा, नाटक, पत्रिकाओं में लेख ,विदेशी साहित्यकारों की कृतियों का हिंदी रूपांतर के माध्यम से आम जान जीवन को उस काल में छू लिया जब देश उपनिवेशवाद और अंग्रेजी शासन से ग्रसित था। डेविड क्रेग (‘नॉवेल्स ऑफ पेजेंट क्राइसिस’, जर्नल ऑफ पेजेंट स्टडीज, 2.) का तर्क है कि अपने स्वयं के माध्यम में कथा का एक टुकड़ा जितना अधिक प्रभावी होगा, उतना ही विश्वसनीय यह समाजशास्त्रीय साक्ष्य होगा। ‘
प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था। उन्हें अपना नाम तब बदलना पड़ा था जब उनका उपन्यास सोज़ ए वतन पर अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया था। प्रेमचंद का जन्म आगरा और अवध प्रान्त के एक गरीब गांव में हुआ था और वह अशिक्षित किसानो के दर्द से वाकिफ थे। उनकी कृतियां समाज के हर उस व्यथा को चित्रित करती है जिसमे सुधiर की आवश्यकता थी।
प्रेमचंद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और उस काल के राजनीतिक परिदृश्य से बहुत प्रभावित थे। प्रेमचंद की पत्रिका ज़माना में उन्हों ने स्वदेशी और बहिस्कार आंदोलन के बारे में लिखा। १९२० के दशक में वह महात्मा गाँधी के आंदोलनों से प्रभावित हुए । प्रेमचंद गाँधीवादी सहानुभूति वाले राष्ट्रवादी थे। उन्हों ने सामाजिक मुद्दों को अपने साहित्य में चित्रित किया। प्रेमप्रश्न(१९२२) में किसानो का शोषण और महात्मा गाँधी के चरखे का प्रचार , स्वदेशी कपड़ो का सत्कार और विदेशी वस्तुओं तथा शराब का बहिस्कार, निर्मला(१९२५) में दहेज़ प्रथा, कर्मभूमि(१९३१ ) में राजनितिक उत्पीड़न, औपनिवेशिक शिक्षा की खामिया शिक्षा की आवश्यकता और डिग्री की निरर्थकता, रंगभूमि (१९२४ ) में औद्योगीकरण का विरोध और और श्रमिक वर्ग के उत्पीड़न आदि को कहानियों के माध्यम से चित्रित किया गया है । प्रेमचंद १९३० के दशक के उन साहित्यकारों में से थे जिन्हो ने अपने उपन्यासों और कहानियों में किसान संकटों के बारे में लिखा। उन्हों ने वो लिखा जो उस काल के इतिहासकार नहीं लिख पाए। गोदान प्रेमचंद की किसानों पर सबसे निरंतर और स्पष्ट कथा थी जिसमे किसान घीसू और माधव ने अपनी पत्नी एवं माँ की मृत्यु पर सामाजिक प्रथाओं का बहिस्कार किया जो समाज पर एक व्यंग भी था ।
उनकी अपनी पत्रिका हंस(१९३०) के लेख भी ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लोगो को प्रोत्साहित करते थे। वो डोमिनियन स्टेटस को एक छलावा मानते थे और पूर्ण स्वतंत्रता की मांग के समर्थक थे। अंग्रज़ों द्वारा हंस पत्रिका की कुछ कहानियों को षडयंत्रकारी घोषित कर दिया गया था । वह खुद भी खादी पहनते थे और खरीद कर युवा समर्थको को भी पहनते थे। वह और उनकी पत्नी दोनों ही कांग्रेस के कार्यो से भी जुड़े रहे। इस समय प्रेमचंद के लेख और सम्पादकीय टिप्णिया , स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में साहित्य की भूमिका, डोमिनियन स्टेटस और स्वराज , युवाओं का कर्त्तव्य , साइमन रिपोर्ट , गोल मेज सम्मलेन का बहिस्कार, मशीन बन्दूक और शांति जैसे विषयों पर थी। प्रेमचंद भगत सिंह के फांसी की सजा से भी आहत थे और उन्हों ने उस काल के न्यायपालिका के रवैये पर भी आक्रोश जताया था। पूस की रात जिसमे राष्ट्रवादी आंदोलन के विभिन्न पहलुओं का जैसे प्रभात फेरी, शराब का बहिस्कार, दुकानों की पिकेटिंग, जुलूस, महिलाओं का सम्मिलित होने आदि का चित्रण है। प्रेमचंद ने नमक सत्याग्रह आंदोलन का पूरे दिल से समर्थन किया था। प्रेमचंद की कृतियां जैसे आहुति आखिरी तोहफा, इन्तेक़ाम और भी कहानियां स्वंत्रत्रता आंदोलन के सन्दर्भ में न सिर्फ लिखी गयी थी बल्कि उस काल में उनका और उनकी पत्नी का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा था। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में दर्शाया है कि यह ज़रूरी नहीं कि ब्रिटिश शासन के अंत किसानो का शोषण का अंत होगा। प्रेमचंद ने अपना स्वयं का प्रेस स्थापित किया और १९३० के दशक में दो पत्रिकाएं प्रकाशित किया। वो वित्तीय घाटे का शिकार हो गए और फिल्म स्क्रिप्ट लिख कर पैसा कमाने कि कोशिश की। १९३६ में उन्हों ने प्रगतिशील लेखक संघ की अधिवेशन की अध्यक्षता की। उसी वर्ष वो एक बीमारी का शिकार हो कर चल बसे। प्रेमचंद बाद के दिनों में कांग्रेस से दिग्भ्रमित होने लगे थे। उनके ने उपन्यास ग़बन में गोविदीन ने एक कांग्रेस नेता से कहा कि आज़ादी के बाद आप भी बड़ी तनखाह लोगे और बड़े बंगले में रहोगे जब सत्ता तुम्हारे हाथों में होगी तो तुम भी गरीबों को कुचल दोगे। प्रेमचंद कि लेखनी में एक आग थी जो उन्हें निरंतर गरीबों और किसानों के लिए सोचने और लिखने को प्रेरित करती रही। उनके विविधायामी व्यक्तिव और उनके विचारों का आंकलन और विश्लेषण निरंतर होता रहेगा और यह गंभीर शोध का विषय है।
(प्रेमचंद की कृतियों के लिए देखे मानसरोवर, खंड एक से आठ तक, सरस्वती प्रेस, इलाहबाद, 1978).
विजय लक्ष्मी सिंह
इतिहास विभाग
दिल्ली यूनिवर्सिटी