माँ! अब मैं जान गई हूँ
नन्ही-सी मुन्नी उम्र में छोटी है तो क्या हुआ चौदह-पंद्रह साल की छोटी-सी उम्र में उसको प्यार,लड़ाई और गालीगलौज़ सब समझ आता है।
दिल्ली की एक गन्दी बस्ती में छोटी-सी खोली है उनकी। उस खोली में रहने वाले पांच प्राणी, माँ-बाबा,मुन्नी और उसके दो छोटे भाई नंदू और छोटू| कहने को सिर्फ चार दीवारों में सिमटा हुआ दायरा है। पर सवेरे से रात तक में यही छोटा-सा दायरा, खोली में रहने वालों को ना जाने कितने अनुभव करवा देता है, जोकि एक पूरी उम्र गुजरने के बाद भी बड़े मकानों में रहने वाले बच्चे अनुभव नहीं कर सकते।
इन खोलियों में आस-पास सिमटी हुई दीवारें जीवन से जुड़े उन कड़े अनुभवों से हर रोज़ ही रु-ब-रु करवाती रहती हैं और हर पल एक नई विषमता चौकन्ना रहने पर मज़बूर करती है। यहाँ मासूमियत से जुड़ी ज़िददे जन्म लेने से पहले ही ख़ुदकुशी कर लेती है।
बाबा का हर रोज़ ही पी कर खोली में आना और गालीगलौज़ करना माँ को हर रोज़ ही एक अजीब-सी दहशत में भर देता। माँ कभी भी बाबा के पीने से नहीं डरती थी। उसका डर सिर्फ, नशे में टूटने वाले हर उस बर्तन और सामान से जुड़ा था, जिनका रात- दिन चौका-बासन कर उसने जुगाड़ किया था।
माँ का बस चलता तो बाबा को कब का छोड़ देती। पर बस्ती के अधिकांश मर्द ऐसे ही थे। ख़ुद के लिए कमाते और ख़ुद की दारू पर ही उड़ा देते। मुन्नी को अक्सर ही माँ की बड़बड़ाहट में बाबा के लिए बहुत कुछ सुनने को मिलता…
“औरत होने के नाते इसके साथ खोली सांझी करनी थी बस। तभी इस पियक्कड़ को झेल रही हूँ| कहाँ छोडू इसकी औलादों को सड़कों पर भटकने को ,जिसमें कि एक लड़की भी है| तभी इस दारूडे को सिर पर सवार कर रखा है मैंने| कब का छोड़ जाती इस कमीने को, जिसने अपने साथ-साथ मेरा भी जीना हराम कर रखा है”…न लेना एक न देना दो बस सवेरे का निकला शाम में पीकर घर घुसता है रोटी तोड़ने को| वो भी मेरे ही सिर| बच्चों का बाप न होता तो मार डालती इसको”….माँ की इस बुदबुदाहट को हर ऱोज ही सुनते थे बच्चे|
जब कभी बाबा के पास रुपया नहीं होता, बस उस दिन ही वो नशे में नही दिखता और तभी उसका जोर हम तीनों बच्चों पर चलता। बग़ैर बात के हाथ उठाना बाबा को ख़ूब आता था। शायद वो भी शराब नहीं मिल पाने की निराशा को हम तीनों को पीट-पीट कर निकलता था| हमको भी बाबा नशे में ही ठीक लगता था, कम से कम एक जगह पड़ा सोता तो रहता था ।
माँ तो अधिकतर देरी से लौटती तो उसे या तो वो सोया मिलता या हंगामा करता हुआ मिलता। जितनी गालियां वो निकलता माँ भी बराबर से उतनी ही गालियां बोलती और हम तीनों किसी कोने में दुबक कर उनकी हाथापाई में ख़ुद को चोटों से बचाने की कोशिशें करते ।
देर रात को घर के बाहर निकलना मुन्नी को अपने लिए बहुत घातक लगता था क्यों कि माँ की कुछ बातें बग़ैर समझ में आये हुए भी मुन्नी को बहुत डराती थी। अक्सर माँ की बड़बड़ाहट में मुन्नी को बहुत कुछ सुनाई पड़ता था….
“मुन्नी नहीं होती तो कहीं भी बसर कर लेती। लड़की जात को लेकर बाप के अलावा दूजे पर विश्वास भी तो नहीं कर सकती|”…माँ अक्सर ही मुन्नी को भी कहती ..
“मुन्नी! घर के अंदर ही रहना बेटा..बाहर बहुत जानवर है जो सिर्फ देह सूंघते हैं”…
माँ का कहा हुआ यह शब्द देह सूंघना मुन्नी के लिए एक बड़ी पहेली था और समझ के परे भी।
भाइयों को बाहर खेलते देख पांच -छह साल की उम्र तक तो बहुत बार मुन्नी मचल जाती थी और कभी-कभी चुपके से माँ के काम पर निकलते ही बस्ती का एक चक्कर लगाने से बाज़ नहीं आती। कभी भाई माँ से शिकायत लगाते तो साफ ही मुकर जाती..
“ झूठे हैं यह दोनों माँ”.. मैं बस घर के बाहर ही खड़ी थी, घूमी कहाँ ?
माँ को चिंताए करने के अलावा कभी लाड़ करना तो आया ही नहीं। सवेरे और रात के बीच में लटकी हुई उनकी ज़िंदगी बस काटने के लिए ही थी। एक ही तरह से रेंगना उनकी ज़िंदगी की नियति थी|
एक दिन माँ के निकलते ही मुन्नी को किसी पड़ोसी ने आकर बताया..
“मुन्नी! तेरा भाई खेलते-खेलते गिर गया है उसे काफी चोट लगी है जाकर तो देख|”..
नन्ही-सी जान अगर भाग कर पहुँच भी जाती तो भी इस उम्र में सब संभालना ,उसके बस में न था। बहुत हिम्मत जुटा कर वहां पहुँची तो देखा छोटा भाई नंदू चीख-चीख कर रो रहा था| जैसे-तैसे करके लोगों की मदद से मुन्नी नंदू को लेकर घर आ गई और लोगो की मदद से उसकी पट्टी भी करवा दी। फिर नंदू को खाना भी खिलाकर सुला दिया। तभी उसको ढूंढ़ता-ढूंढ़ता जब छोटू आया तो उसको भी उसने प्यार से अपने पास बिठा लिया।
माँ तो देर रात तक ही लौट कर आती थी। तब तक खाना बना कर भाइयों को खाना खिलाने की जिम्मेवारी मुन्नी की ही थी। आज नंदू के इतना सारा खून बहते देख मुन्नी घबरा ही गई थी। बस सोचती बुदबुदाती रही…
“हे भगवान! जल्दी से माँ आ जाये और मैं भी माँ की गोद में दुबक कर सो जाऊं|”… सोच तो सोच है उसका क्या। माँ की गोद की सोचना भी तो माँ के मन पर निर्भर करता है। दिन भर की थकान उसे भी तो चिड़चिड़ा कर देती। वो भी क्या करे हर बात पर गुस्से के सिवाय उसके पास भी कुछ नहीं होता था।
ऐसा ही बहुत कुछ सोचते-सोचते कब नन्ही को नींद आयी उसको पता भी नही चला| दिन की भागदौड़ और थकावट में वो दरवाज़े की सांकल चढ़ाना भूल गई और गहरी सो गई। झटके से मुन्नी की नींद तो तब खुली जब एक रेंगता हुआ हाथ उसके देह को जगह-जगह सहलाने लगा न जाने कितनी देर से यह सब हो रहा था दिन की भागदौड़ से मुन्नी पस्त पड़ी सो गई थी तभी अचानक मुन्नी बुरी तरह घबरा कर उठ बैठी।
‘कौन है? कौन है?’…करके जब मुन्नी चिल्लाई तो वो परछाई चुपके से सरक कर खोली से बाहर चली गई।
आज मुन्नी को पता चल गया था जो उसके साथ घटित हुआ वो बहुत कुछ घिन से भरा था। बस यह एहसास दहशत बन उसके अंदर घर कर गया। उस दिन के बाद मुन्नी घर के बाहर निकलती तो चौकन्नी रहती।बस हर सामने पड़ते इंसान पर शक़ करती ,
“कौन था वो जिसने उसको छुआ?…कौन था जो उसको छू कर चला गया ?”..आदमी जात उसके लिए अब डर का सबब बन गया था।
“क्या हुआ है मुन्नी तुझे छोटी-सी आहट से डर जाती हैं?’..माँ के पूछने पर मुन्नी कहती तो कुछ नही थी पर बस सूनी आँखों से माँ को एकटक देखती ।
धीरे-धीरे समय निकला मुन्नी अब किशोरावस्था में बढ़ने लगी थी। अक्सर इन लोगों को जन्मदिन कम ही याद रहते है शरीर के गठन में होने वाले परिवर्तन से यह बड़ा होना सोच लेते हैं।
इस बीच जाने कितनी बार वो जानवर मौका पाकर उसकी देह को सहलाता रहा ,विद्रोह करने पर जान से मारने की धमकी दे देकर उसका मुंह बंद करता रहा ।जाने कितनी बार इस हादसे से गुज़रने के बाद, मुन्नी के लिए आदमी फिर कभी आदमी नही रहा।
अब तो माँ जैसा कहती थी ,
“बाहर जानवर घूमते है देह सूंघने वाले”…वहीं लगने लगा था उसे अब बिल्कुल माँ के कहे जैसा। माँ का कहा हुआ आदमी अब उसके लिए दहशत बन चुका था|
अब मुन्नी को समझ आने लगा था माँ क्यों उसको चार दीवारों में कैद रखना चाहती थी और अब तो खुद ही मुन्नी भी उस चार दीवारों वाली खोली से निकल कर बाहर नही जाना चाहती थी।
बड़ी होती मुन्नी हर रोज ही सोचती माँ को चुपके से बता दूं …वो सब कुछ जो रात के अंधेरे में उसे डराता है पर अब उसकी चुप्पी भी आंखों से बोलने लगी थी…
“माँ! मैं जान गई हूं खोली के बाहर के उन जानवरों को जो घात लगाकर बैठे हैं”…माँ मैं जान गई हूं उन जानवरों को जो देह की बास को खोजने गली-गली घूमते हैं… माँ! तुम ठीक कहती थी मुन्नी घर से मत निकलना बेटा तुझे जानवर नौच खायेंगे…पर माँ मैं तुझे कैसे बताऊँ उस दिन तो मैं घर से निकली ही नहीं थी… कैसे बताऊँ मैं तुझको मैं तो नंदू को बचाने निकली थी| कब खुले घर में वो आदमजात जानवर घुस आया और..और माँ …. माँ! आज मैं समझ चुकी हूं तेरी ही तरह सब कुछ तेरे ही जैसा…
माँ! अब में जान गई हूं इस जानवर को अच्छे से, इसे कुछ भी पता हो न हो औरत की खूशबू जरूर पता होती है …पर माँ को मैं चीख़- चीख़ कर यह बताना चाहती थी ऐसे जानवर बाहर ही नहीं होते माँ, वो मौका पाकर अंधेरे का घरों में भी घुस आते है…और घरों में घुसने वाले जानवर ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं क्योंकि वहां उनको देखने वाला कोई नहीं होता..यह सब कुछ सोचते-सोचते कब मुन्नी सुबकने लगी और फिर बुदबुदाती गई…..
पर माँ! नही कहूंगी मैं कभी तुझसे इस जानवर का क्योंकि अब हम दोनों की पीड़ा एक-सी है…जो पहले तेरे खौफ़ में बसती थी आज मेरे भी खौफ़ में बस चुकी है, ख़ुद ही लडूंगी अब अपने लिए…अगर तुझे मैंने सब कुछ बता दिया तो तू तो जीते जी मर जाएगी माँ … क्योंकि तूने तो सारे सौदे मेरे लिए ही तो किये थे माँ…मेरे लिए ही तो किए थे माँ….
प्रगति गुप्ता
जोधपुर, राजस्थान