सुंदर हाथ
“मांँ दे ना अपनी हंसुली, उसे तोड़ कर तुम्हारी बहू के हाथ की चुड़ियां बनवा दूंगा…”
सुनील ने गुटखा थूकते हुए कहा।
“ऐसा कैसे चलेगा, कब तक तू मुझसे पैसे मांग – मांग कर अपने शौक पूरे करता रहेगा..”
मालती देवी ने खीझते हुए कहा।
“क्या करूं मांँ, नौकरी तो मिलने से रही, कम से कम मेरे हिस्से का खेत ही बेच कर मुझे पैसे दे देती, जिससे मैं कोई धंधा शुरू कर देता।”
सुनील ने अपने दिल की बात कहने की हिम्मत जुटा ली थी।
” दसवीं फेल को भला कौन नौकरी देगा, पढ़ने वाली उम्र तो तुमने दंगे फसाद और नेताओं की चमचागिरी में गुजार दी….. और अब तेरे कहने पर अपनी रही – सही संपत्ति बेच दूं? ”
गुस्से से मालती देवी का चेहरा लाल हो रहा था।
“मांँ तू समझती क्यों नहीं खेती के काम में बहुत मेहनत है, और मैं अकेला… ”
” अकेला क्यों… तुम अपनी पत्नी को भी लगाओ खेती बाड़ी के काम में, अपने बड़े भाई अनिल और उसकी पत्नी से कुछ सीखो. ”
सुनील की बात को काटते हुए मालती देवी ने कड़क आवाज में उसे समझाने की कोशिश की।
” माँ कहां मेरी पत्नी और कहां भाभी…. कभी देखा है मेरी पत्नी के हाथों को… कितने सुंदर हैं, भला उतने सुंदर हाथों में मैं हंसुआ और खुरपी कैसे थमा दूं। ”
सुनील के स्वर में गर्व और खुशामद का मिला जुला भाव था।
“अच्छा, तो सुंदर हाथ हैं तेरी पत्नी के, इसलिए उन्हें सोने से सजाना चाहता है। ”
मालती देवी ने व्यंग्य मिश्रित गुस्से में कहा।
” हां….. ” सुनील बेशर्मी की हर सीमा का उल्लंघन कर रहा था।
” अरे करमजले… तुम्हें पता भी कि सुंदर हाथ किसे कहतें हैं…”, कहते हुए मालती देवी ने सुनील का हाथ पकड़ा और उसे लगभग घसीटते हुए अनिल के खेतों की ओर ले गई। खेत में अनिल और उसकी पत्नी साथ मिलकर
गेहूं के फसल की कटाई कर रहे थे।
बुढ़ापे का शरीर, मन में नालायक बेटे के प्रति रोष और घर से खेत तक की दूरी…. मालती देवी बुरी तरह हांफ रहीं थीं।
तभी पता नहीं उन्हें क्या सूझा, उन्होंने झुक कर धरती को प्रणाम किया, गेहूं की कुछ बालियां उठाई, और चिल्लाते हुए कहनें लगीं,
“सुंदर हाथ वो नहीं होते जिन्हें सोने के गहनों से सजाया जाये, बल्कि वो होतें हैं जो सोने जैसे फसल उगाए, और हां आज के बाद मुझसे कुछ मत मांगना, अगर मांगना ही हो तो इस धरती से मांगना…. अपने खेतों से मांगना।”
सुनील की बोलती बंद थी पर उसकी नजरें लहलहाते फसलों से बहुत आत्मीयता से संवाद कर रहीं थीं।
ऋचा वर्मा
पटना, बिहार