क्षितिज की ओर
क्षितिज की ओर मुग्ध हो कर देख रहा हूं और बह रहा हूं अस्तित्व की बाढ़ में तेरी अविजित मुस्कान इधर झनझनाती तंत्रियों में शुरू सामूहिक गान। तू झुलसा रही मेरे अहं को मेरी दुर्बलता को उमड़ रहा न जाने क्या झुकती नज़र, कभी उठती नज़र पर इसके माने क्या? फुलवारी कुछ…