कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही एक थी केतकी ,पहाड़ों की खुशनुमा वादियों में अपने रूप रंग की खुशबू बिखेरती,हिरनी सी कुलांचें भरती, इस बुग्याल से उस बुग्याल तक दौड़ती चली जाती थी बस अपने आप में खोई हुई,अपने आप में मगन।दीन दुनिया से कोई वास्ता न था बस अपनी ही धुन में किसी भी टीले…