शरद का चांद ..डाकिया अनकही बातों का

“शरद का चांद ..डाकिया अनकही बातों का ”

जाने किस बात पर घबराई सी खरगोश की तरह दुबकी फिरती वह जब-तब घर से बाहर निकल बगीचे में चली आती। गमलों की ओर मुंह किये नीची नजर में फूलों के साथ खामोशी से लगातार बात करती रहती । खिले-खिले स्थिर फूलों को देखकर वह अक्सर सोचती कि जीवन-सौंदर्य यदि कहीं गतिशील है तो वह है इन फूलों में।
कौन इतनी आशा का छिड़काव कर देता है इन पर कि पंखुड़ी-पंखुड़ी अमृत छनी, शहद सनी सी लगती आंखों को। दिन गुलों के साए में बिता,हवा की तरह हल्के हो गए गम को फूल की जड़ों में ढुलकाकर वह खाली मन से शाम गए घर के अंदर कदम रखती।
जिंदगी में जिन नैसर्गिक रंगों की चमक से वह वंचित रह गई थी, उन्हीं की तलाश में नए-नए फूल खिलाती जाती वह गमलों में। इन्हें देख कर भूल जाती थी वह बहुत कुछ। खिल जाती उन्हीं की तरह।
ये तो सच है कि सुख-दुख भले ही कुछ समय के लिए व्यक्ति को अंतर्मुखी अथवा बहिर्मुखी कर देते हों, लेकिन वास्तविक प्रवृत्ति तो हर हाल में झलक ही जाती है किसी के भी व्यक्तित्व से ।
जैसे फूलों से खुशबू का छुपे रह पाना मुश्किल होता है, वैसे ही उसे भी बहुत कठिन जान पड़ता अपने चेहरे से हंसी रोक पाना। यह बात वो नौजवान लड़का अच्छी तरह से समझने लगा था, जो उस नर्सरी का इंचार्ज था, जहां वह लड़की जब-तब फूल, पौधे खरीदने आ जाया करती थी।
छोटी-छोटी आंखों वाला नौजवान थापा खुद कभी मुस्कुराता ना था। नर्सरी में काम करने वाले सभी कामगार खुद में खोए-खोए से दिनभर मन लगाकर काम करते रहते । उनमें से अधिकतर जेल से छूटे हुए कैदी थे। जिंदगी की शिकायतों में उलझे,कहने-सुनने को कुछ शेष कहां किसी के पास? अपने गीले मन को मौसम की धूप-छांव में सुखाते हुए दिन काट रहे थे सभी।
“यह पौधा हमने कोलकाता से मंगा तो लिया है, लेकिन यहां इसका खिलने का चांस कम है” हर सुंदर फूल की कीमत आसानी से चुकाती,पैसों की परवाह न करती हुई लड़की को थापा ने थोड़ा सावधान करते हुए कहा ।
तुम कहां से हो? लड़की ने पूछा। बात का कोई खास मिलान न था मगर फिर भी थापा ने उत्तर दे ही दिया “दार्जिलिंग” ।

थापा को याद नहीं कि पिछली बार उसने कब किसी को अपने शहर का नाम बताया था। लेकिन यह ठीक हो गया कि बहुत समय के बाद उसे अपना घर बुरी तरह याद आया। वरना तो परछाइयां बन गई थीं बस वही परिस्थितियां जिनके चलते वह देहरादून की इस नर्सरी में आ पहुंचा था।
दार्जिलिंग सुनते ही लड़की को याद आये अपने पसंदीदा “कस्तो मजा… ये हवाएं गुनगुनाएं” गीत पर उसकी लहराती कमर और मटकते हाथों के एक्शन पर थापा खुलकर हंस पड़ा। छोटी-छोटी आंखों को पूरी तरह बंद होते हुए देख लड़की भी हंस पड़ी।
लड़की बहुत देर उस नर्सरी में फूलों को देखती रहती, इसलिए थापा को ध्यान आने लगा था कि लड़की के चेहरे का रंग चंपा के फूलों से मिलता-जुलता स्निग्ध पीलापन लिए हुए था। होंठ गुलाब ही थे। हंसने पर गालों पर उभरती चमक जैसे पहाड़ी पर सुबह-सुबह की धूप।
फूलों को देखकर किसी का मन उदास भी हो सकता है, तो वह था थापा। कभी-कभी जाने किस घबराहट में थापा नर्सरी से बाहर निकल जाता और बाजार की भीड़-भाड़ में खो जाना चाहता।
लेकिन इन दिनों उसका नर्सरी से निकलना बिल्कुल मुमकिन न था। जाने कब आ जाए ! उसकी गाड़ी को वह पहचानता था।
कभी-कभी लड़की के उसके काउंटर तक पहुंचने पर भी थापा गाड़ी की ओर ही देखता रहता कि पता तो चले आखिर यह खुशनसीबी रहती किसके घर में है?
जाने कौन सी रुत थी, मगर सब कुछ गुलमोहर सा हो चला था उन दिनों। हवा में थोड़ी ठंडक आई तो लगा कि मौसम हरसिंगार हो रहा है।
शरद पूर्णिमा की रात छत पे टहलती लड़की की आंखों में चांद का चमकीला वैभव देख थापा का गोरा,उजला चेहरा कौंध गया। गमलों पर छिटकी इस बेशुमार चांदनी समेटने को फूल कहीं कम तो नहीं पड़ जाएंगे ? उसे कल नर्सरी जाना चाहिए, सोचकर लड़की मन ही मन मुस्कुराई।
थापा पिछले एक महीने से दार्जिलिंग में है। अन्य जगहों के मुकाबले ठंड वहां बढ़ गई है, इसलिए छत पर बहुत देर रुकना मुमकिन नहीं। उसे सुबह का इंतजार है, जब चांदनी से नहाए फूल के गालों पर गिरी ओस को उंगली पर समेटते थापा को वो लड़की बहुत याद आयेगी।

प्रतिभा नैथानी
साहित्यकार
देहरादून

0
0 0 votes
Article Rating
32 Comments
Inline Feedbacks
View all comments