नारीशक्ति बनाम नारीवाद

नारीशक्ति बनाम नारीवाद

दुनिया की आधी आबादी स्त्री;सृजन की स्वामिनी, सृष्टि की सारथी ,पृथ्वी सी पोषिका, हवा सी जीवनदायिनी ,महक की भाँति मनाहाल्दिका, सुमन की तरह सौंदर्यसम, हरियाली की भाँति हर्षिका, वर्षा की तरह नवजीवनवर्धिका परंतु कालक्रम में कई बार और कितनी जगह विसंगतियों के समक्ष खड़ी।

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता:” कई जगह बड़े बड़े अक्षरों में लिखा मनुस्मृति का यह वाक्य दृष्टिगोचर हो जाता है। आखिर किसी समाज को यह सीख देनी ही क्यों पड़ती है कि जहाँ नारियों की पूजा होगी, वहीं देवताओं का निवास होगा। स्पष्टत: समाज में नारियों की अपेक्षित गरिमामय स्थिति का अभाव ही साहित्य को यह संदेश देने के लिए बाध्य करता होगा। सत्य भी यही है कि स्मृति काल आते -आते नारी दशा प्रशंसनीय न रही और यह भी सत्य कि स्वयं मनुस्मृति भी विवादों से परे नहीं।

सभ्यता का प्रथम चरण, प्रागैतिहासिक काल-घुमंतू जीवन , शिकार और संग्रहण ही जीवनाधार-ऐसे में पुरुष और नारी की स्थिति में कोई अंतर न था। दोनों के कार्य समान परंतु संभवतः प्रजनन एवं शिशुपालन संबंधी क्लिष्टताओं के कारण पुरुष शक्तिप्रधान कार्यों को संपादित करने लगा और स्त्री अपेक्षाकृत छोटे, साधारण और एक जगह टिक कर करने वाले कार्य करने लगी । प्रथम नागरीय सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता तो मातृसत्तात्मक समाज का उदाहरण थी।महिलाएँ आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक अधिकार से परिपूर्ण उच्च कोटि की दशा से युक्त थीं।वैदिक काल, जो 1500 ईस्वी पूर्व से 600 ईस्वी पूर्व तक का काल है, में ऋगवैदिक काल को तो नारी इतिहास का स्वर्ण युग कहा जा सकता है।अपाला ,घोषा, लोपमुद्रा, विश्ववारा , मैत्रयी, सिकता ,निनावरी,अत्रेयी इत्यादि विदुषियों के नाम इतिहास में मिलते हैं।नारियों में शिक्षा का स्तर इतना ऊँचा था कि कई नारियों ने पूरा का पूरा जीवन अध्ययन -अध्यापन में लगा दिया और उन्होंने अपने समकालीन बड़े-बड़े पंडितों को शास्त्रार्थ हेतु चुनौती दी थी।उत्तर वैदिक काल आते-आते स्त्रियों के सम्मान, कर्म, अधिकार में अवनति दिखाई पड़ने लगती है। ऋग्वेद में राक्षस, पैशाच, असुर विवाह की उपस्थिति यह दर्शाती है कि समाज में बलात्कार ,अपहरण जैसी घटनाओं ने जन्म ले लिया था।महाकाव्य काल में रामायण में एक निरा धोबी के कहने पर श्री राम जैसे आदर्श पति का अपनी पत्नी सीता का त्याग और महाभारत में इंद्रप्रस्थ की महारानी द्रौपदी का परिवार के जयेष्ठ जनों से भरी द्यूत सभा में वस्त्रहरण का निर्लज्ज प्रयास स्त्रियों की सामाजिक दशा की व्याख्या कर देता है। मौर्य काल में स्वतंत्र जीवन बिताने वाली स्वच्छंदवासिनी , आजीवन सन्यासिनी का जीवन बिताने वाली परिव्राजिकाओं की उपस्थिति थी तो शरीर व्यवसाय करने वाली रूपाजीवा, गणिकाएँ ( जिनके प्रशिक्षण पर राज्य खर्च करता था)-स्त्रियों के वस्तुपरक रूप भी समाज में मौजूद थे। असूर्यपश्या( सूर्य को भी न देखने वाली स्त्री) तथा अनिष्कासिनी(घर से बाहर न निकलने वाली स्त्री) जैसे शब्दों का प्रयोग स्त्रियों की परतंत्रता को बताता है।मौर्य वंश के पश्चात भी धीरे-धीरे सामाजिक व्यवस्था में नारी स्थिति पर कुठाराघात ही हुआ।बाल विवाह ,पर्दा प्रथा, स्त्री अपराधों की संख्या का बढ़ना ,विवाह के निकृष्ट प्रकारों के प्रचलन का दृढ़ता से पैर जमाना और स्त्री स्वतंत्रता में कमी आने से उनके शैक्षिक और आर्थिक अधिकारों में गिरावट आई।सातवाहन काल में नारी गरिमा में चढ़ाई देखने को मिलती है ।जैसे कि शासकों ने अपने नाम के आगे अपनी माता के नामों का प्रयोग करना शुरू किया । यथा- गौतमीपुत्र सातकर्णी।गुप्त काल महिलाओं की स्थिति में सुधार लेकर आया ।उन्हें सम्मान के साथ पूजनीय माना गया परंतु महिलाओं पर पुरुषों का वर्चस्व बना रहा।दुखद पहलू तो यह कि भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहे जाने वाले गुप्तकाल ने देवदासियों की परंपरा को सबलता प्रदान की, जिसने नारी को उपभोग की वस्तु बनाने में सामाजिक मुहर लगा दी।मध्यकाल तो महिलाओं के अनुकूल था ही नहीं।पर्दा प्रथा, सती प्रथा का बढ़ता चलन-सामाजिक असुरक्षा का दुष्परिणाम तो था ही,महिलाओं को गुलाम बनाकर रखने की कुरीति भी दिखाई देने लगी। बहुपत्नी प्रथा जोरों पर थी।हालाँकि कुछ स्त्रियों की राजनैतिक भागीदारी उनकी प्रतिभा और योग्यता को दर्शाती है। जैसे- रजिया सुल्तान का गद्दी पर आसीन होना ,पर्दे के पीछे रहकर भी अकबर के समय धायमाँ और महामंगा,जहाँगीर के समय नूरजहाँ की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का वर्चस्व दिखाई देना।

यूरोपीयों के आगमन के पश्चात तत्काल तो नहीं, परंतु शनै:-शनै: बदलाव होने लगा ।इसी समय उपनिवेशवाद के विरोध में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, कनार्टक की रानी कित्तूर चेन्नम्मा, अवध की बेगम हजरत महल इत्यादि ने अंग्रेजों से अपनी अंतिम साँस तक लोहा लिया।1857 की क्रांति के बाद से ही स्त्रियों की दुनिया चूल्हा- चौकी से बाहर नए आकाश में विस्तार पा रही थी और इतिहास साक्षी है कि इतने बड़े पैमाने पर भारतीय समाज की महिलाएँ सड़क पर नहीं उतरी थीं, जितनी की स्वतंत्रता आंदोलन के समय। सावित्रीबाई फूले(प्रथम महिला शिक्षिका), दुर्गाबाई देशमुख(वकील ,सामाजिक कार्यकर्ता )अरूणा आसिफ अली(1998 में भारत रत्न), सुचेता कृपलानी(उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री), विजया लक्ष्मी पंडित(संयुक्त राष्ट्र की प्रथम भारतीय अध्यक्ष) कमला नेहरू, सरोजिनी नायडू(कवयित्री और स्वतंत्रता सेनानी), कस्तूरबा गाँधी ,मैडम भीकाजी कामा(सबसे पहले भारत का झंडा फहराने का कार्य), लक्ष्मी सहगल(आजाद हिंद फौज की महिला शाखा की कप्तान), दुर्गावती बोहरा (भगवती चरण वो बोहरा की पत्नी) , मूलमती(राम प्रसाद बिस्मिल की माँ), तारा रानी श्रीवास्तव, मातंगिनी हाजरा, राजकुमारी गुप्ता, कनकलता बरना, कमलादेवी चट्टोपाध्याय , भोगेश्वरी फुकुनानी न जाने कितनी ऐसी अनेक वीरांगनाओं की लंबी सूची है। यहाँ एक तथ्य यह बताना बहुत ही प्रासंगिक होगा इन सामान्य या संभ्रांत घरों की महिलाओं के अतिरिक्त स्वतंत्रता संग्राम में उन महिलाओं ने भी भाग लिया, जिन्हें समाज तवायफ के नाम से पुकारता है। अजीजून बाई , होमसैनी, गौहरजान , हुस्नाबाई जैसी तवायफ पेशे से जुड़ी इन बहादुर महिलाओं का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित रहेगा जिन्होंने कोष इकट्ठा करने ,जासूसी करने, चोटिल स्वतंत्रता सेनानियों की देखरेख करने से लेकर जनआंदोलनों में प्रत्यक्ष रूप से बढ़ -चढ़कर भाग लेने में भी अपनी भूमिका निभाई । इन सभी वीरांगनाओं को नमन करते हुए ही महात्मा गाँधी ने कहा होगा,”स्त्री को अबला कहना उसका अपमान है ।यदि शक्ति का अभिप्राय पाश्विक शक्ति से है तो स्त्री सचमुच पुरुष की अपेक्षा कम शक्तिशाली है। यदि शक्तिशाली का मतलब नैतिक शक्ति से है तो स्त्री पुरुष से अधिक शक्तिमान है।”

स्त्रियों के नवजागरण काल का जो सूर्य उदित हुआ, वह आज पूरे प्रकाश के साथ आकाश में दीप्तिमान है। सहस्त्र योजन दूर अंतरिक्ष में पाँव धरने वाली कल्पना चावला हो या एलएसी की सुरक्षा हेतु आइटीबीपी की महिला बटालियन का – 30 डिग्री के तापमान पर भी ऊँचे, बर्फ आच्छादित लद्दाख में बंदूक थामे खड़े रहना हो; राष्ट्रीय एवं प्रशासनिक उत्तरदायित्व के उच्चतम स्तर राष्ट्रपति की कुर्सी पर आसीन श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल हों या मिशन मंगलयान में लगी महिला वैज्ञानिकों की टोली(मीनल संपत, अनुराधा टी. के. , रितु करिधल , नंदिनी हरिनाथ ,मौमिता दत्ता एवं अन्य); भारतीय इतिहास में दृढ़ निर्णायक बल एवं अद्वितीय शौर्य का प्रतिमान प्रस्तुत करने वाली पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी हों या गत(२०२०) गणतंत्र दिवस परेड में राजपथ पर अपनी जोशीले अंदाज और बुलंद व्यक्तित्व से सेना की टुकड़ी का नेतृत्व करने वाली पहली महिला सैन्य पदाधिकारी तान्या शेरगिल हों, आध्यात्म एवं समाज सेवा के क्षेत्र से जुड़ी महिलाएँ हों(मदर टेरेसा एवं अन्य) या विभिन्न व्यवसायों में अपना लोहा मनवाती हुई भारतीय औरतें(इंदिरा नूई, इंदु जैन , चंदा कोचर, वंदना लूथरा, किरण मजूमदार शा, अदिति गुप्ता, सूची मुखर्जी, रिचा कर आदि ); खेल के सर्वोच्च अंतरराष्ट्रीय फलक ओलंपिक पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती हुई भारतीय महिलाएँ (कर्णम मल्लेश्वरी ,मेरी कॉम ,पी. वी. सिंधु ,साक्षी मल्लिक, साइना नेहवाल) या कलम से सृजन का गीत गातीं युगबोधिकाएँ (महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, कृष्णा सोबती , अमृता प्रीतम , इस्मत चुगताई, मृदुला गर्ग , शिवानी, शोभा डे ,अरुंधति राय, कमला भसीन, शशि देशपांडे, प्रतिभा राय आदि ) _ चिकित्सा, शिक्षा, अनुसंधान, पर्यावरण संरक्षण, वाहन चालन, कला एवं अभिनय,फैशन डिजाइनिंग, विश्वस्तरीय सौंदर्य प्रतियोगिता , खेती एवं उद्योग, इंजीनियरिंग एवं प्रबंधन, पर्वतारोहण, पुलिस और प्रशासन-भला ऐसा कौन सा क्षेत्र है जहाँ नारी शक्ति ने अपने कदम न रख दिए हों। अगर तीन फ्लाइंग कैडेट्स भावना कांत, अवनी चतुर्वेदी और मोहना सिंह फाइटर स्क्वाड्रन में शामिल हो गई हैं तो दूसरी ओर आधुनिकतम युद्धक विमान राफेल के वेग को भी हवा में थामा है फ्लाइट लेफ्टिनेंट शिवांगी सिंह ने।

इन विशिष्ट उपलब्धियों से अलग हर वह नारी जो अपने घर की चहारदीवारी के अंदर भिन्न-भिन्न तरह की परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए;बिना रुके ,बिना थके अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वाहकर एक सशक्त समाज के निर्माण की प्रक्रिया में संलग्न है तो क्या वे सभी धन्यवाद की पात्र नहीं?भारत की भावी संतति इन्हीं के आँगनों में पल रही है।यहाँ पर मुझे नेपोलियन का यह कथन याद आता है,”तुम मुझे अच्छी माँ दो ,मैं तुम्हें एक उन्नत राष्ट्र दूँगा।”

नारी विकास रूपी पुस्तक का ऊपरी कलेवर जितनी चमक-दमक और नवीनता लिए दिखता है ,उसके अंदर के पृष्ठों पर छपी कहानी में स्थिति इससे इतर है। अशिक्षा, कुपोषण एवं अस्वास्थ्य , बाल विवाह,घर के अंदर एवं बाहर दोनों ही स्थानों पर कई बार स्वयं नारी का नारी के प्रति सहयोगी न होना, घरेलू हिंसा एवं यौन उत्पीड़न,आर्थिक परजीविता ,दोयम दर्जे की सामाजिकता और इन सबसे ऊपर हमारे देश में पितृसत्तात्मक समाज का नारियों के प्रति कई जगह नकारात्मक भूमिका में होना-एक आम नारी के प्रतिदिन के जीवन यापन की राह में ही संकट पैदा करने के लिए काफी है।स्त्रियों का प्रेम, बलिदान और सर्वस्व समर्पण की भावना भी कालांतर में कई बार उनके लिए ही विष बन जाती है।वर्तमान समय में तो नारीगत समस्या के क्षेत्र में सामाजिक सुरक्षा एक ज्वलंत प्रश्न बनकर खड़ा है। आवश्यकता है नारी शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने की, नारी के प्रति समाज में स्वस्थ सोच पैदा करने की,नारी सुरक्षा हेतु बेटों को संस्कारित करने की एवं लड़कियों को आत्मरक्षा की विविध कलाओं में आवश्यक रूप से पारंगत करने की। महान विचारक विवेकानंद ने तो कहा था,”तुम स्त्रियों को केवल शिक्षित कर दो और बाकी सारी समस्याएँ वे खुद ही निपटा लेगीं।

नारी की सामाजिक दशा को सुधारने के लिए समय-समय पर सरकार और कानून व्यवस्था भी यथासंभव यथोचित कदम उठाती रही है- चाहे हिंदू उत्तराधिकार कानून में सुधार कर २००५ में बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबरी का अधिकार देना हो या २०१८ में केरल के सबरीमाला मंदिर में सभी आयुवर्ग की महिलाओं को प्रवेश करने और पूजा करने का संवैधानिक आधार देना हो, मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के अभिशाप से मुक्त कराना हो या मुंबई हाजी अली दरगाह में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देनी हो। मुस्लिम महिलाओं के हक में न्याय की इस लड़ाई के और भी कई पड़ाव हैं, जो न्यायालय में विचाराधीन हैं-यथा, हलाला, बहुविवाह, निकाहमिस्यार एवं निकाह मुता
(कॉन्ट्रैक्ट मैरेज)- ये चारों प्रथाएँ।निर्भया कांड के बाद बलात्कार से जुड़े कानूनों को भी और कड़ा रूप प्रदान किया गया है। लेकिन किसी भी कानून की सफलता सामाजिक सहयोग और लोगों की जागरूकता के बिना यथार्थ के धरातल पर फलीभूत नहीं होती है । इसका सबसे अच्छा उदाहरण दहेज निरोधक कानून है, जो बना तो 1961 ईस्वी में ही, परंतु अब तक बहुएँ दहेज के नाम पर सताई और जलाई जा रही हैं। दुखद पहलू यह भी कि नारीवाद के नाम पर दहेज निरोधक कानून, यौन उत्पीड़न कानून इत्यादि की आड़ में निर्दोषों को भी अपना ग्रास बनाया जाता है।


सभ्यता के विकास के कालक्रम में लंबे समय से चली आ रही उपरोक्त समस्याओं और विसंगतियों ने न केवल नारी के कोमल अंतर्मन में असंतोष का बीज बोया है , वरन समाजवादियों और मानवता वादियों को भी इनकी परिस्थितियों पर सोचने के लिए विवश कर दिया है। नारीगत समस्याओं पर विचार करने एवं कार्य करने की शुरुआत तो गोविंद रानाडे, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती , ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि विभिन्न महापुरुषों के प्रयासों के द्वारा ही भारतीय समाज में हो चुकी थी परंतु वर्तमान समाज स्त्रीवादी विमर्श के प्रति नई अंगड़ाइयाँ ले रहा है। नारीवादी आंदोलन के रूप में यह नारी के प्रजनन अधिकारों ,घरेलू हिंसा ,मातृत्व अवकाश, समान वेतन , मताधिकार , यौन उत्पीड़न और यौन हिंसा जैसे मुद्दों पर सुधार के लिए राजनीतिक अभियानों की श्रृंखला को संदर्भित करता है।नारीवादी दर्शन का मुख्य उद्देश्य किसी समाज में नारियों की विशेष स्थिति का पता लगाना और उनकी बेहतरी के लिए वैकल्पिक समाधान प्रस्तुत करना है।हर क्षेत्र की नारीवादी विमर्श की अपनी खास बनावट और विशिष्ट समस्याएँ होती हैं, जो दशकों में विकसित हुई होती हैं और यही कारण है कि आधुनिक स्त्रीवादी विमर्श की मुख्य आलोचना हमेशा से यही रही है कि इसके सिद्धांत एवं दर्शन मुख्य रूप से पश्चिमी मूल्यों एवं दर्शन पर आधारित रहे हैं। नारीवाद का दर्शन विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में विविध स्वरूप में मौजूद है, आवश्यकता है हम इसे भारतीय पृष्ठभूमि में रंग कर देखें ,सोचें और समझें।

प्रकृति ने ही नारी को सर्जन की दूती बनाया है पर उसकी यह विशेष स्थिति किसी भी दृष्टिकोण से पुरुष की उपस्थिति के व्योम को लघु नहीं कर पाती। समाज का सुंदर, उपयोगी और समरस स्वरूप इस बात की अपेक्षा करता है कि नारी के नारीत्व और पुरुष के पुरुषत्व में एक दूसरे के प्रति सम्मान, सहयोग और संवेदनशीलता के अव्यय शामिल हो। शंकर का अर्धनारीश्वर स्वरूप सत्य, शिव और सुंदर-इस स्थिति की प्राप्ति के लिए नारीमय और पुरुषमय तत्व, दोनों के ही संतुलित समायोजन की ही व्याख्या है। हिंदुओं की आस्था की चरम पराकाष्ठा आदि शक्ति दुर्गा भी ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों देवों के शरीर की ऊर्जा से बनी आकृति में समस्त देवताओं की शक्ति के समारोपण की ही प्रतीक हैं। नारी का ममत्व, कोमलता, संयम , सहनशीलता तो दूसरी ओर पुरुष का उद्यम, कठोरता, ओज, दृढ़ता- दोनों पक्षों के आधारभूत गुण समाज व्यवस्था के संचालन में उपयोगी तत्व बन जाते हैं। परंतु एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींचना अनुपयुक्त ही नहीं असंभव भी है क्योंकि नारी अपने आप में बहुत हद तक पुरुषत्व को भी समाये रखती है तो पुरुष में भी नारीत्व के अंश समाहित हैं।

सामाजिक व्यवस्था के परिचालन की सुगमता नारी पुरुष की प्रतिद्वंदिता में नहीं वरन उनकी संपूरकता में समाहित है। उचित और अपेक्षित है- पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक ,राजनैतिक सभी प्रारूपों में नारी को उपभोग और शोषण की सीमा से बाहर रखकर , वर्तमान और भावी पुरुष संतति में इस आधी आबादी के प्रति स्वस्थ और विचारवान सोच पैदा करने की। नारी को उसके शरीर की परिधि से बाहर निकाल कर बस एक सामान्य मनुष्य की भाँति सम्मान और आदर पाने का अधिकार मिले, जीवन जीने की मूलभूत आजादी हो उसके पास। नारियों को देवी का नहीं अपितु पुरुषों की भाँति एक सामान्य इंसान का ही दर्जा दिया जाए, ताकि उन की भी भावनाएँ, इच्छाएँ, भूलों और जरूरतों को एक सामान्य मनुष्य की भावना, इच्छा, भूल और जरूरत के दृष्टि से ही देखा जा सके।नारियों की आदर्श केवल सीता और सावित्री ही न हों, अपितु गार्गी और मैत्रैयी भी उनकी आदर्श बन सकें-ऐसा परिवेश हम उन्हें दें।समाज की सोच में यह परिवर्तन अनेक सामाजिक समस्याओं का समाधान लेकर आ सकता है। नारी वर्ग भी अपने मूलभूत संस्कारों और प्रकृति प्रदत गुणों को अपनी थाती समझ एक संवेदनशील विश्व के निर्माण में अपना यथोचित योगदान दें।सरोजिनी नायडू की कविता की ये पंक्तियाँ कितना सार्थक संदेश दे रही हैं-

“जागो माँ ,जागो, पुनर्जीवित हो अपने अधंकार से,
और तारों से भी ऊँचे स्थान से आई नववधू की तरह,
अपनी चिरयुवा कोख से पैदा करो नई प्रतिभाएँ,
तेरा भविष्य नाना आवाजों से तुम्हें बुला रहा है,
सम्मान, दीप्ति और अपार विजय की पताका के लिए।”

अगर पुरुषों से यह अपेक्षा है कि नारियों
के प्रति उनका रवैया संवेदनशील , सम्मानजनक सहयोगात्मक हो , तो नारियों से भी अपेक्षा है कि वे स्त्रीवाद के झंडे की आड़ में समाज में सुव्यवस्था स्थापन के मार्ग में बाधक न बनें, अपितु संस्कारों और मूल्यों की प्रतिष्ठापना में नींव का पत्थर साबित हों। नारियों को भी यह समझना होगा कि वह सृजन के क्षेत्र में पैर रख रही हैं, न कि किसी रणक्षेत्र में। उनका संघर्ष पुरुषों के विरुद्ध न होकर व्यवस्था के अंतर्विरोधों और पुरुष प्रधान समाज से निथरे नारी विरोधी अवमूल्यों के प्रति होना चाहिए ।उन्हें सर्वदा यह स्मरण होना चाहिए कि इन्हीं पुरुषों ने पिता, भाई ,पति, मित्र या अन्य संबंधों के रूप में सहयोगी बन उनके जीवन पथ को सदैव प्रशस्त किया है और उनके व्यक्तित्व को अपने स्नेह तथा प्यार से सिंचित कर मजबूती प्रदान की है । महिलाएँ समाज और अपनी संस्कृति से जुड़ी वर्तमान परिवेश की चुनौतियाँ स्वीकार कर जयशंकर प्रसाद की इन पंक्तियों का मान गगन तल में स्थापित कर दें –
“नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नभ-पग-तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।”

रीता रानी
जमशेदपुर ,झारखंड।

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