सृष्टि करती कुछ सवाल…..
क्या होता गर बच जाती उसकी जान…
आ जाती लौट कर घर,वह बेटी लहूलुहान।
स्वीकार कर पाते तुम उसको….?
देते उसको उसका स्थान…..?
या भोगती वह ,अपने ही ऊपर हुए जुल्म की सज़ा दिन-रात?
अनन्त तक खिंच जाती वेदना -व्यथा की रेखाएँ….
जब देखती वह माँ का करुण विलाप..
दिशाओं को भेदती माँ की चीत्कार।
पिता खड़े चुप साधे…. ,क्षुब्ध, …शर्मसार।
देखती भाई का आक्रोश…
सुनती बात-बात पर उसकी फटकार।
सगे-सम्बन्धी पूछते प्रश्न हज़ार,
लोगों के व्यंग्य बाण कर देते हृदय को तार-तार।
बार -बार न जाने कब तक
जीती वो,वह भयानक हादसा बार-बार,
वही दानव खड़े हो जाते उसके सामने बारम्बार,
न जाने कितनी बार होता उसका बलात्कार।
बेटी के शरीर में बना देते तुम
मंदिर मस्जिद गिरजा गुरुद्वार,
परंतु उसके अस्तित्व को न देते उसका अधिकार।
पिता के कंधों का बन जाती भार,
भाई की अनचाही जिम्मेदारी., करता रहता ख़बरदार।
ऐसे ही गुनता परिवार-समाज उस बेटी का जीवन-सार।
माँ की बन जाती परछाईं,
माँ में ढूँढती प्यार-दुलार।
ममता भी पथरा जाती , हो जाती बेज़ार…,
बन न पाती उस बेटी की पीठ की दीवार।
बलात्कार,दुष्कर्म को तो रोक न पाते तुम..,
चलो मान लिया बहुत लाचार हो तुम।
किंतु खड़ी होना चाहे फिर से वह बेटी जब,
क्यूँ खींच लेते उसके क़दमों के नीचे से ज़मीन तब।
भरना चाहे वह फिर आकाश में उड़ान,
क्यूँ उसके पंखों को काट, छीन लेते तुम उसका आसमाँ।
आँखों में जब सजाती वो अपने सपनों का संसार,
क्यूँ छीन लेते तुम उससे.., सपने देखने का अधिकार।
तुम्हारी आँखों में पढ़ती वो दिन-रात अंधकार,
तुम्हारे मौन में सुनती अपनी ही चीत्कार।
तिरस्कार की अग्नि में पल-पल सुलगता उसका स्वाभिमान,
तुम्हारी पीड़ा की बेड़ियों में बंध जाती उसकी मुस्कान।
तुम्हारी शर्मिंदगी छीन लेती उस बेटी से
उसकी धरती , उसका आकाश।
सहमी सी नींद,सहमे से ख़्वाब,
दस्तक देती हताशा उसके दिल पर दिन-रात।
तरस जाती पाने को आशा की एक उजली किरण,
सिर पर आशीष का हाथ,
पथरा जाती आँखें पाने को एक क़तरा उजास।
मुस्कान की थिरकन.., न हँसी की झंकार,
आंसुओं में डूब जाता उसका संसार।
भींच कर मुट्ठी , हथेली में जो बाँध रखा था हौसला,
फिसल जाता वह मुट्ठी से ,रेत की तरह।
निःसंग जीवन का सन्नाटा….,
हर मोड़ पर पसरा था अंधियारा …
कदम-कदम पर खड़ी थी निराशा।
अपने होने पर करती वह दारुण विलाप,
सोचती.., ‘काश जीवित ही न बचती उस दिन मैं दुर्भाग।’
हार गयी मृत्यु से कल,
वह जो हारती थी जीवन से दिन-रात।
देती थी पग-पग पर इम्तिहान,
निष्ठुर, निर्दयी यह संसार,
बताता समाज बेटी के दोष हज़ार,
बेटी के जन्म पर होता उसे संताप अपार।
जकड़ते समाज में बेटियों को नसीहतों के तार
‘’ ख़राब है समय…, बुरा है संसार …
बेटी, तुमको पालना है अति दुश्वार ।’’
बेटी अपने होने पर हो जाती शर्मसार
मात-पिता के जीवन का समझती स्वयं को अभिशाप।
परंतु समाज के आतंक का बेटी क्यूँ ढोती बोझ अपार,
क्यूँ बेटी बन जाती जीवन का भार?
विकृत- विरूप समाज की, बेटी नहीं गुनहगार,
मत करो उसके अस्तित्व पर प्रहार।
पुरुष की परवरिश पर देना होगा ध्यान,
बेटों की माताओं से सब करते आहवान।
बेटियों को मत करो क्रांत,
बेटों को सिखलाओ करना स्त्री का सम्मान।
अपनी नन्ही बिटिया के शीश पर धर कर हाथ
मात-पिता ले लें संकल्प महान।
देंगे उस परी को अभय-दान,
बेटी की ख़ुशी.., बेटी का मान-सम्मान ..,
ही होगा जीवन का कर्म महान।
चाहे डोल जाए यह धरती ,चाहे डोल जाए आसमान,
बन जाएँगे वे इस युद्ध क्षेत्र में अपनी बेटी की ढाल।
क्यूँ बद्ध कर छोड़ते तुम उस बहती नदी का पारावार,
कोई कहता फूल , कहता कोई नन्ही परी,
किसी की वह बुलबुल.., किसी की चहकती कुहूकिनी…
तकती रहती जो तुम्हारे आँगन की दीवार!
पहचानो उसको !
वह है नदी की प्रचण्ड धार, तोड़ देती जो पहाड़,
उसके भीतर छिपी सिंहनी की दहाड़।
उसके भीतर छिपी सम्भावनाएँअपार,
मत करो तुम निर्मम प्रहार।
पहचानो उसकी प्रतिभा अपार।
है फूलों की ख़ुशबू बेटी,
है वीणा की झंकार।
नृत्य उसकी मनमोहक थिरकन,
बातों में उसकी टंकार।
रंग छिपे उसमें बेशुमार
बेरंग ज़िंदगी हो जाती गुलज़ार ।
तेज ओज का वो अक्षय कोश,
है वह लेखनी का रोष ।
है मधुर संगीत की तान वह,
है करुणा-धैर्य की ठण्डी बयार वह।
हृदय से खींच लेती विषाद,
उसकी हँसी में खो जाता संताप।
कल्याणी, वैदेही,शिवा,राधा, नारायणी
की वह धरती पर अवतार।
शक्ति ,धैर्य,तप,प्रेम,मैत्री
की संपद बरसाती अपरम्पार।
माथा टेकते तुम नित माँ के द्वार
किंतु कैसे पाओगे माँ का आशीर्वाद…
गर करोगे बेटी का तिरस्कार।।
रचना मल्लिक
भुवनेश्वर