नवरात्रि दक्षिण में – एक सामाजिक झांकी
नाम ही स्पष्ट कर देता है कि यह नौ दिनों का उत्सव जो शरद और वसंत दोनों कालों में आता है संध्याकालीन पूजा का द्योतक है जैसे कृष्ण जन्माष्टमी अर्धरात्री की पूजा है। केरल में विशु नामक पर्व वर्षारंभ का शुभ समय सूर्योदय से पूर्व होता है। होलिका ज़्यादातर शाम को जलती है। दीवाली का शुभारम्भ भी सूर्योदय के पूर्व, गंगा स्नान नामक पवित्र स्नान से शुरू होता है। भारत के विभिन्न भागों में त्योहारों में पूजा का समय शुभ मुहूर्त देख कर तय होता है। पंचांग देखों और तदानुसार समय पर पूजा करो। बड़ी सृदृढ़ व्यवस्था है ताकि सभी लोग यथासंभव एक समय पर पूजा करें और सामूहिक लोक संकल्प की कल्याण भावना दृढ़ हो।
दक्षिण भारत में नवरात्रि मनाने का अन्दाज़ कुछ अलग है। यहाँ प्रथमी से शुरू होकर आठ दिनों के लिये मुख्यत: दुर्गा या महिषासुर मर्दिनी की पूजा होती है और अंतिम दो दिन लक्ष्मी और सरस्वती की भी होती है। यानी देवियाँ ही देवियाँ! इसमें घर की देवियों को भी जोड़ लीजिए।किसी पुरुष की है हिम्मत कि मुँह भी खोले, सिवाय प्रसाद खाने के लिए या देवी स्तुति गाने के लिए या फिर ‘हाँ’ कहने के लिए! अरे आठ मार्च को महिला दिवस तो सिर्फ़ एक दिन के लिए मनता है। नवरात्रि में तो स्त्री का शक्ति रूप, लक्ष्मी रूप और ज्ञान रूप, तीनों की महत्ता मनाई जाती हैं। देवी को स्वयं से अलग क्या मानना? वे हमारे लिए एक आदर्श हैं और उन्हें हमारी श्रद्धा से हम शक्ति प्रदान कर स्वयं शक्तिवती होने का प्रयास नवरात्रि है। बस, घर बुलाइए और अपना लीजिए। नौ दिन स्त्री होने की महत्ता, उसकी विशिष्ट जीवन दृष्टि और शक्ति से भरपूर होकर पुनश्च: साल के चक्र से जुड़ जाइए। मेरी आस्था है कि भारत के हर देवी त्योहार में मानवी को देवत्व प्रदान करने की यह सोच, स्त्री को स्वयं उसकी महत्ता से परिचित कराने का प्रयास है और पुरुष को इस चेतना से जोड़ने के लिए है।
नवरात्रि के इन नौ दिनों में तमिलनाडु के घरों में स्त्रियाँ खूब सजती है, पकवान जो देवी को प्रिय है और बहुत सरल भी प्रसाद के रूप में बनाएं जाते हैं । संध्याकाल में ज़्यादातर महिलाओं को एक दूसरे के घर जाने का न्योता मिलता है। न्योता देने के लिए पहले घर-घर जाकर हल्दी -कुमकुम दिया जाता था और प्रायः यह ज़िम्मेदारी बच्चों को सौंपी जाती थी। इलाक़े के पंद्रह बीस घरों के बच्चों का परिचय सबको वर्ष में एक बार जरूर मिलता रहता था और एक सामूहिक चेतना के साथ बच्चे बड़े होते थे। तमिलनाडु में घर में इन नौ दिनों में मिट्टी की गुड़ियों की सजावट की प्रथा है जो देखने योग्य है। एक तो हस्तकला के नमूने गुड़ियों के आकर्षक रंग-रूप में,कि आँखे हटाने का मन नहीं होता दूसरे आजीविका के एक बहुत बड़े माध्यम को समाज का सहारा मिल जाता है। गृहिणियों और बच्चों ख़ासकर कन्याओं और कुमारियों के द्वारा की गयी चावल के आटे की रंगोली , रंग-बिरंगे पुष्पों की कलात्मक सजावट मन को सौंदर्य बोध से सिंचित कर देते हैं। तीन, पाँच, सात, या नौ की संख्या में सीढ़ियाँ बनाकर गुड़ियों को सजाया जाता है । आजकल गुडियाँ सिर्फ़ मिट्टी की नहीं होतीं। पर मैं मात्र मिट्टी की ही ख़रीदती हूँ और वे तो बिल्कुल नहीं किनसे पर्यावरण दूषित होता हो। आश्चर्य हुआ बाद में जानकर कि जापान में भी गुड़ियों का उत्सव होता है! मूल रूप में मिट्टी की ये मूर्तियाँ देवी के जीवन की घटनाओं का चित्रण करती थीं अब वे पौराणिक, आधुनिक जीवन के दृश्य प्रस्तुत करती दिखाई जातीं हैं। जिनमे डायनासोर से लेकर चन्द्रयान और दशावतार के दृश्य तक दिखाए जाते हैं।
व्रतों के, विवाह की रस्मों के ,बाग, झील, समुद्र आदि झांकियाँ दिखाने की ये तैयारी एक महीने या पहले से ही शुरू हो जाती हैं। कुछ घरों में पुरुष भी इस सजावट में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। हर किसी से आशा की जाती है कि वह देवी की इस साज सज्जा में अपनी सम्पूर्ण कलात्मक प्रतिभा को प्रकट करें, एक घरेलू मंच हमेशा तैयार रहता है आपकी प्रतिभा को प्रोत्साहित एवं उजागर करने के लिए। कलात्मक अभिव्यक्ति का ये खूबसूरत मौसम एक महीने की तैयारी में और बाद के एक महीने की स्मृतियों द्वारा मन में इस तरह रच-बस जाता है कि अगले वर्ष की मधुर प्रतीक्षा के अंकुर शीघ्र ही मन में फूटने लगते हैं। ये तो हुई गुड़ियों और झांकियों की बात, देखें प्रसाद में क्या बनता है! देवी को सभी प्रकार के अनाज, चना, गुड़ बहुत प्रिय हैं। इसलिए प्रसाद में बने पदार्थ पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक होते हैं जैसे स्त्रियों के नौ दिन के भोजन में प्रोटीन, फ़ाइबर एवं अन्य पौष्टिक तत्वों की मात्रा का विचार देवी ने ही किया हो। कहते हैं प्राचीन काल में यह समय राजाओं द्वारा युद्ध आदि की योजना का समय हुआ करता था और देवी साहस का रूप है, स्त्रियों की मानसिक और शारीरिक शक्ति को इस समय पुष्ट रखना ज़रूरी रहा होगा। दसवें दिन की जाने वाली आयुध पूजा या विश्वकर्मा पूजा इस संदर्भ में सार्थक है। घर पधारनेवाली स्त्रियों, कन्याओं को हल्दी-कुमकुम, प्रसाद, ताम्बूल, हल्दी की गाँठ, सुपारी, नारियल, कुछ अन्य छोटे-मोटे उपहार आदि सद्भावना और सौभाग्य हेतु दिए जाते हैं। पूरे वातावरण में सुगंधित पुष्प मन को हर्षित करते हैं। मूड अच्छा बनाए रखना हो तो बालों में, पूजा में या घर में तुलसी, मल्लिका, जूही, चमेली, चम्पा आदि सजाइए और देखिए कितनी ताज़गी महसूस होती है। जानते हैं हम सब किंतु तुलसी लगाकर नियमित रूप से जल देना भी दूभर लगता है! ख़ैर न्योते के दिन घर लौटने में भले देर लग जाती है पर घर-घर के प्रसाद पर हल्की-फुल्की टीका-टिप्पणी आदि से माहौल फिर प्रसन्न ही हो जाता है। अगले दिन अपने घर आनेवालों के लिए तैयार होना पड़ता है।ये सिलसिला दस दिनों तक चलता है। कहने को तो यह स्त्रियों का त्योहार है पर साथ पुरुषों का जाना वर्जित नहीं है और कई दिनों के बाद मिलकर बैठने -बोलने का अवसर भी सबको मिल जाता है। दक्षिण में नवरात्रि में नवमी के दिन सरस्वती देवी का आह्वान होता है न कि वसंत पंचमी में जैसा बंगाल व अन्य उत्तर भारत के राज्यों में होता है। बच्चें अपनी पुस्तकें, बड़े अपनी पोथियाँ सब पहली रात को सोने के पूर्व ही देवी के समग्र सजा देते हैं और दूसरे दिन पुस्तक पाठ की पूरी मनाही का मज़ा लेते हुए दशमी को पुनर्पूजा के बाद पुस्तकें उठाकर श्रद्धा सहित पढते हैं। इस तरह तीन दिन देवी सरस्वती के अनुग्रह की कामना की जाती है और ज्ञान प्राप्ति व शिक्षा की कामना त्योहार के ज़रिए बच्चों के मन में बिठाना आसान भी हो जाता है। पूजा भी मनोविज्ञान भी।
सांध्य काल में मंदिरों-घरों में सभी आगंतुक और गृहिणी मिलकर या अकेले महिषासुर मर्दिनी स्तोत्र का पाठ करते हैं जिसके गायन का राग बहुत पुरानी और विशिष्ट है। समवेत स्वर में इसका गायन दुर्गा सप्तशती के पठन से कम रोमांचक नहीं। जहां बंगाल में षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी तक माँ की पूजा चलती है वहीं तमिलनाडु में यह प्रथमी से ही शुरू हो जाती है और प्रतिदिन स्त्रियाँ ललिता सहस्रनाम भी पढ़ती हैं। वास्तव में स्त्रियाँ इस काल में आध्यात्मिक सौंदर्य से भरीं आर्थिक समृद्धि हो ना हो समृद्ध दिखाई देती हैं। जहां संस्कृति है वहाँ मर्यादा है, वीरता भी, क्षमता भी। इसीलिए भारत में संस्कृति, कला और धर्म को साथ-साथ लेकर चलते हैं। तीनों में संतुलन बना रहा तो हम बचें। धन पर्याप्त न हो पर संस्कृति की चेतना जागृत रहे तो गर्त में गिरने से बचा जा सकता है पर संस्कृति न हो तो गर्त में गिरना अवश्यंभावी है। धर्म और संस्कृति दोनों नैतिक मूल्यों को साथ लेकर चलते हैं।
कुछ और अगली बार…….
राधा जनार्धन
वरिष्ठ साहित्यकार
त्रिवेंद्रम, केरल