भूदान आंदोलन के प्रणेता – आचार्य विनोबा भावे
भारत में भूदान तथा सर्वोदय आन्दोलनों के लिए सुपरिचित सन्त विनोबा भावे भगवद गीता से प्रेरित जनसरोकार वाले नेता थें। वे महात्मा गाँधी से बहुत प्रभावित थे तथा गाँधीजी के साथ उन्होंने देश के स्वाधीनता संग्राम में बढ़ चढ़कर भाग लिया था। सन्त स्वभाव के बावजूद उनमें राजनैतिक सक्रियता भी थी। उन्होंने सामाजिक अन्याय तथा धार्मिक विषमता का मुकाबला करने के लिए देश की जनता को स्वयंसेवी होने का आह्वान किया।
महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में एक गांव गागोदा में 11 सितंबर 1895 को विनोबा का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम था विनायक था। विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। विनोबा नाम गांधी जी ने दिया था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’ लगाने का जो चलन है, यथा- तुकोबा, विठोबा और विनोबा।
7 जून 1916 को विनोबा भावे गाँधी जी से पहली बार मिले और इतने प्रभावित हुये कि उनका गाँधी जी से अटूट बंधन जुड़ गया। वह गाँधी जी के आश्रम में उनके सभी काम जैसे पठन-पाठन, चरखा कताई तथा जन सेवा आदि करने लगे। 1920 में वर्धा आश्रम के संचालन का कार्य उन्होंने अपने कन्धों पर ले लिया। गांधीजी की तरह सत्य, अहिंसा तथा सत्याग्रह के माध्यम से अंग्रेज विरोधी आन्दोलनों का नेतृत्व किया। इस समय उन्होंने जो साधना, तपस्या और अध्ययन किया, उससे वे संतों की श्रेणी में आ बैठें। इसके अतिरिक्त उन्होंने गांधीजी के अन्य कार्यों जैसी खादी ग्रामोद्योग, बेसिक शिक्षा, सफाई और अन्य रचनात्मक कार्यो में भी पूरी तरह भाग लिया।
अस्वस्थ होने पर गांधीजी के निर्देश पर वह स्वास्थ्य लाभ हेतु वर्धा से थोड़ी दूर पवनार नदी के किनारे इसी नाम के गाँव के एक टीले पर जाकर रहने लगे। जहां उन्हें कुछ स्वास्थ्य लाभ हुआ। उसके बाद से पवनार आश्रम ही उनका प्रमुख केंद्र बन गया।
गांधीजी द्वारा चलाए अनेक सत्याग्रह आंदोलनों में भाग लिया। नागपुर झंडा सत्याग्रह में 1923 में उन्हें 12 महीने का कारावास दंड दिया गया। 1932 में उन्हें ब्रिटिश सरकार का विरोध करने के अपराध में जेल जाना पड़ा। जेल में विनोबा भावे ने अपनी मातृभाषा मराठी में साथ के दूसरे कैदियों को एकत्र करके गीता पर शृंखलाबद्ध प्रवचन किए। बाद में यही प्रवचन उनकी पुस्तक ‘गीता प्रवचन’ में संकलित होकर प्रकाशित हुए तथा सभी भारतीय भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ।
विनोबा जी हरिजनों के मानसिक और सामाजिक स्तर सुधार के सतत प्रयत्नशील रहे एवं हरिजनों को मन्दिरों में प्रवेश दिलवाने के लिए प्रयत्न करते रहे। इस कारण उनका बहुत विरोध हुआ क्योंकि धर्मान्ध और रूढ़िवादी लोग नहीं चाहते थे कि हरिजन भी सवर्णों के समान मन्दिरों में प्रवेश करे। एक बार मन्दिर के एक पंडे ने एक भाड़े के लठैत से उन पर आक्रमण करवा दिया जिसमे विनोबा जी घायल हो गये और जीवन भर के लिए उनकी श्रवण शक्ति समाप्त हो गयी।
1940 में प्रथम सत्याग्रही के रूप में विनोबा ने अपना भाषण पवनार में दिया। 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आन्दोलन के सिलसिले में जेल चले गये। 9 जुलाई 1945 को जेल से रिहा होकर पवनार आश्रम का भार पुनः अपने कन्धों पर ले लिया।
विनोबा भावे का ‘भूदान आंदोलन’ का विचार 1951 में जन्मा, जब वह आन्ध्र प्रदेश के गाँवों में भ्रमण कर रहे थे। भूमिहीन अस्पृश्य लोगों या हरिजनों के एक समूह के लिए जमीन मुहैया कराने की अपील के जवाब में एक जमींदार ने उन्हें एक एकड़ जमीन देने का प्रस्ताव किया। इसके बाद वह गाँव-गाँव घूमकर भूमिहीन लोगों के लिए भूमि का दान करने की अपील करने लगे और उन्होंने इस दान को गांधीजी के अहिंसा के सिद्धान्त से संबंधित कार्य बताया। इस आंदोलन में जमीनदारों ने उनके जमीन का छटवां हिस्सा उन्हें दान में देना, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है, ऐसी विनोबा ने मांग की। बाद में उन्होंने लोगों को ‘ग्रामदान’ के लिए प्रोत्साहित किया, जिसमें ग्रामीण लोग अपनी भूमि को एक साथ मिलाने के बाद उसे सहकारी प्रणाली के अंतर्गत पुनर्गठित करते। इस कार्यक्रम में विनोबा, पदयात्री की तरह गाँव-गाँव घूमे और इन्होंने लोगों से भूमिखण्ड़ दान करने की याचना की, ताकि उसे कुछ भूमिहीनों को देकर उनका जीवन सुधारा जा सके। 1951 से 1964 तक 14 साल विनोबा ग्रामदान के आंदोलन के लिये देशभर पैदल घूमे। उम्र के 55 से 68 साल में 40 हजार मील चलकर उन्होंने देश का बड़ा सवाल जनता के पास जाकर सुलझाने का प्रयास किया। ग्रामदान, संपत्तिदान ये आंदोलन चलाये और दूसरी तरफ कंचनमुक्ति, ऋषिशेती जैसे खेत के विषय में प्रयोग भी किये। उनका यह आह्वान कितना प्रभावी रहा, वह आश्चर्यचकित करता है।
विनोबाजी का दिया हुआ ‘सब भूमि गोपाल की’ का नारा उस समय में भारत में बहुत गूंजा। वे खुद को विश्व नागरिक समझते थे इसी लिए अपने किसी भी लेख अथवा संदेश के अन्त में वो ‘जय जगत’ ऐसा लिखते थे। उन्होंने हिंदू के धर्म ग्रथों के जैसे ही मुस्लिम, और ईसाई धर्म ग्रंथों का भी उन्होंनें अध्ययन किया। लोगों-लोगों में का फर्क भुलकर शांति और प्रेम का मार्ग दिखाने वाले विश्वधर्म की स्थापना होनी चाहिये इसलिये विनोबाजी ने सर्वोदय की योजना बनायीं।
गांधीजी की हत्या के बाद देश के महान सुधारक नेता के रूप में विनोवा भावे उदय हुआ। देश के अनेक बड़े बड़े नेता और प्रधानमंत्री समय समय पर आध्यात्मिक और सामाजिक तथा अनेक बार राजनीतिक समस्याओं के परामर्श के लिए उनके पास जाते रहे। विनोबा भावे की जन नेतृत्व क्षमता का अंदाज इसी घटना से लगता है कि इन्होंने चम्बल के डाकुओं तक को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित किया और वह विनोबाजी से प्रभावित होकर आत्म-समर्पण के लिए तैयार हो गए।
अपनी अनुपयोगिता को देखते हुए जीवन के अंतिम दिनों में विनोबा भावे ने जैन-शैली में खान-पान त्यागकर निर्वाण की तैयारी की। 14 नवम्बर 1982 को उनकी हालत बहुत खराब हो गयी। तब तक उन्होंने पानी भी लेना त्याग दिया था। 15 नवम्बर को उनके प्राण अनंत में विलीन हो गये। विनोबा भावे के इन्हीं सामाजिक सरोकारों के दायित्वपूर्ण कामों के लिए 1958 में उन्हें सामुदायिक नेतृत्व का पहला मैग्सेसे पुरस्कार तथा मृत्योर्परांत 1983 में भारत रत्न प्रदान किया गया।
सादर भावपूर्ण शब्दांजलि।
डॉ नीरज कृष्ण
साहित्यकार
पटना, बिहार