माँ तुम कितना झूठ बोलती हो
माँ तुम कितना झूठ बोलती हो , हाँ माँ तुम कितना झूठ बोलती हो
बुखार में तपती भी होती हो , पर फिर भी काम करती रहती हो
कहाँ है बुखार कहके हमसे , माँ तुम कितना झूठ बोलती हो
परदे बंद करके रोशनी ढक के , हमें आराम से सुला देती हो
सो जा अभी सुबह नहीं हुई है कहके , माँ तुम कितना झूठ बोलती हो
अपने हिस्से का खाना भी बच्चों को खिलाकर, मेरी भूख मर गयी कहती हो ।
बच्चों को खाते देख कितनी तुम खुश होती हो , माँ तुम कितना झूठ बोलती हो
कुछ नहीं रखा है बोल के मुझ से ,बैग में मेरी पसंद का सामान तुम रख देती हो ।
कितनी भी मोटी हो जाऊँ कमजोर ही तुम बोलती हो, माँ तुम कितना झूठ बोलती हो
मेरी हर बात पर खुश हो जाती हो फेल होने पर भी पास तुम बताती हो
तारीफ़ ज़माने में मेरी कर के जो इतना तुम इतराती हो, माँ तुम कितना झूठ बोलती हो ।
मेरे लिए नए नए कपडे ला कर मेरी अलमारियां तुम भर देती हो
मेरे पास तो अभी चार नई साडी पड़ी हैं कहके,
अपने लिए कभी कहाँ कुछ तुम लेती हो ,माँ तुम कितना झूठ बोलती हो
अपने कामों में भूल जाऊ फोन करना भी पर तुम मुझे कब भूलती हो ।
मेरी चिंता में दिन रात एक कर देती हो माँ तुम कितना झूठ बोलती हो
हम सब की फ़िक्र में उदास होकर,सोच सोच अपनी तबियत खराब कर लेती हो
मैं तो सही हूँ बिलकुल ,मुझ से यही तुम कहती हो ,माँ तुम कितना झूठ बोलती हो ।
अपने को होशियार तुम समझती हो पर माँ हिसाब में तुम कितनी कच्ची हो
दिए को कभी याद नहीं रखती हो ,देकर सब मुझे तुम सब भूल जाती हो
माँ तुम कितना झूठ बोलती हो । हाँ माँ तुम कितना झूठ बोलती हो ।
शालिनी वर्मा
ग्लोबल ऐम्बैसडर गृहस्वामिनी पत्रिका
कतर , दोहा