माँ
मां! मां! मुझे तुमसे कुछ कहना है
आईने में जब-जब
निहारती हूँ ख़ुद को
मैं स्वयं में बस
तुम्हारी ही छवि पाती हूँ
स्वयं के प्रति तुम
होती थी लापरवाह जब
काम और व्यस्तता का
देकर हवाला तुम
निपटाकर चौके चूल्हे के काम को
नहा धोकर और
पूजा का थाल सजाकर तुम
माथे पर बिंदिया और मांग को
सुहाग सिंदूर से दमकाकर तुम
लंबे केशों का यूँ ही
बेतरतीब जूड़ा बनाकर
अपने छोटे से संसार में
हो जाती थी व्यस्त तुम
मेरी शिकायत पर
मुस्कुराकर हौले से
सिर पर लगा कर
हल्की सी चपत तुम
“गुड्डी! गृहस्ती की भला तुझे समझ कहाँ?
एक दिन धीरे-धीरे तू भी समझ जाएगी”
माँ! तुम ऐसा बोला करती थी….
प्यार,समर्पण और संस्कार की
सौंपकर धरोहर तुम
इस संसार सागर से
पा चुकी हो मुक्ति तुम
आज जब-जब आईने में
ख़ुद की छवि निहारती हूँ
अपने अस्त-व्यस्त से रूप में माँ
बस तुम्हारी ही छवि पाती हूँ
बस तुम्हारी ही छवि पाती हूँ….
रत्ना मानिक
माँ!तुम मेरे अंतर्मन में
सदैव ज्योति-पुंज सी जगमगाती रहो
अपने आशीर्वचनों से मुझे सदा मार्ग दिखलाती रहो …
डॉ रत्ना मानिक
जमशेदपुर, झारखंड