मंजु श्रीवास्तव ‘मन’ की कविताएं

मंजु श्रीवास्तव ‘मन’ की कविताएं

१.चाँद 

चाँद के रूप का क्या कहना है ,

चाँद आसमां का गहना है ,

रात निखरती चाँद के संग में,

क्योंकि वह उसकी बहना है।

 

चाँद न होता, अमा न होती,

बस तारों की सभा ही होती,

बुझा बुझा सा गगन सिसकता,

कभी रात फिर जवाँ न होती ।

 

सागर में फिर ज्वार न होता,

यौवन का उन्माद न होता,

किसे देख कर कस्में खाते,

प्रियतम से संवाद न होता।

 

किसको देख के विरहन गाती,

कासिद वो फिर किसे बनाती ,

चाँद में ही तो प्रियतम दिखता ,

किसे निरख कर वो हर्षाती?

 

चाँद ना होता ईद ना होती,

व्रत की कोई रीत न होती,

करवा चौथ कहाँ फिर मनता,

पति की लम्बी उम्र न होती ।

 

चंद्रयान ने चाँद पे जाकर,

विक्रम ने रोवर उतारकर,

तोड़ दिये हैं कितने ही भ्रम,

गड्ढे मिट्टी वहाँ दिखाकर।

 

कौन कहेगा चाँद सा मुखड़ा,

चाँद का है अब तो यह दुखड़ा,

कैसे अब कवि भरमायेंगे,

चाँद तो निकला उखड़ा-पुखड़ा।

 

चाँद से पर मन का नाता था ,

वह शिव के सिर पर सजता था ,

गहराया वैज्ञानिक रिश्ता,

जो बस आस्था का प्रतीक था।

२.कैसे कह दें हैं स्वतंत्र हम 

सोने की चिड़िया कहलाता भारत देश हमारा था।

राम और सीता , कृष्ण की गीता , वेदों का व्यख्याता था।

गद्दारों के कारण खोई थी आज़ादी हमने,

टुकड़ों टुकड़ों में बंट गए थे देख थी बर्बादी हमने।

एक हुये कुछ क्रान्तिवीर फिर अलख़ जगी आज़ादी की,

अपनी जान गवां कर रोशन करी मशाल आज़ादी की।

कहने को आज़ाद हो गए जश्न मना आज़ादी का ,

पर हमने मतलब कब जाना, क्या होता आज़ादी का।

स्वतन्त्र नहीं , स्वच्छंद हो गए भूल गए सब नैतिकता ,

भूल गए कमज़ोर वर्ग को, मन को भाई भौतिकता।

नहीं सुरक्षित आज भी नारी, व्यभिचारी स्वच्छंद घूमते।

कैसे कह दें हैं स्वतंत्र हम, जाति- धर्म में बटते रहते।

रावण को हर वर्ष जला कर , करें बुराई का हम नाश,

पर अंदर के रावण को मारे जब , तब जागे विश्वास।

हों स्वतंत्र जब अनाचार से,

हों स्वतंत्र जब झूठ दम्भ से,

हो स्वतंत्र जब द्वेष भाव से ,

दमड़ी को जब दें महत्व न,

चमड़ी को जब दें महत्व न,

देश की गरिमा हो न खन्डित,

झूठे न हों महिमा मंडित ,

रोक सकें जो जयचंदों को,

झूठ फरेबों के फंदों को ,

हर घर में जब बच्ची होगी,

और ख़ुशी भी सच्ची होगी,

तब स्वतंत्रता सच्ची होगी , तब स्वतंत्रता सच्ची होगी ।

मंजु श्रीवास्तव’मन’

वर्जीनिया,अमेरिका

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