बर्तन वाली
“ले आशा ,अब गिन ले कपड़े और 12 गिलास दे दे इनके बदले ,,,”
आशा ने सधे हुए हाथों से कपड़ों को समेटा, पारखी आँखों ने कपड़ों में महीन से छिद्र को भी किसी जासूस की तरह ढूँढा, गिनती की और बोली, “भाभी, जे तो भौत कम हैं जी । क्या भाभी, कोई निकालो न अच्छी अच्छी साड़ियां दो चार। इन मे तो न बना सकूँ मैं सौदा।“
कपड़ों को हाथ से एक तरफ सरका कर बैठ गई ।
ज्यादा माथापच्ची का मन मेरा था नहीं, तो दो चार पुराने कपड़े और दिये और गिलास ले लिए। एक गिलास शर्बत पिलाया उसे और विदा किया।
भीतर आने को थी कि पड़ोस की मीरा आ गई। बर्तनों का टोकरा सिर पर धरे जाती हुई आशा को देख कुछ हिकारत के भाव आ गये उसके मुख पर।
आँखे फैला कर बोली, “अरे भाभी जी, आप इन से बर्तन खरीदती हैं क्या? हमारे तो बस की बात नहीं है इनसे बर्तन लेना। इतनी चिकचिक करतीं हैं, इतना मोलभाव, तौबा तौबा।”
“अरे मीरा जी, इतने पुराने कपड़े इकट्ठे हो रहे थे, सोचा इन्हें निकाल कर कुछ बर्तन ले लूँ।” मैंने कहा
मीरा तपाक से बोली, “अरे भाभी जी, इसमे क्या बड़ी बात है। हम तो पुराने कपड़े अपनी काम वाली को दे देते हैं। कुछ पुण्य भी हो जाता है उससे। इन लोगों को तो ढेर कपड़े दो तो दो चार कटोरी दे देती हैं। पहले ही इतना बर्तन है ऊपर से इनसे मोल भाव, न बाबा हम तो इनके मुंह नहीं लगते ”
मैं ने कहा, “देखिए, आपकी बात ठीक होगी पर मुझे इनसे बर्तन लेने में भी कोई बुराई नज़र नहीं आती, सो ले लेती हूँ। कम से कम मेहनत करके कुछ कमा तो रही हैं ये औरतें। किसी के आगे हाथ तो नहीं फ़ैलातीं। मुझे लगता है मेहनत करने वाली औरतों को हमें प्रोत्साहित करना चाहिये। हाँ अगर बर्तनों की जरूरत ही नहीं है तो और बात है।”
कह कर मैं अंदर आ गयी ।
आशा को पिछले 20 बरस से देख रही हूँ ये काम करते हुये।
बर्तनों का बड़ा सा टोकरा सर पर और एक बाँह पर पुराने कपड़ों की गठरी टांगे, पान चबाते हुए, बड़ी सहजता से अपने व्यापार क्षेत्र में उतरती रोज। 40 के आस पास की होगी।
मोटा मोटा काजल आँखों में, ठुड्डी पर तिकोना 3 बिंदियों का गोदना, नाक में नग वाली लौंग, लम्बा कद, सुघड़ बदन, किसी समय बहुत खूबसूरत रही होगी। अब तो जीवन की मशक्कत चेहरे पर झलकने लगी थी।
बर्तन लेलो, स्वर थोड़ा कर्कश था पर खूब बुलन्द। जब ऊंची आवाज़ में गुहार लगाती तो ऊंची इमारतों की कई मंजिलों को छू जाता स्वर।
मुझे बहुत सालों से बर्तन दे रही है। ये बात सही है कि इस सौदे में सारा घर फैल जाता है, कई अलमारियों को खंगालना पड़ता है, तिस पर, “और, और, बस चार पाँच कपड़े और,” की फरमाईश से कभी कभी खीज भी आ जाती है।
मुझ से ज्यादा मेरी सासू मां को,जो ज्यादातर घर पर ही रहतीं, ये ख़रीददारी खूब भाती। कपड़ों को ध्यान से गिनती, मोल भाव करतीं, बर्तनों को ठोक बजा कर परखतीं। दो घण्टे तो उनके अच्छे से बीत जाते।
भीतर आ कर मीरा की बातों को सोचने लगी।
क्या बुराई है इनसे बर्तन लेने में? एक जुझारू स्त्री अपनी मेहनत के बल पर कुछ कमा रही है तो उससे समान खरीदने में क्या हर्ज़ है?
आज हम सब बड़ी बड़ी दुकानों से महंगे सामान खरीदने के आदि होते जा रहे हैं, क्या इन से सामान लेने से शायद सामाजिक प्रतिष्ठा कम होने की आशंका होने लगती है लोगों को?
मेरी नज़र में तो ऐसे लोगों से खरीददारी करना समाज को आत्मनिर्भर बनाने में एक छोटा सा योगदान है। रही बाद पुराने कपड़ों किसी को दे कर पुण्य कमाने की, तो उसके और भी कई बेहतर तरीके हैं।
सोच को एक तरफ झटक अपनी नई कटोरियां मैंने करीने से अलमारी में सजा दीं।
उमंग सरीन
दिल्ली,भारत