मजबूत भारत मे मजबूर मजदूर
प्रत्येक नेता का एक चेहरा है, प्रत्येक पूंजीपति का भी एक चेहरा है। फ़िल्मी नायक नायिका तो हैं ही सिर्फ चेहरे। और तो और प्रत्येक मुल्क का भी एक चेहरा होता है। अब चेहरे हैं तो चेहरे का कोई भाव भी होगा। भाव मतलब भाव भंगिमा और भाव मतलब मूल्य। चेहरा है तो चेहरे के हिसाब से आपको पहचाना भी जाता है। आज विश्व मे मुकेश अम्बानी एक चेहरा है, नरेंद्र मोदी एक चेहरा है। भारत भी विश्व में एक बड़ा चेहरा है।
क्या मजदूर का भी कोई चेहरा है? क्या आप अपने शहर के घंटाघर चोक से गुजरते हुए, लेबर चोक से गुजरते हुए एक भी मजदूर को पहचानते हैं? कितनी ही बार आप गुजरे होंगे उधर से। आप महानगर में हजारों मजदूरों को काम पर लगे देखते हैं, किसी एक मजदूर का चेहरा पहचानते हैं उनमें? आप ने अपने घर मे फैक्ट्री में लेबर से काम करवाया होगा। काम से चले जाने के बाद कितने समय तक चेहरा याद रहा मजदूर का?
मजदूर का दरअसल कोई चेहरा नही है। अर्थशास्त्र में इसे लेबर कहते हैं। लेबर बहु संख्या का प्रतीक है। अर्थशास्त्र में लेबर औऱ मटेरियल जैसे निर्जीव शब्द हैं। निर्जीव शब्द आपके औऱ हमारे जीवन से सम्वेदना को कैसे चबा जाते हैं इसका जीता जागता उदाहरण बिना चेहरे वालों की यह दुर्गति है। मुकेश अंबानी नरेंद्र मोदी औऱ भारत जैसे बड़े चेहरे वाले इस मुल्क में ये बिना चेहरे वाले इनके चेहरे के लिए ईंधन होते रहते हैं, इन्हें फ़र्क नही पड़ता।
विडंबना है कि कोरोना के बाद हम भी, जो आजकल उद्वेलित हैं, हम इनके चेहरे भूल जाएंगे। रोज जिन्हें फेसबुक पर देखते हैं बैल गाड़ी में जुते हुए, रास्ते मे बच्चा जनते, मरे बच्चे को बग्घी में डालकर खींचते। पालकी, छकड़ा, जूस वाली मोटर, ट्रक ट्राली में ठूंसे लोग देखकर आज हमारा कलेजा बाहर आता है लेकिन हम जल्द इन्हें भूल जाएंगे। कुछ समय बाद ये चित्र, या इनके चलचित्र अभिनीत होंगे और ये बड़े पर्दे पर पैसा कमाने के टूल बने होंगे। मजदूर अपने जीवन की त्रासदी टिकट खरीद कर देखेगा, रोयेगा। और जो चेहरा एक्टिंग करेगा वह रुपये बटोर रहा होगा। मजबूत राष्ट्र में बिना चेहरे वाले कैसे पिटते हैं, लुटते हैं, मरते हैं यह अपने बच्चों को पढाईये। मजबूत राष्ट्र कुछ बड़े चेहरों को ढोता है, बहुत सारे बिना चेहरे वालों के कंधे प्रयोग करता है।
अभिनय करने वाले नेता, पूंजीपति, नायक हमारे जीवन मे कितनी जगह रखते हैं यह अकल्पनीय है। अकल्पनीय यह भी है कि इन बड़े चेहरों ने बिना चेहरे वालों के आंसू कभी नही पोंछे। बिना चेहरे वालों के आँसु दिखाई कैसे दें। उनकी गाल आंख दिखे तब ही तो दिखें आंसू। लेकिन कटु सत्य यह है कि जिस विकास की डींग हांक हांक कर आपने अपने चेहरे स्थापित किये हैं, वह विकास इन बिना चेहरे वालो की वजह से है।
जो सड़के हैं, पुल हैं, मॉल हैं, हवाई अड्डे हैं आपके ऊंचे भवन हैं, संसद है जिसमें बैठकर आप अपने चेहरे उभारते हैं, अदालतें हैं, राज भवन है, सचिवालय हैं जहां बैठकर आप मुल्क का चेहरा निर्मित करते हैं वे सब किसने बनाये हैं। यह मजबूत राष्ट्र किसने बनाया है। इसमे किसका श्रम लगा है। श्रम की कीमत क्या है। आपने इनके श्रम का क्या मूल्य लगाया। यह कि इन्हें सम्भाला तक नही गया। तब तक नही सम्भाला गया जब तक इनका रुदन आम नही हो गया। आपको सुविधा है कि देश का मीडिया आप सरकार की चिरौरी में लगा रहता है। वह ग्राउंड रिपोर्टिंग नही करता इन बरसो में। वह नजरबन्दी करता है जनता की। सरकार खुद क्या मीडिया की नजरबन्दी के धोखे में आ गयी है कि अल्टरनेटिव मीडिया जब तक समस्या के बारे में चीख चीख़ कर नही बताता, यह निजाम हरकत में नही आता। यह अनैतिकता है दरअसल। 6 साल से आप केंद्र की सत्ता में हैं, 15 बरस से आप गुजरात मध्यप्रदेश में सत्ता में हैं। छत्तीसगढ़ में आप लगातार काबिज रहे। राजस्थान में आते रहे हैं आप। देश के लभगभ तमाम राज्यों में आप हैं लेकिन आरोप प्रत्यारोप स्कूली बच्चों जैसे हैं आपके कि पिछली सरकारों ने नही किया। भई आप सरकार हैं अब। लोकबन्दी आपने की है। आपको मालूम था कि लोकबन्दी लम्बी चलेगी । आपके सूत्र बताते हैं आपको कि 9 करोड मजदूर और तीन करोड़ विद्यार्थी 15 दिन का ही लोक डाउन सह सकेंगे। सरकार को उसी 15 दिन में इनके लिए टास्क लेना था जबकि टास्क जनता को दिए गए कि तुम ताली थाली बजाओ। यह अनैतिकता है दरअसल।
नोटबन्दी का दर्द जनता को हुआ, हासिल निल बट्टा सन्नाटा, मीडिया न बताये तो क्या आपको मालूम नही होता कि आपके अनियोजित फैसले जनता में घाव बन कर बरसो रिसते हैं। लोकबन्दी के घाव क्या मजदूर जीवन भर भी भूल पाएंगे? बीस लाख करोड़ में इन मजदूरों के लिए कोई क्षति पूर्ति, बीमा, कैश योजना नही। कोई मुआवजा नही कि तीन माह अर्थव्यवस्था बन्द रही तो आपको यह कैश दिया जाएगा। यह कैसी व्यवस्था है सरकार जी। व्यवस्था संवेदनशील होनी चाहिए। आपके मंत्री, आपकी पुलिस आपका टोटल निजाम तो सम्वेदना की भाषा तक नही बोलता।
मजबूत राष्ट्र इन मजदूरों को हवाई जहाज में भी इनके घर छोड़कर आता तो कम था आखिर मजदूर के श्रम की कोई कीमत थोड़े ही न होती है। वह तो बेशकीमती है लेकिन आप उनके लिये न पूरी ट्रेन लेकर आये न बसें। आज लेख लिखे जाने तक 72 लाख मजदूर पंजीकरण करवा कर वेटिंग में हैं कि सरकार उन्हें इनके घर पहुंचाएगी। करोड़ो मजदूर अभी टिके हैं किसी लेबर सहारे। सेंकडो मजदूर रास्ते मे मर गए। उन्हें लूटा गया, पीटा गया उन्हें हरामखोर कहा गया, मूर्ख जाहिल जिद्दी गुसैल कहा गया। अदालत में सरकार कहती है कि वे गुस्से में निकल गए। गुस्से औऱ मजबूरी में तो अन्तर किया होता सरकार जी। शब्द चयन की आपकी अदालती समझ बढ़िया है। शब्द चयन की मानवीय समझ भी तो कुछ होती है।
कुल जमा जोड़ यही है कि लोकबन्दी ने प्रवासी मजदूरों को खून के आंसू दिए हैं। बतौर कवि-
पांव की सबसे छोटी उंगली
सबसे कम मिट्टी कुरेदती है
सबसे कम जगह में सिमट जाती है
सबसे अधिक बोझा उठाती है पांव का
दबी दबी सहमी सहमी सहमी रहती है जूते में भी
जूते की सीवन लेक़िन
सबसे पहले
वही तोड़ती है
अलर्ट रहिये सरकार जी। छोटी उंगली जूते की सीवन तोड़ने की अपनी हद तक मजबूर है।
वीरेंदर भाटिया
साहित्यकार
सिरसा,हरियाणा