गाँधी गुब्बारे वाला
वो देखो देश के कर्णधारो,
गाँधी गुब्बारे वाला!
चला आ रहा है,
फट फटिया पर,
बिन लाठी और लोटा,
अरे यह तो
विद्वान विचारक
राष्ट्र पिता हुआ करता था!
व्यवसाय बदलकर
विक्रेता क्यों बना?
वो भी गुब्बारों का?
हाँ पूछा था मैंने
जुटाकर हिम्मत तो,
बेचारा बिफर पड़ा,
और कहने लगा,
मेरी शिक्षा और विचारों को,
गुब्बारा ही तो बना दिया,
जिससे बच्चों को बहलाते हो,
खुश होकर उड़ाते हो,
फूट जाए गुब्बारा तो तालियों से जश्न मनाते हो,
फिर क्यों ना बेचूं मैं गुब्बारा?
जगह कहाँ दी है ?
दिल में नहीं नोट पर!
सुन लो मेरी एक बात,
गाँधी तब बनता है,
जब सामने चर्रचिल हो,
गोडसे के देश में तो,
जहाँ प्रार्थना मे गोली हो
गुब्बारे का विक्रेता ही अच्छा हूँ ।
कमसकम सपने और गरीबी तो नहीं बेचता?
हाँ अब तो मैं,
गाँधी गुब्बारे वाला हूँ!
कुमुद अनुन्जया