दो शब्द प्रेम के नाम

दो शब्द प्रेम के नाम

नई दुनिया की नई रंगत, कब फरवरी का माह प्रेम को अर्पित हो गया और वह भी एक विशिष्ट खोल में लिपटा हुआ, पता नहीं, पर प्रेम तो शाश्वत है, इतना व्यापक कि एक पल भी जीवन का धड़कना प्रेम के बगैर संभव नहीं। सृष्टि अगर सृजन से जुड़ी है तो सिर्फ और सिर्फ प्रेम की उपस्थिति के कारण ही। प्रेम स्व से प्रारंभ हो रिश्तों की सीमाएँ तोड़ राष्ट्र, विश्व समुदाय, प्रकृति के कण-कण में अपनी उपस्थिति की घोषणा करता है। इसलिए जहाँ प्रेम रिश्तों की कोमलता से भी व्याख्यायित होता है,वहीं राष्ट्रभक्ति और मानव कल्याण में बस कर अपनी शुचिता की सुगंध से अनादि काल से सभ्यता संस्कृति को सुवासित करता रहा है। प्रेम का आश्रय लेकर ही सभ्यताएँ फली- फूलीं और जीवन के प्रति प्रेम ने ही आदि मनुष्य को जीवन जीना सिखाया, अपनी जरूरतों का समाधान ढूँढने की दृढ़ इच्छा शक्ति जीवन जीने की चाह के प्रति प्रेम से ही उत्पन्न हुई होगी।इसी प्रेम के वशीभूत हो भगत सिंह जैसा दीवाना नौजवान ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गाते हुए फाँसी के फंदे को चूम उठता है, प्रेम का यही अध्यात्म मीरा के होठों को विष के प्याले का स्पर्श करवा देता है, इसी प्रेम के वशीभूत हो मदर टेरेसा अपनी मातृभूमि से दूर आ अपनी कर्मभूमि में अपने संपूर्ण जीवन को ‘मिशनरी ऑफ चैरिटीज ‘को समर्पित कर देती है, इसी प्रेम का जादू जब सर चढ़ता है तो संतोष बाबू जैसे सैन्य अधिकारी गलवान की घाटियों में देश की सीमाओं की रक्षा करते हुए अपनी शहादत दे देते हैं, यह वही प्रेम है जो दशरथ मांझी को अपने छेने-हथौड़े के साथ एक भीमकाय पहाड़ को चुनौती दे देने की जीवट संकल्प शक्ति दे देता है, यह प्रेम ही तो है जिसे अपनी नजरों में भरकर किसान अपनी लहलहाती फसल को देखता है, इसी प्रेम के वशीभूत हो सूरदास जैसा अंधा भक्त अपने अंतर्दृष्टि से ईश्वर के रूप- गुण को देख उसे अपने पदों में गा उठता है,यह प्रेम ही तो है जो विदेशी धरती के पदक स्टैंड पर खड़ी हिमा दास की आँखों में राष्ट्र धुन को सुनकर आँसुओं के मोती जगमगा देता है,किसी भाषा के प्रति विशेष प्रेम फादर कामिल बुल्के को एक विदेशी होकर भी माँ हिंदी के चरणों में अपनी सेवा समर्पित करते हुए शब्दकोष बनाने की प्रेरणा दे देता है ,यह प्रेम ही सीमा पर शहीद हुए किसी वीर सैनिक की वीरांगना विधवा को रक्षा सेवा में शामिल हो तिरंगे को सम्मान देने के लिए प्रेरित कर देता है। साथ ही,उत्तराखंड की पहाड़ियों में ग्लेशियर विस्खलन से हुई दुर्घटना में पीड़ितों को बचाने के लिए लगे आपदा प्रबंधन कर्मचारी और सैनिकों के राहत कार्य को उनके कर्तव्य और मानवता के प्रति प्रेम से कैसे जुदा करके देखा जा सकता है।

प्रेम की अनुपस्थिति में कभी कुछ सकारात्मक हुआ ही नहीं। जहाँ कहीं भी शोषण है, छल- प्रपंच,अत्याचार- अनाचार है-प्रेम की अनुपस्थिति के कारण ही। अगर लाल किले पर राष्ट्रीय झंडे से छेड़-छाड़ देशप्रेमियों की भावनाओं को आहत करता है, तो यह राष्ट्रप्रेम की अनुपस्थिति का दुखद उदाहरण ही है । किसी भी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर अतिक्रमण या उसकी कोशिश विश्व शांति, सौहार्द्र और परस्पर आदर के प्रति प्रेम की अनुपस्थिति की ही घोषणा करता है।

प्रेम तो एक मुस्कान की उज्जवलता के साथ दूर तक प्रकाश की एक रेखा खींच देता है , अपने सहज आचरण की परिधि में अजनबियों को भी चुंबक की तरह खींच लाता है, इसके श्वेत चरित्र में कर्तव्यपरायणता मसीहा का रूप धारण कर लेता है, अपने उदात्त स्वरूप में यह विचारों को ओस के बूँद की तरह निष्कलुष बना देता है,अपनी व्यापकता में यह संकीर्णता की दीवारों को ढाह देता है, अपने वेग में यह अहं , स्वार्थ और उस जैसी सारी नकारात्मकता को बहा ले जाता है और यहीं से प्रशस्त होता है, आत्मिक शांति का मार्ग, अभौतिक सुख- संतोष का मार्ग, कल्याण का मार्ग। अपने सीमित अर्थों में प्रेम जहाँ आशा, अपेक्षा, समर्पण,परवाह, सुख, दु:ख, दर्द ,खुशी को समेटे हुए है; वही विस्तृत अर्थ में शुचिता, प्रकाश, कल्याण, एकाकार की भावना,अध्यात्म, मोक्ष का हमराही है। तभी तो कबीर गा उठते हैं-

“प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई ॥
प्रेम पियाला जो पिये शीश दक्षिणा देय !
लोभी शीश न दे सके,नाम प्रेम का लेय !!
जब मैं था तब गुरु नहीं,अब गुरु हैं हम नाय !
प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय !!”

भारतीय संस्कृति तो अनादि काल से प्रेम की आधारशिला पर ही खड़ी है । इंदीवर के बोल इसी सत्य को गा उठते हैं-“है प्रीत जहाँ की रीत सदा, मैं गीत वहाँ के गाता हूँ।” अपने पुत्र चंदन की बलि देकर राणा सांगा के पुत्र राणा उदय सिंह की प्राण रक्षा करने वाली पन्नाधाय का बलिदान तो राष्ट्रप्रेम के रंगों में ही तो रंगा है,तो धर्म की दीवार गिरा कृष्ण की अनन्य भक्ति का गीत गाने वाले रसखान को प्रेम की प्रतिमूर्ति कैसे नहीं माना जा सकता।आँधी में किसी विशाल वृक्ष को अपनी जड़ों से उखड़ा देख या विकास कार्यों के नाम पर घनी छाँव देने वाले मोटे तने से युक्त वृक्ष को कटता हुआ देखकर हृदय में उत्पन्न पीड़ा में प्रकृति के प्रति प्रेम की ही अवस्थिति है, यह प्रेम तो पृथ्वी से है, अपनी आने वाली संपत्तियों से है।

प्रेम केवल गुलाब तक ही सीमित न रहे, केवल कुछ शब्दों की सीमा में ही जकड़ा न रहे अपितु प्रेम को आस्था, विश्वास, श्रद्धा चाहे जिस नाम से पुकार लें यह अपने हर स्वरूप में ईश्वर की तरह सत्य है। प्रेम है तो पत्थर की प्रतिमाओं में ईश्वर है, प्रेम का अस्तित्व है तो रामायण, गीता, गुरु ग्रंथ साहिब और कुरान शरीफ में उस परम सत्ता के वचन की सर्वव्यापकता दिखती है। प्रेम की प्रकृति तो स्वार्थ, दंभ, अधिकार के दायरों से बाहर निकलकर एक मासूम शिशु के निस्पृह मुस्कान की तरह निष्कलुष होने में है।प्रेम तो पवित्रता का पर्याय है, बस समर्पण का दूसरा नाम है , जहाँ व्यक्तिगत लाभ- हानि का समीकरण काम नहीं करता। मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्तियाँ कितनी यथार्थपरक हैं-

दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है ,हा! दीपक भी जलता है!

सीस हिलाकर दीपक कहता–
’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नहीं तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

परंतु प्रेम भी संतुलन की माँग करता है , प्रेम को भी आत्म चिंतन की आवश्यकता है ,प्रेम को भी आत्ममनन की दृष्टि चाहिए।इस संतुलन का अभाव ही किसी व्यक्ति को हिटलर की तरह निरंकुश और तानाशाह बना देता है तो किसी को अपनी अधिकता में इस कदर उन्मादित कर देता है कि मानसिक रुग्णावस्था उसे पागलखाने में ला पटकती है।किसने प्रेम को कैसे ग्रहण किया, यह हमारे व्यक्तित्व पर निर्भर करता है।उन्मादित प्रेम किसी के चेहरे को तेजाब से झुलसा देता है तो कोई उसी तेजाब झुलसे चेहरे को अपने जीवनसाथी के रूप में अंगीकार कर लेता है ।उन्माद का साहचर्य ग्रहण कर प्रेम विध्वंसक हो सकता है, परंतु अपने स्थिर और गंभीर स्वरूप में प्रेम पवित्र, परपीड़ा को अंगीकार करने वाला मंगल और व्यापकता को प्रसारित करते हुए उड़ान भरने का दम रखता है। अपने संकीर्णता में प्रेम अपने ही मूल्य बोध को खो देता है।जहाँ विश्व की सभी भाषाओं के साहित्य में प्रेम के विविध रंगों से अनेक पृष्ठ रंगे गए हैं ,वहीं दूसरी ओर यही प्रेम मौन में भी मुखरित हो उठता है।आइए प्रेम के सौंदर्य को बचाएँ और इस पृथ्वी के सौंदर्य को भी ।

रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड।

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