खूब याद करती हूँ तुम्हे, कभी उदास मत होना

खूब याद करती हूँ तुम्हे, कभी
उदास मत होना

एक

हमारे बड़े होते-होते
छूट गए
कई छोटे-छोटे सुख।

मुट्ठी में छिपाये गए
छोटे-छोटे चॉकलेट
केएफसी और डोमिनो
के पिज्जा-बर्गर से ज्यादा
लजीज थे।

खेल में बार-बार हार कर
मेरे आउट होने पर
तुम्हारा अचानक छोटे से
बड़ हो जाना
और मेरी जगह खेलकर
मुझे जीता देना,

हारना अब भी होता है
पर नही दिखते तुम
कहीं भी आस-पास
बड़े होते-होते
थकने लगे हो शायद तुम भी।

बड़े होते-होते
लड़नी पड़ी है
हम दोनों को अपने-अपने
हिस्से की लड़ाई

और हम खुद के दुखों से
जुझते हुए
इतने बेबस, इतने निराश
हो चले हैं
कि नहीं उठा पाते
एक-दूसरे के दुखों का बोझ
न ही मुस्करा पाते
न ही दिलासा दे पाते
कि बस अब खत्म ही हो जाएगा
ये सब।

हम अपनी-अपनी उदासी छिपाए
रोज मुस्कराने की नाकाम सी
कोशिश में
नहीं देख पाते
सामने-सामने से
एक दूसरे की संवेदनाओं
के ज़ख्म

हम संकोच के नाखून से
चुपचाप खुरचते रहते हैं
बचपन की य़ादों का
मखमली पैरहन।

हमारे हिस्से
हमारे माज़ी के कुछ
छोटे-छोटे बेहद हसीन
लम्हे हैं

जो बड़े होते-होते
किसी एंटीक से सज गए हैं
य़ादों की अलमारी में
ज़िन्हे हम बस
गाहे-बगाहे खोल कर
देख लेते हैं
एक भरपूर नज़र,

और फिर एक लम्बी सांस भरकर
बन्द कर देते हैं
य़ादों की अलमारी
क्योंकि हम जान चुके हैं कि
हमारे बड़े होते-होते
छूट गए हैं
कई छोटे-छोटे सुख।

दो

वक्त की धुंध ने
चाहे कितनी भी धुंधली कर दी हों
हमारे बचपन की हसीन यादें,
पर आज भी हर लम्हा तुम मेरे पास हो

मेरे इतने करीब
कि मैं हर पल महसूस करती हूं
तुम्हारी जीवंतता
तुम्हारे होठों की मुस्कराहट से लेकर
तुम्हारे माथे की शिकन
आज देख सकती हूं
सबसे पहले,

हम चाहे जितने फासलों में रहे
लेकिन तुम आज भी
मन में हो बसे
उस छोटे प्यारे से बच्चे की तरह
जो रोज मेरी उंगली पकड़कर
स्कूल जाते वक्त
हजार फरमाइशें करता
और रोज खेलते वक्त,
हारने के वक्त तुनकता था

पड़ोसी के घर मिली सारी चॉकलेट
अपने पॉकेट में समेट कर
मेरे लिये लाने वाले उस प्यारे भाई को
कैसे भूल सकती हूं
जिसने सिगरेट की पहली कश भी ली
तो मुझे ही बताया

कैसे भूल सकती हूं
छुट्टियों में तुम्हारा घर लौटना
और अपने घर के उस आंगन में
नीम की छांव में रात भर तुम्हारा बतियाना

अपने राजकुमार से भाई को,
रोज-रोज देखकर कभी न थकने वाली
मेरी आंखें
देखो न आज भी
तुम्हारी सुंदर छवि हर पल देखती हैं
मेरे सबसे पहले मित्र तो तुम्ही थे न बाबू

…..और आज भी हो!

तुमसे ज्यादा और कौन मुझे पहचानता है
तुमने हमेशा
मुझे बेशकीमती होने का एहसास दिलाया
तुम्हारी सारी चिट्ठियां
आज भी संभाले हुई हूं

तुम कब मुझसे भी बड़े हो गए,
पता ही नहीं चला,

और हमेशा जिंदगी के कठिन पलों में
तुमने मुझे जो हौसला दिया
आज उसी की बदौलत
मैं जिंदा हूं,

मेरा जीना इस बात का सबूत है
कि बाबू तुम हो
मेरे होने तक,
मैं कैसे भूल सकती हूं
जब एकदम मायूस होकर तुमने मुझसे कहा था –
दीदी
तुम कभी मत मरना
मेरा और कौन है तुम्हारे सिवा

मां, पापा के बाद किसी और ने
मुझे कभी इतना तो नहीं चाहा था,
मेरे पास जीने की जब कोई वजह नहीं बचती
बस तुम्हे देखती हूं

और तुम मेरे जीने की
वजह हो,
हमेशा रहोगे मेरे मन-प्राणों में

कभी भी
अपने परेशान पलों में
अपनी आंखें मूंद लेना
और महसूस करना
मुझे

बाबू,
मैं हमेशा तुम्हारे पास हूं
तुम्हारे साथ हूं
और मेरा कौन है
तुम्हारे सिवा।

तीन

तुम कभी उदास न होना,
तुम कभी निराश न होना,
तब भी नहीं,
जब जीवन के गहनतम अंधेरे में
तुम्हे कुछ न सूझता हो,

या तब,
जब निर्मम स्मृतियां तुम्हे मार डालने लगें,
सभी तुम्हे पराये दिखने लगें,
और हर रिश्ता जब छोड़ने लगे
तुम्हारा साथ,

तब भी नहीं,
तब भी
तुम उदास न होना
तब भी तुम निराश न होना।

मैं हूं
और
हमेशा ही रहूंगी तुम्हारे साथ,
तुम्हारे पास

एक श्रद्धा की तरह,
पूजा और आस्था की तरह
निराकार
भले ही कई बार तुम मुझे देख न पाओ
पर मुझे हर पल, प्रतिपल
जीना, महसूस करना,
अपने चेतन-अचेतन में।

मैं हूं, और रहूंगी
हमेशा तुम्हारे पास,
तुम्हारे साथ,

बस तुम
बचाए रखना अपना हौसला
और मेरे भी सपने।

रंजीता सिंह
साहित्यकार और संपादक
देहरादून, उत्तराखंड

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