और भेड़िया सच में आ गया
“क्याआ आ–!
सच में!, ऐसा कैसे हो सकता है? दो दिन पहले तो मैं शुभ्रा से मिली थी, परेशान थी वह लेकिन इतनी भी नहीं कि इतना बड़ा कदम उठा ले और वैसे भी वह हमेशा छोटी छोटी बातों को लेकर शिकायत कारती ही रहती थी।”
“लेकिन यह सच है ,मेरे पास उसके पड़ोस में रहने वाली मेरी सहेली का फोन आया है।” माधुरी ने फोन पर मेरी बात काटते हुए कहा।
मुझसे खड़ा रहना मुश्किल हो रहा था और हाथ पाँव सुन्न होने लगे ,तब वहीं सोफे पर धम्म से बैठ गई।
शुभ्रा से मेरी दोस्ती पाँच साल पहले हुई थी ,जब पार्क में मैं शैली को खिलाने के लिए लेकर गई थी ,वह भी अपने बच्चों के साथ वहाँ आती थी। बच्चों के बारे में बातें करते करते न जाने कब हमारे मन के तार भी एक दूसरे से जुड़ते गए और हम दोनों धीरे-धीरे अच्छी सहेलियाँ बन गईं।
वह मन की अच्छी थी लेकिन उसका हर बात में भावुक होकर मुझे उसकी निजी जिंदगी की हर छोटी-मोटी बातों में इन्वॉल्व कर लेना ,बहुत अखरता था फिर भी दोस्ती की खातिर मैं उसको पूरा सहयोग देने की कोशिश करती थी।
धीरे-धीरे आलम यह हो गया कि सुबह शाम कभी भी उसका फोन आ जाता था और मैं मेरा काम छोड़ उसकी समस्या सुलझाने पहुँच जाती थी।
मेरे पति कई बार कहते भी कि किसी को खुद पर इतना हावी मत होने दो कि खुद का जीवन प्रभावित हो।
लेकिन मेरा संवेदनशील स्वभाव समझो या उसकी परेशानी व्यक्त करने की कला ,मैं मजबूर हो जाती थी उसकी समस्या सुलझाने को।
लेकिन पिछले महीने मैं थोड़ा व्यस्त भी थी और सच कहूँ तो हर छोटी बात में तिल का ताड़ बना कर रोने लग जाना, अब मुझे परेशान करने लगा था।
मैं किसी तरह उससे दूर होना चाहती थी जिससे शायद यह बात उसे समझ आ जाए कि मैं उसकी बेजा हरकतों से परेशान हो चुकी हूँ और अब, जिस दिन सच में परेशान हो उस दिन मेरे पास आए जिससे उसकी समस्या का कोई निदान मिले और छोटी-छोटी बातों के लिए हमेशा किसी व्यक्ति को परेशान नही करना चाहिए। लेकिन जब वह सामने होती और अपनी परेशानियों को बताना शुरू करती तब मेरी जीभ तालू से चिपक जाती जैसे उसे वहाँ से हिलना भी मंजूर न हो और मैं कुछ कह भी नहीं पाती; उसकी हाँ में हाँ मिलाकर शायद उसके दुःख पर मेरी पुख्ता मोहर भी लगा देती कि वह तो एकदम सही है बस यह समाज या परिवार के सदस्य ही उसे परेशान करते हैं।”
मेरी सहानुभूति व प्रेम भरा व्यवहार उसे स्टाम्प पेपर की सी सत्यता लगती और अगली बार उसमे थोड़ा बहुत और जोड़ कर परेशानियां ले आती।
मैं कई बार सोचती कि इससे कहूँ तुम इस कथाकथित बुने गए जाल से खुद को बाहर निकालो और देखो कि यह दुनिया कितनी सुंदर है,हर व्यक्ति बुरा नहीं होता। तुम समस्याओं के केवल एक पहलू को मत देखा करो जिस दिन समस्या के दोनों पहलुओं को देखने की कोशिश करोगी उस दिन तुम्हें समझ आ जायेगा कि यह समस्या कितनी छोटी थी और मैंने ही उसे तिल का ताड बना रखा था।
वह चित्रलेखा सी मुझे देखती हुई मेरी बात मान भी लेती और हंसते हुए कहती,”तुम्हारी जैसी जिसकी दोस्त हो वह दुःखी रह सकती है क्या?”और खिलखिला कर हँस पड़ती।
मेरे चेहरे पर भी आत्म संतोष का भाव उभर आता कि चलो मैं किसी की मुस्कान का कारण बनी और दोस्त ही दोस्त के काम न आये तब फिर कौन आयेगा?
कुछ महीनों पहले ही उसने मुझे बताया कि मुझे लगता है मेरे पति का किसी से चक्कर है।
मैंने पूछा,”तुम्हे ऐसा क्यों लगा?”तब वह आँखों में आँसू भरकर दुपट्टे से नाक पोंछती हुई बोली,” आजकल वह मुझमें इंटरेस्ट कम लेते हैं और हमारे अंतरंग सम्बंध भी न के बराबर रह गए हैं।”
मैं उसके शक्की व परेशानी नजरिये को काफी कुछ समझ चुकी थी इसलिए ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और उसे समझा बुझा कर घर भेज मैं भी वापिस आ गई।
पिछले सप्ताह से मैं उसे थोड़ा इग्नोर कर रही थी क्योंकि वह हाथ धो कर अपने पति के पीछे पड़ी थी जबकि मैं उसे पिछले पाँच सालों से जानती हूँ उसका पति निहायत ही शरीफ किस्म का इंसान था जिसको चोचले नहीं आते थे और बातें भी बिना लाग लपेट के सीधे शब्दों में करता था।
पत्नी का पूरा ध्यान रखता था लेकिन अपनी नौकरी में थोड़ा व्यस्त रहता था और ज्यादा शब्दजाल बुनने नही आने की वजह से वह अपनी भवनाओं को मीता तक शायद उस गहराई तक नहीं पहुंचा नहीं पाता होगा जितनी अपेक्षा मीता को थी जिससे वह आये दिन उसपर अपनी नाराजगी जाहिर करती रहती थी।
और जब वह यह सब मेरे साथ बांटती तब मैं भी उसे कहती कि पुरुष,स्त्री की अपेक्षा,भावनाओं को कम व्यक्त करते हैं इसे अपने पति का सामान्य व्यवहार समझा कर । मेरे सलाह से सहमत हो वह संतुष्टि का भाव लिए रुखसत हो जाती और हमेशा की तरह इस अटपटे से व्यक्तित्व को सोचती हुई मैं भी घर आ जाती।
पंद्रह दिन पहले जब मैं उससे मिली तब , उसके पति पर शक करना मुझे इतना बेबुनियाद लगा और सोचने लगी कि यह औरत अब अपना घर बिगाड़ कर रहेगी।इसलिए उसके फोन आने पर भी कोई न कोई बहाना बना कर बात को टाल रही थी।
लेकिन परसों उसका फोन आया तब वह फोन पर लगातार रोये जा रही थी ,मैं समझ नहीं पाई कि आज ऐसा कौनसा पहाड़ टूट पड़ा?
हमारे निर्धारित कैफे में मैंने उसे बुलाया ।
जब वह आई तो आँखे सूजी हुई थी और खुद भी अस्त व्यस्त ही लग रही थी ।
उससे पूछने पर पता चला कि आज सुबह उसकी अपने पति से लड़ाई हो गई थी और वह गुस्से में बिना खाये ऑफिस चले गए थे ,उसने खुद भी कुछ नही खाया और भूखी थी।
मैंने खाने के लिए कुछ आर्डर किया और उससे बातें करने लगी।
जब वह अपने शक की बात को आगे बढ़ाने लगी तब मुझे उसकी हर बात झूठी प्रतीत हो रही थी ,मन हुआ कि उसे कह दूँ, कब तक अपने जीवन में ज़हर घोलती रहोगी लेकिन आज भी जीभ ने हमेशा की तरह साथ नहीं दिया और मन मसोसकर अपनी जगह पर रह गया।
मैं सोच रही थी कि कैसे इतने संजीदा इंसान पर अपने शक्की व शिकायती व्यवहार की वजह से आरोप लगा रही है?
क्या सोचता होगा इसका पति ,कैसे झेलता होगा इसे?
और मन वहाँ से निकलने के लिए मेरा कुनमुनाने लगा।
मैंने शार्ट कट अपनाते हुए उसे कहा,”इस तरह छोटी छोटी बातों से परेशान मत हुआ करो,तुम्हे खुद का ध्यान रखना चाहिए और खुश रहा करो,यह सब तुम्हारा वहम है,जितना वहम पालोगी उतनी ही जिंदगी उलझती जाएगी। जीवन एक धागे की तरह है इसमे बिना गांठ पटके तुम सरलता से लपेटती जाओगी तो यह भी चलता जाएगा अन्यथा जितनी जगह से धागे के सिरे बना कर पकड़ने की कोशिश करोगी उतनी ही उलझती जाएगी।
मैंने गौर से देखने पर पाया कि आज वह मेरी सलाह से खुश नहीं थी और उसकी आँखें डबडबा आई थीं। मुझे भी कुछ ग्रोसरी का सामान लेकर घर पहुंचना था इसलिए मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और उसके कंधे पर अपना हाथ रख कर चल पड़ी।
अचानक डोर बेल बजी तब मेरी तंद्रा भंग हुई।
विवेक मॉर्निंग वॉक से वापिस आ चुके थे उन्हे भी यह समाचार मिल चुका था ।
मुझसे बोले ,”तुम्हारी तो वह अच्छी सहेली थी ,क्या तुम्हें भी कुछ अहसास नहीं हुआ कि उसके पति के किसी और से नाजायज़ सम्बंध थे जिसके चलते वह बहुत परेशान थी और आज उसने अचानक आत्महत्या जैसा कदम उठा लिया?”
मैं कैसे बताऊँ विवेक को कि परेशान तो वह हमेशा रहती थी और तिल को ताड बनाकर समस्याओं को परोसती भी रहती थी।
मैं उसकी समस्याओं के सिरे ढूँढने की कोशिश भी कई बार करती लेकिन वे सब उसका दिमागी वहम या उपज ही निकलती जो हमारे वार्तालाप से सुलझ जाया करती थी ।
और इस बार जब उसने मुझे अपने पति के बारे में यह सब बताया तब भी मुझे उसका दिमागी वहम ही लगा था लेकिन इस बार भेड़िया सच में आ गया था।
कुसुम पारीक
साहित्यकार
वलसाड, गुजरात