बसंत

बसंत

पतझड़ से शोभाहीन हुई,
प्रकृति के नव शृंगार को।
पिछले बरस की नीरसता हटा,
आस के फूल पल्लवित करने को।
वन उपवन को पुनर्जीवन देने,
है एक और बसंत आने को।

अंतर्मन में कहीं सुप्त पड़ी,
मानवता झकझोरने को।
एहसासों को अंकुरित कर,
रिश्तों को नई तरंग देने को।
काश, इस बार बसंत आए
ह्रदय चमन अलंकृत करने को।

आरती ‘आरज़ू’
उत्तर प्रदेश

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