इश्क रूमानियत से रूहानियत तक

 

मेरा मेहबूब

नज़ाकत वो कहाँ मिलती
किसी को अब दोबारा
जिनपर हम मर मिटे हैं
उनपर हमारा दिल है हारा

हर मंज़र में वो दिखते
है उनसे ही सब नज़ारा
उन बिन सांस भी आए
ना हमें है यह गवारा
नज़ाकत कहाँ मिलती
किसी को अब दोबारा

जिनकी हसरतों के बूते
ख्वाब रातों में जागते हैं
जागती आंखों से वो
उनकी कशिश को बुनते हैं
उनपर जान लुटाने को
मरता है मुहब्बत में आवारा

नज़ाकत वो कहाँ मिलती
किसी को अब दोबारा
जिनपर हम मर मिटे हैं
उनपर हमारा दिल है हारा ।

रंजना झा
राँची

प्रेम अभिलाष में

पीले पीले फूल खिले
कनक सु आभ मिले
सतरंगी तितलियाँ
उड़ती आकाश में ।

उपवन में गुंजारे
गूँज-गूँज तान मारे
प्रीत भरा गीत गाए
प्रेम अभिलाष में ।

अमवा डारी बौराई
मधुमाती गंध छाई
वासंती बयार बहे
प्रिय की तलाश में ।

कुनकुनी मीठी धूप
खिले धरती का रूप
कामदेव शर बाँधे
फूलन पलाश में ।

कल्याणी झा कनक
राँची, झारखंड

 

चाह थी

चाह थी एक कविता लिखूँ
तुम्हारे लिए
वाक्य अधूरे रहे
शब्दों का पता न था
अंदर एक कविता आवाज देती रही।

चाह थी एक गुलदस्ता बनाऊं
तुम्हारे लिए
फूल चुनती रही
धागे का पता न था
अंदर एक पौधा प्यार का पनपता रहा।

चाह थी एक गीत गाँऊ
तुम्हारे लिए
धुन ढूँढती रही
साज़ का पता न था
अंदर प्रेम एक गीत गुनगुनाता रहा ।


सरिता कुमारी
पटना

 

‘आ गया बसंत’

मनभावन मौसम है
मस्ती का आलम है
वासंती बेला है
मौसम अलबेला है
भँवरोंकी गुनगुन ने
छेड़ी है तान…
आ गया बसंत सखी
ले नया विहान।

आमों की मंजरियों
से सुरभित बाग है
हर दिल में एक
नया जोश,नया राग है
कोयल के सुर में है
एक नया गान…
आ गया बसंत सखी
ले नया विहान।

उपवन की शोभा तो
अनुपम निराली है
खुशरंग फूलों से
लदी हर-इक डाली है
महुआ के सौरभ से
सुरभित जहान…
आ गया बसंत सखी
ले नया विहान।

खुशगवार है फिज़ा
पुलकित हर अंग है
बेमिसाल कुदरत के
क्या हसीन ढंग हैं
भर दी है सबके
होठों पर मुस्कान…
आ गया बसंत सखी
ले नया विहान।

मदमाते मौसम में
मन भी बौराया है
मनमोहक रुत के संग
संदेशा आया है
आओ सब मिल गाएँ
एक नया गान…
आ गया बसंत सखी
ले नया विहान।

मंजुला सिन्हा
राँची

गिला नही

जो मिला नहीं वो मिला नहीं
मुझे ज़िन्दगी से गिला नहीं

मेरी साँस – साँस उदास है
मेरे दिल का फूल खिला नहीं

मैं उदास ही रही उम्र भर,
कि वफ़ाओं का भी सिला नहीं

अरे संगदिल मेरा नर्म दिल
तेरी चोट से भी हिला नहीं

मेरे दिल मे है तेरी आरज़ू
ये जो ढा सके वो क़िला नहीं

तेरी सोच में ही फ़रेब है,
तू यक़ीन मुझको दिला नहीं।

रेणु त्रिवेदी मिश्रा
राँची

 

 

आ दोनों मिलकर

आ दोनों मिलकर गीत लिखें।
प्रेम- प्यार के ढाई अक्षर,
कोरे पन्ने प्रीत लिखें ।।
आ दोनों मिलकर गीत लिखें।।

जिसमें न अखियाँ बहती हों।
बस हँस-हँसकर सब कहती हों।।
सूरज सी चमकती रहती हों..
उन दो नैनों की ज्योति से
रूप रंग की जीत लिखें।
आ दोनों मिलकर गीत लिखें।।

जब इश्क की घंटी बज जाए।
तन- मन पे मुरली सज जाए।।
अपना- बेगाना तज जाए।
नन्ही उंगली से अधरों पर,
सा-रे- गा सुर संगीत लिखें।
आ दोनों मिलकर गीत लिखें।।

हाथों में हाथ जब तेरा हो।
फिर जग का कण-कण मेरा हो।।
तेरे कदमों में बसेरा हो।
फिर कलम- स्याही लेकर हम..
एल ओ वी ई भीत लिखें।
आ दोनों मिलकर गीत लिखें।।

यह धरा गगन सब अपना हो। दिखता ‘संतोष’ को सपना हो।।
बस ‘मैं’ में ‘तू’ ही जपना हो।
जो शीतल कर दे दोनों को,
वह रंग- रंगीली जीत लिखें।
आ दोनों मिलकर गीत लिखें।।
प्रेम प्यार के ढाई अक्षर ..
कोरे कागज प्रीत लिखें।
आ दोनों मिलकर गीत लिखें।।

संतोष गर्ग,
चंडीगढ़,भारत

इश्क़ -ए-इश्क़

काश कभी, इज़हार-ए-मोहब्बत,कर पाती
प्यार वह जितना करता, मैं भी उतना कर पाती

ग़र इतनी फ़िक्र होती,इश्क़ में हर पल डूब जाती
अगर रूठ जाए, आकर उसे मना ले जाती

दिल की धड़कनों में इश्क़ जब बेहद मचलने लगे
ख़्वाब में इश्क़ अगर क़ाबिज़ चुलबुलाने लगे

किताबों के पन्नों पर मदमस्त छाने लगे
इश्क़ -ऐ- इज़हार आला, रु-ब-रु हो जाने लगे

घड़ी दर-घड़ी साथ रहने की, इजाज़त चाहुँ
दिल के चमन में, अमन से घर बसाना चाहुँ

तेरी अदा हर बात पर, हम यदि एतबार करते
ऐ सनम हमदम, हम तुम से सिर्फ़ प्यार करते

रूह का मिलन, इश्क़ की ये कैसी बंदिश होती
ग़र मुलाक़ात के पहली छुअन में सिहरन होती

निगाहें शर्म-ओ-हया से, हर लम्हा मचलने लगती
इश्क़-ऐ-आग़ोश में धड़कने यूँ बहकने लगती

इश्क़ में महफ़िल न सही,तन्हाई तो मिल सकती
न चाहा कभी जुदाई,पर बेवफ़ाई सह नहीं सकती

इश्क़ की बाज़ी यूँ हारी, बस दिल ही खो बैठी
मुहब्बत बेक़ाबू हुआ, और उसी लम्हा इकरार कर बैठी।

विभा वर्मा वाची
राँची झारखंड

 

 

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