कील
बाहर खिली – खिली धूप को देखते ही उसका मन बाहर जाने को मचल उठा ।उसने अपने पैटीओ से बाहर गार्डन में देखा पेड़ भी शांत थे लगता था वह भी चमकती धूप का आनन्द ले रहे थे । धूप से घास पर पड़ी ओस भी यूँ चमक थी मानो प्रकृति ने चमकते हीरों की वर्षा कर दी हो । सोचने लगी आज उसका मन इतना चहक क्यूँ रहा है ।उसने चाय का प्याला बनाया और न्यूज़ चैनल देखते ही ख़ुशी से उछल पड़ी आज से लंदन में लॉक डाउन खुल गया है ऊपर से उसका कोविद टीके का दूसरा डोज भी लग चुका है ।बाहर जाने की सोच से ही उसका चहकने लगा । आज फिर एक वर्ष के पश्चात् वह स्वतंत्र थी ।वह गार्डन में गयी धूप की तपिश को महसूस किया क्यूँकि लंदन का मौसम बहुत बेवफ़ा होता है ।दिललगी करता है ।कपड़े मौसम को देख कर ही डालने पड़ते हैं ।छाते का बोझ तो यहाँ अपने पर्स की तरह ढोना पड़ता है ।उसने लिस्ट बनायी , नाश्ता किया तैयार हो कर निकलने ही वाली थी की फ़ोन की घंटी बजी ,फोन उठाना तो नहीं चाहती थी किंतु बेटी का नम्बर देख कर वह ठिठकी फिर यही सोच कर उठा लिया कि हो सकता है की कोई ज़रूरी बात होगी ।
“ मम प्लीज़ बैठ जाओ बुरी ख़बर है , नील का ऐक्सिडेंट …..”।
अभी पूरी ख़बर सुन ही नहीं पायी थी कि वहीं की वहीं जम गयी । उस की चुभन फिर उसके मस्तिष्क में तांडव करने लगी ।आज फिर दो दशक पुराना ज़िक्र होते ही खलबली मच गई ।ऐसी जमीं जैसे ठंड से कड़कते मौसम में लंदन में ज़र्रा-ज़र्रा जम जाता है ।उसकी आँखों के सामने अँधेरा मँडराने लगा ।पूरा जीवन फ़्लैश बैक होने लगा । अपराध बोध का एक छोटा सा गोला उसके गले में उतरता , परसता नीचे धँसता चला गया और जीभ जम गयी ।उसका पूरा शरीर शिथिल पड़ गया ,वह यादों के सिलसिले में खो गयी ।जिन यादों का लौटना कयी बार व्यथा का अथाह बन जाता है ।
बात कुछ चार दशक पहले की है नीना और दिव्या दोनो दिल्ली कनॉट प्लेस में वीज़ा के दफ़्तर में मिलीं थी । बातों बातों में पता चला दोनो लंदन में एक ही शहर में जाने वाली थी ।फ़ोन नम्बर का लेन -देन हुआ । जल्दी ही दोनो में गहरी दोस्ती हो गयी । दोनो के घर ने एक ही सिटी में होने के कारण दोनो परिवार , लोहे के चुम्बक की भाँति दोनो परिवार जुड़ गए ।एक दूसरे के लिए प्रतिबद्ध होते हुए भी स्वतंत्र अस्तित्व रखते थे । देखते- देखते दिव्या दो बेटों की माँ बन गयी और नीना दो बेटियों की ।दिव्या के बेटे जल्दी ही अंग्रेज़ी सभ्यता से वशिभूत हो कर उसी में रंग गये । उनके नाम भी भी अंग्रेज़ी रख लिए । नीना की बेटियाँ अपनी भारतीयता पर बहुत गर्वित थीं । बच्चों की बढ़ती ज़रूरतों के कारण दिव्या ने बड़ा घर तो ले लिया पर दोनो का स्नेह वैसे का वैसा ही बना रहा । दोनो परिवारों का जीवन सहज रूप से चलता रहा ।
अचानक एक दिन हार्ट अटैक आने के कारण नीना के पति का देहांत हो गया । लड़कियाँ अभी स्कूल में ही थीं ।उसे लगा, किसी बियाबान जंगल के बीच किसी छोटे से स्टेशन पर उसकी ट्रेन रुक गयी है और अनजान यात्रियों के बीच में एकदम अकेली हो गयी है ।दिव्या भी अब उसके आस पास नहीं थी । कुछ ही महीने में उसका सहज जीवन कैसे उलट-पलट गया । धीरे -धीरे संभलने लगी किंतु एक चिंता उसे चिता की भाँति सताती रही कि समय आने पर लड़कियों के विवाह कैसे हो होंगे एक उसके पति नहीं हैं , दूसरा उसका बेटा भी नहीं है ।वह सदा प्रभु से यही माँगती रही कि अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिय उसे शक्ति प्रदान करें और समय आने पर उसकी बेटियों के लिये अच्छे रिश्ते मिल जायें । क्यूँकि हमारे समाज की मान्यताएँ ही कुछ ऐसी है , एक औरत वो भी विधवा ,वैसे ही दोयम दर्जे की मानी जाती है , और उसके बच्चों को भी दोयम दर्जे का माना जाता जाता है । अब आप कहेंगे हम तो ऐसे नहीं हैं ।नीना को याद है दो तीन लोगों ने ऐसा कहा था ‘ ओथे मत्था की लाना , जत्थे घर विच बन्दा न होवे , न पति है न ही मुंडा और न ही पैसा ‘।देखा जाए तो उसकी औक़ात है ही क्या ? ।
कुछ वर्ष पश्चात् दिव्या के पति का भी देहांत हो गया ।दोनो सहेलियाँ बच्चों की ज़िंदगी बनाने की ख़ातिर ख़ुद को मिटाती रहीं ।समय के साथ उसके बच्चे बड़े हो चुके थे ।दोनो बेटे नील और रिकी यूनिवर्सिटी में थे ।इधर नीना की दोनो बेटियाँ भी यूनिवर्सिटी में पढ़ रही थीं ।समय का चक्र अपनी अनवरता से चलता रहा । कितने वर्ष चौराहे पर लगी लाल , पिली , हरी बत्ती की तरह गुज़र गये।
लंदन के आक्स्फ़र्ड, केम्ब्रिज के विश्वविद्यालों से पढ़े नील और रिकी को अच्छी नौकरी मिलने की ख़ुशी में दिव्या ने बहुत बड़ी दावत दी । रिकी और नील को देख कर नीना की ख़ुशी का ठिकाना न रहा आँखों में ख़ुशी की लहर दौड़ने लगी।रिकी की छः फ़ुट लम्बी देह ,क़ायदे से पहनी वेश-भूषा , चिर परिचित काली जैकेट और दर्पण जैसे चमकते जूते , उसे दूर से ही देख कर कह सकता था , एक आदर्श युवा । उसके साथ तीव्र बुद्धी वाला खड़ा नील कौन सा कम था , गोरा चीट्टा , चौड़ा सीना, ऊँचे कद का अदब क़ायदे वाला बाँका जवान लोगों के स्वागत के लिए खड़ा था ।
दिव्या भी नीना की बेटियों को देखते ही अपने आप पर क़ाबू न पा सकी ।दोनो लड़कियाँ ख़ूबसूरती की हदें पर कर चुकी थीं ।उसके चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गयी ।दोनो ही गोरी चिट्टी लम्बी ,व्यक्तित्व में बहाव , चपलता ,ज़िन्दादिली , भविष्य की ललक ।आत्मविश्वाश से भरपूर ।गालों पर ख़ूबसूरत गड्ढे खबसूरती को चार चाँद लगा रहे थे । बिलकुल फूल जैसी ।सोचने लगी फूल की सुगंध जिस तरह अच्छी लगती है , इसमें कोई अस्वाभिक बात भी नहीं ।लेकिन फूल अच्छा लगे , की बस उसे हाथों में लेने का मन करे ऐसा भी तो हो सकता है ।ऐसा पहली बार मेरे साथ हो रहा है क्यों ? दिव्या दोनो बेटियों को मन ही मन में बहुएँ बनाने के सपने देखने लगी ।स्वाभाविक था ।
एक दिन दिव्या ने बातों- बातों में परोक्ष रूप में नीना की बड़ी बेटी , रुचि का हाथ अपने बड़े बेटे नील के लिए माँगा ।नीना के लिए भला इस से अधिक प्रसन्नता की बात क्या हो सकती थी ।उसके मन की मुराद पूरी हो गयी। नीना ख़ुश थी ,कि उसकी बेटी उसकी सबसे प्यारी सहेली के घर ब्याही जायेंगी ।दिव्या ने नीना की ओर समर्थन की दृष्टि से देखा और बोली
“ घर वालों से बात कर लेना “।
“ ठीक है “ पल भर को नीना को लगा , जो चाहती थी भगवान ने थाली में परोस दिया।हर्ष से उसके कानों में शब्द भनभना रहे थे । इतना हर्ष विश्वास से परे था ।गला ठीक से साथ नहीं दे रहता था ।दिल में एक झुरझुरी सी होने लगी ।पल भर को नीना को लगा बेटी तो मेरी है , किसी से पूछने की क्या आवश्यकता है ? फिर सोचा घर के बड़ों से बात करना तो बनता है और इतनी बड़ी ख़ुशी भी तो बाँटनी है ।उस रात उसे ख़ुशी के मारे नींद नहीं आयी । सुबह चिड़ियों की चिरपिराहट के मधुर संगीत का आनन्द लेने लगी । कुरमुरी थी । सूरज अपनी पूरी गोलाई और लालिमा के साथ मौजूद था । उसकी चाँदी सी क़िरणे चारों तरफ़ ख़ुशियाँ बिखेर रहीं थीं । उठते ही ख़ुशी में उसने अपनी सासु जी को फ़ोन किया …. ।
“ ममी जी ,ममी जी , ख़ुशख़बरी है । रुचि के लिए परफ़ेक्ट रिश्ता आया है , जाने पहचाने लोग हैं , लड़का बहुत पढा लिखा और बढ़िया नौकरी में हैं “।
“ कौन हैं ? केडे पिंड तो हैं ? की जात है ?” एक ही साँस में उन्होंने हज़ारों प्रश्न की बौछार कर डाली ।फिर नीना ने अपनी माँ और बहन से बात की , उनके भी वही प्रश्न थे । वो प्रशन फंदे की तरह उसके गले में घूमने लगे । नीना ने विश्वाश दिलाया , कि वह हमारी तरह हिंदू हैं , दिल्ली से हैं , हमारे जैसा ही उठना- बैठना , खाना- पीना भी हमारे जैसा ही है । पर सासु जी कहाँ माननें वाली थीं । समानता में विश्वास रखने वाली नीना दुविधा में थी ।सासु जी के छोटे -छोटे से सवालों ने उसे मिट्टी में मिला दिया ।
“ मेरा मुँड़ा ज़िंदा नईं , ते की होया , अस्सी ते हाँ , पोतियाँ सुट्ट थोड़ी देनियाँ ने , “।इतना कह कर फ़ोन रख दिया ।
नीना चिंतित थी “ कि कैसे पूछूँगी ? क्या पूछूँगी ?” कैसे ,क्या ? इसी सोच में दो सप्ताह बीत गए ।
इधर दिव्या के दिलो दिमाग़ पर रुचि छाई हुई थी ।सोचने लगी ,बस नीना के हाँ करने कि देर है मैं तो मंदिर में लावाँ – फेरे दिला कर रुचि को ढायी कपड़ों में घर ले आऊँगी ।
फ़ोन की घंटी बज रही थी , दिव्या का नम्बर देख कर वह सोचने लगी “ कैसे पूछूँगी दिव्या से ? “ उसने फ़ोन नहीं उठाया ।उसका फिर फ़ोन आया ‘नीना दिन अच्छा है , चल शॉपिंग चलते हैं , वहीं हल्का सा लंच कर लेंगे ‘ रास्ते में मंदिर में माथा भी टेक लेंगे । नीना की साँस में साँस आयी ।लंच के पश्चात् दोनो मन्दिर की ओर चल दीं ।
“ दिव्या कहाँ जा रहे हैं ,मन्दिर तो इस ओर नहीं है ? “ ।
“ हमारा मन्दिर इसी तरफ़ है …”।
नीना हैरान थी , इससे पहले वह गुरुद्वारे जा चुकी थी राम मन्दिर जा चुकी थी , चर्च जा चुकी थी इस ओर कभी क्यूँ नहीं आयी ? मन्दिर के बाहर लिखा था ‘ रवि दास मन्दिर ‘ नीना भी दिव्या के साथ माथा टेक कर बैठ गईं ।वहाँ उसे एक अजीब से का एहसास हुआ ।
“ नीना यह हमारा मन्दिर है ।दलित समाज के लोग यहीं आते है । यही बताने के लिए मैं तुम्हें यहाँ लायी हूँ । तुम्हें यह बताना बहुत ज़रूरी था …ममी को ज़रूर बात देना की हम लोग रविदास समुदाए से है । समाज के अनुसार हम दलित श्रेणी में आते हैं “। दिव्या ने कहा … शायद वह समाज की दक़ियानूसी मानसिकता से परिचित थी ।
“ तो क्या हुआ , इसमें क्या बड़ी बात है … ? मन्दिर तो मन्दिर है । हम तो एक दूसरे को बहुत नज़दीक से जानते हैं “।नीना ने विश्वास दिलाते कहा …।
“ फिर भी…. रिश्ते स्थापित करने से पहले ऐसी बातें ही स्पष्ट हो जानी चाहिएँ । मैं नहीं चाहती यह बात हमारी दोस्ती को संकुंचित कर दे ।दिव्या ने नीना के हाथ पर हाथ रखते स्नेह से कहा “।क्यूँकि दिव्या वह नीना के स्वच्छंद विचारों से भली प्रकार से परिचित थी और यहाँ तो उम्र भर के रिश्ते का प्रश्न था ।कुछ क्षण संवादहीन गुज़रे…दिव्या उसकी चुप्पी में अर्थ ढूँढने लगी ।
दिव्या की बातों ने नीना को असमंजस में डाल दिया … दिव्या जैसी बातें कर रही थी यह उसकी समझ से बाहर था ।किसी से पूछ भी नहीं सकती थी …उसकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी …उन दिनों इंटर्नेट भी नहीं था नहीं तो गूगल मास्टर जी से ही पूछ लेती ।
दो सप्ताह बीत गए , इस से पहले नीना घर फ़ोन करती ।सासु जी का ही फ़ोन आ गया ।दिव्या ने जो बताया नीना ने उन्हें बता दिया ..सासु जी तो बस राशन- पानी ले कर चढ़ गयीं ।” तुझे पता भी है , कहाँ रिश्ता करने जा रही थी ।दिमाग़ तो नहीं ख़राब हो गया …उनसे हमारा कोई मेल नहीं …सोचना भी मत … मेरे बेटे कि निशानी है ।उसका तो नाम मिट जायेगा …” सासु जी ने कटुता से तमतमाते कहा ।आगे के शब्द नीना सुन नहीं पायी ।
नीना का सर चक्करधानी की तरहें घूमने लगा …उसकी समझ से बाहर था । अभी उसे अपनी माँ और बहन के विरोधाभास के युद्ध का सामना करना बाक़ी था ।वही हुआ जिसका उसे डर था । माँ तो पल्ला झाड़ते बोली….
“ बेटा वही कर जो तुम्हारी सास कहती हैं “। किंतु बहन और भाई ने अच्छी क्लास ली ।
“ दीदी होश में तो हो ? क्या नयी रीत चलाने चली हो “।बहन तल्ख़ी से बोलती जा रही थी ….क्या आपने सोचा है इसका परिणाम क्या होगा ?…जब विवाह के कार्ड में लोग , उनके रिश्तेदार नाम देखेंगे ,बिरादरी वाले, ससुराल वाले , मायके वाले ,मोहल्ले वाले क्या सोचेंगे ।न जाने हमारे परिवार को क्या क्या सुनना पड़ेगा । तुम्हारे साथ हमारा भी बिरादरी से देश निकाला हो जाएगा ।हाँ अगर लड़की को अपने घर लाते तो और बात थी ।छोटी के लिए रिश्ते में मुश्किल आएगी ।तेरे सब किए कराये पर पानी पड़ जाएगा ।दुनिया कहेगी कि मॉ से बच्चे संभले नहीं तो बेटी को कहीं भी ढकेल दिया ।सोच अगर रुचि के पिता विनोद ज़िंदा होते तो वो यह निर्णय लेने लेते ।शेष तेरी मर्ज़ी है “। वह एक हाई साँस में बोलती गयी ।नीना के सोच की शक्ति कुन्द हो चुकी थी ।वह कुछ क्षण बाद बोली …..
“ पर मेरी बहना , तुम्हीं बताओ, क्या फ़र्क़ पड़ता है ।याद है हमारे ब्लाक में तो मद्रासी, बंगाली , सिंधी , गुजराती ,पंजाबी , ईसाई सब मिल के रहते हैं । फिर रविदास समुदाय ( धर्म ) के बारे में कभी सुना ही नहीं , न ही स्कूल कलॉज़ में कभी देखा था । हाँ यह याद है कि सासु जी जमादारनी के आते ही एक तरफ़ हो जाती थीं ।लक्ष्मी जो हमारे यहाँ बर्तन सफ़ायी करती थी वह तो मेरी सहेली थी । हम मिल कर शरारते करते थे । लक्ष्मी और मुझे सामने वाले को चिडाने में कितना आनन्द आता था , जब अपने सफ़ेद बाल उखाड़ता था । पापा जी ने तो कभी मना नहीं किया था ….” ।
“ मेरी बहन ध्यान से सुन जब घर पर पापा जी का आदेश था कि कोई भी भिखारी माँगने आए , तो उसे अंदर कमरे में पंखे के नीचे बिठा कर रोटी खिलाओ , तब क्या हम भिखारी से पूछते थे कि उसकी जात क्या है ? नहीं न ?। याद है दादी जी के घर में, वह कालू राम जिसके हाथ का बना हम खाना खाते थे ? हमारे साथ ताश खेलता था ।तुम अपने -अपने घरों में ही देख लो , तुम्हारी नौकरनियाँ ( मेडेंज़) क्या तुम्हें उनकी जात का पता है ? अगर पता है तो , ग़लत भी तो हो सकता है । कम से कम मेरी सहेली ने सच तो बताया है ।तुम्हें याद होगा पापा जी जात पात और रंग भेद के कितने विरुद्ध थे ।इंसानियत में विश्वास रखते थे । मानवता उनका धर्म था । कहते थे नीना बेटा इस राह से कभी भटकना नहीं ।किसी को तो ईंन रूढ़ियों को तोड़ने में पहल करनी होगी । मैं ही क्यूँ न करूँ ?….”।
“ प्यारी नीना दीदी क्या तुमने ठेका लिया है समाज को सुधारने का ? दिल्ली छोटे बड़े क्लर्कों का मेट्रोपॉलिटन शहर है ।जहाँ देश के सभी जात ,पात धर्म के लोग एक समुदाय की भाँति रहते हैं ।आप को क्या पता पढ़ायी समाप्त होते ही लंदन चली गयीं । दिल्ली आतीं भी थीं ,एक महीने के लिए ।लगता है पूरी अंग्रेज़ बन गयी हो । लंदन में सब चलता होगा यहाँ नहीं ।वहाँ जात पात का सवाल ही नहीं उठता ।रिश्ते जोड़ने के वक़्त ,यहाँ तो पहला प्रश्न जात बिरादरी का ही होता है ….“।
दीदी “ शांत हो कर ध्यान से सुनो यहाँ बात दूसरी है ।यहाँ बात विवाह की हो रही है ।रिश्ते जोड़ने की हो रही है । दो बच्चों में नही, दो परिवारों में ।सोचो आपकी बेटियाँ ख़ूबसूरत हैं पढ़ीं लिखी हैं , अच्छे लड़के मिल जाएँगे । इतनी जल्दी भी क्या है । तुमने रुचि से पूछा है उसकी क्या पसंद है ? हो सकता है नील उसे पसंद ही न हो ? शायद उसके मन में कोई ओर ही हो ? ।बात गम्भीर है ।चल अब बस करती हूँ, बहुत उपदेश दे दिया … “ ।बहन ने तो नीना का व्यक्तित्व ही हिला कर रख दिया था ।
बहन की बातें सुन कर नीना का शरीर सूखे पत्ते की तरह तैरने लगा । उसे लगा जैसे ज़मीन उसे अपनी ओर खींच रही थी ।सारी ख़ुशी पल में मिट्टी में मिल गयी ।उसके भीतर ख़यालों का बबन्डर उठ रह थे ।वह सवालों के चक्रव्यूह में उलझ गयी ।सोचने लगी , क्यूँ मैं फ़ैसला लेने में असमर्थ हूँ ? क्यूँ उलझी रहती हूँ बेकार की बातों में ? फिर उन धागों को सुलझाने में वक़्त बिता देती हूँ ? काश रुचि के पापा ज़िंदा होते ? यह पिता भी क्या चीज़ होते हैं ? बच्चों के पीछे ढाल , एक ऐसा शस्त्र जिसे कोई भी तीर ,कोई भी तलवार ,कोई भी भाला भेंद नहीं सकता । बहन की बातों ने एक बार फिर उसके मस्तिसक में उत्पात मचा दिया । उसे अपनी सोच पर शंका होने लगी ।वह रूढ़ियों और आदर्शों के बीच पिस रही थीं। जो कील सी चुभीं तो…पर हमारे समाज के कड़वे सच को दर्शा रहीं थीं ।आज पहली बार नीना निर्णय लेने में असमर्थ थी ।नीना के लिए लड़कियों का भविष्य ही उसके लिए महत्वपूर्ण था ।अभी दिव्या को उत्तर देना बाक़ी था ।
नीना का विश्वास डावाँडोल हो रहा था , बहुत उलझन में थी । दिव्या को उसके उत्तर की प्रतीक्षा थी ।पल भर को उसने सोचा अगर नील का सर नेम बताया ही न जाए तो …? “ फिर ख़ुद ही बड़बड़ाने लगी छी ..छि…छी…ऐसा कैसे सोच सकती हूँ। उसका अपना अस्तित्व है , विशिष्टता है । नहीं नहीं यह नमुमकिन है ।
बार-बार उसके मस्तिष्क में अपनी बहन की बातें गूँज रही थी ।एक बेटी को तो ब्याह देगी ,दूसरी का क्या होगा ….?
लोग थू …थू …थू ….करेंगे ,कहेंगे सर पर बाप नहीं , बेटी को दलित जात वालों से बाँध दिया ।सबकी नकारात्मक सोच नीना पर हावी हो गयी ।सोचने लगी किस- किस की बात का उत्तर दूँगी …जो बात कही जाती है या उसका या उस बात का जो न कह कर भी जिसका स्वर सबसे ऊँचा होता है । सदा समानता में विश्वाश रखने वाली आज विवश थी ।मना करने के लिए उसे अल्फ़ाज़ नहीं मिल रहे थे ।नीना के दिमाग़ में यह बात घर कर गयी थी कि आज तक दिव्या के साथ जो ग़लत हुआ है उसकी वही दोषी है ।उसकी सोच की शक्ति कुन्द हो गयी थी ।
वह रूढ़ियों और और आदर्शों की बीच पिस रही थी । उसके प्रश्न अभी वहीं के वहीं खड़े थे ।इन उगते प्रश्नों ने उसके अस्तित्व को हिला कर रख दिया था ।वह कन्फ़्यूज़ थी ।उसे लग ख़ुशी एक आँधी की आँधी की तरह आई और तूफ़ान की तरह गिरा के चली गयी ।
जिस स्थिति को वह टालती जा रही थी , वही शाश्वत सच सामने आ खड़ा हुआ । नील का फोन आया कि वह नीना से मिलना चाहता है । थोड़ी देर बाद घुमा फिरा कर शर्माते नील ने पूछ ही लिया …. “ आंटी जी आपसे ममी ने कोई बात की है क्या ….? कुछ क्षण चुप्पी में गुज़रे ….दरसल ….मुझे रुचि बहुत पसंद है … ।मैं रुचि से …” .नील अभी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि उसके दिमाग़ में सभी घर वालों की बातें सायं-सायं करने लगीं ….नीना सच बोलने की हिम्मत तो नहीं जुटा नहीं पायी , और झूठ बोलने से ख़ुद को रोक न सकी ,झट से बोल पड़ी “ रुचि किसी ओर को चाहती है “ ।आज समाज के सामने सच हार गया और झूठ जीत गया ।
झूठ तो बोल दिया लेकिन उसके भीतर के अपराध बोध का कील तेज़ी से चुभने लगी ।एक बार फिर आँसू कपोलों पर मँडराने लगे ।यह बात एक फिर उसके मस्तिष्क में उत्पात मचा गयी ।यादों का बार – बार लौटना कयी बार व्यथा का अथाह बन जाता है ।जिसमें इंसा डूबता जाता है । सोचने लगी मैं भी तो उसी हृदय हीन समाज की एक सदस्य हूँ ।जहाँ कयी यादों को अजायबघर में जाते दफ़ा हम मुकम्मलम होते हैं लौटते दफ़ा आधे -अधूरे खरोंचों के साथ । यादों के साथ दवा हुआ कील भी पनपता-पनपता जंग लगा मोटा सा सुआ बन जाता है ।अपराध बोध का भार उठना बहुत मुश्किल होता है ।अतीत के अपराध के कील की चुभन उसकी चेतना से उभरी , और फिर उसके मौजूदा जीवन से टकरायी ।यह घात उसके शरीर पर नहीं उसकी आत्मा पर पड़ा था
इंसान को अपने बारे में बहुत सी ग़लतफ़हमियाँ रहती हैं ।नीना ने भी शायद अपने बारे में पाल रखीं थीं ।हम मध्यवर्गीय लोग बातें तो आदर्शवाद की करते हैं , क्या सचमुच सच्चाई का सामना करने की शक्ति है हम में ….? किंतु इस सच्चाई के एक थपेड़े ने नीना के सभी भ्रमों को धाराशाही कर दिया ।जब तक इंसान अपने अंदर भेद भाव नहीं ख़त्म कर सकते , हम एक होने में बाधा डालते हैं ।नीना सोच रही थी ,मगर अभी पूरे पेड़ उखाड़ने में वक़्त लगेगा।जड़ें और व्यवस्था बहुत गहरी है ।अगर नये पौध लगाएँ जाएँगे , आने वाले समय में अच्छे फल देंगे ।
नीना के भीतर अपराध बोथ की आँधियाँ नोकिली कील की भाँति ह्रदय में गहरी ठुक़ चुकीं थीं …….।
ज़िंदा जिस्म में मुर्दा दिल धड़क रहा था ।
दर्द के आँसु कपोलों से खिल
अरूणा सब्बरवाल
अरुणा सब्बरवाल पूरी तरह से ब्रिटेन की हिन्दी लेखिका हैं क्योंकि उन्होंने अपने हिन्दी साहित्यिक लेखन की शुरूआत बर्मिंघम में आयोजित एक कहानी कार्यशाला में शिरक़त करने के बाद ही की। इस कार्यशाला का संचालन रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया एवं तेजेन्द्र शर्मा ने किया था। पच्चीस वर्ष मुख्यधारा के विद्यालयों में और पांच वर्ष स्पेशल एजुकेशनल नीड्स के विद्यालयों में शिक्षण कर रही अरुणा जी का अधिकांश कार्य अंग्रेज़ी भाषा में ही होता था।
वर्ष 2008 में बर्मिंघम की गीतांजली बहुभाषी समुदाय संस्था से जुडनें के बाद ही अरुणा सब्बरवाल की वापसी हिन्दी साहित्य की ओर हुई।
उनकी पहली कहानी “वे चार पराँठे” रवीन्द्र कालिया द्वारा संपादित पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित हुई जिसकी बहुत सराहना हुई। धीरे धीरे उनकी कहानियाँ अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे कि वागर्थ, कथाकर्म, संचेतना, आधारशिला, वर्तमान साहित्य और सरिता आदि में निरंतर प्रकाशित होने लगीं। स्वर्गीय महीप सिंह, शेरजंग गर्ग, ममता कालिया एवं राजी सेठ ने समय समय पर अरुणा सब्बरवाल की कहानियों को सराहा है।
अरुणा सब्बरवाल ब्रिटेन की साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से शामिल होती हैं। 2008 में उनकी जो साहित्यिक यात्रा शुरू हुई, उसके नतीजे में अब तक अरुणा जी की पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं .
कविता संग्रह: (२०१०) सांसो की सरगम, (२०११) बाँटेंगे चंद्रमा
कहानी संग्रह (२०१०) कहा–अनकहा, (२०१४) वे चार पराँठे, (२०१७) उडारी
अरुणा जी की राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मंचों जैसे बरमिंघम, नॉटिंघम, लंदन, न्यूजर्सी, न्यूयॉर्क, कनाडा, दिल्ली, गाज़ियाबाद, यमुनानगर, लखनऊ आदि में आयोजित साहित्यिक आयोजनों, सम्मेलनों एवं कवि गोष्ठियों सक्रिय भागेदारी रही है। उनके लेखन की एक ख़ूबी निरन्तरता भी है। इनका चौथा कहानी संग्रह ‘ रॉकिंग चेयर ‘ प्रकाशन के लिये प्रकाशक के पास है ।
सम्मान
२००८ साहित्यक संस्कृत परिषद मेरठ .
२००८ अक्षरम ७ वां अंतरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव .
२००९ अखिल भारतीय मंचीय कवि पीठ ,उतर प्रदेश .
२०१० मान-पत्र ,उच्चायोग लंदन
२०११ यू .के हिन्दी सम्मेलन …२४ …२६ जून बर्मिंघम विशिष्ट सम्मान से अलंकृत
कहानी और काव्य पाठ :
२०१६ : जामिया मिलिया विश्वविद्यालय दिल्ली, हंस राज कॉलेज, दिल्ली, खालसा कॉलेज, दिल्ली एवं साहित्य आकादमी (प्रवासी मंच ) दिल्ली ।
२०१६ कथा यू .के द्वारा आयोजित कथा गोष्ठी में उनकी कहानी “उडारी “ का पाठ अत्यंत सफ़ल रहा। सभी लेखकों से बहुत सराहना मिली ।
2016 साहित्य अकैडमी में मुख्य वक़्ता के रूप में उपस्थित ।
2017 दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कॉलेज में कहानी पाठ ।
2018 ज़ाकिर हुसैन कॉलेज दिल्ली में कहानी पाठ ।
2019 श्री गुरु तेग़ बहादुर खालसा कॉलेज दिल्ली में कहानी पाठ ।
2020 कालिन्दी महाविद्यालय में मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित ।