यत्र नार्यस्तु पूज्यंते

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते

पंडित त्रिलोकी प्रसाद मिसिर,स्त्री जाति का बहुत सम्मान करते। कभी भी अपशब्द का प्रयोग नहीं करते उनके लिये ।स्त्री जाति को वे देवी का रूप मानते।उनका विश्वास था जिस घर मे नारी की पूजा होती है,वहाँ देवता निवास करतें हैं।
वे अक्सर बनवारी माली,रघु खटीक,ठाकुर हरिसिंग को समझाते,बात बेबात औरतों पर हाथ उठाना ठीक नहीं।गाली तो भूल के भी बको मत।ये बात दीगर, कि इन मर्द जातों ने पंडित जी की समझाईश इस कान सुनी उस कान निकाली ।
पंडित जी के घर में भी तीन स्त्रियाँ थीं ।उनकी अन्नपूर्णा ,पतिव्रता पत्नी पार्वती।सुघड़ सलोनी ,बड़े बेटे विक्रम की पत्नी,उनकी बहू लक्ष्मी।और सबकी दुलारी सरस्वती का रूप ,बिटिया पूनम ।
पंडित जी ने कभी भी इन तीनो से उँचे सुर मे भी बात नहीं की,मारपीट और गाली गलौच तो दूर की बात।उन्हे इन तीनो से कोई शिकायत भी नहीं थी।पार्वती कुशल गृहणी थीं ।बहू, सास ससुर की सेवा मे कमी नहीं रखती थी,और बिटिया कुशाग्र बुद्धि की ,घर कार्य मे दक्ष ,दसवीं,अच्छे नम्बरों से उतीर्ण,आगे पढ़ने की इच्छुक लड़की ।
पंडित जी ने उसे आगे पढ़ने न दिया।कस्बे मे एक ही इंटर कॉलेज था,वो भी को एड।लड़के लड़की सह शिक्षा ले ,पंडित जी को पसंद नहीं था।
ज्यादा दिन न हुए होंगे दीना नाथ हलवाई की बिटिया ,कॉलेज के सहपाठी के साथ भाग गई ।राम राम। दीनू का पूरा परिवार मारे शरम के कई दिनों तक किसी से सर उठा के बात न कर पाया। हरे राम ।पढ़ाई होती है कि प्रेम का पाठ सिखाते है मास्टर लोग ,लड़के लड़किन को।
यही कारण रहा कि पूनम घर बिठा ली गई ।
पंडित जी को शिकायत थी अपने बेटे विक्रम से।ग्रेजुएट क्या हुआ ,दिमाग ही सड़ गया उसका।पुश्तैनी काम मे उसे शर्म आती है।बताये कोई पूजा पाठ करवाना शर्म की बात है।अरे मिसिर खानदान के पुरखे यही तो करते आ रहें हैं ।इसी की बदौलत ईश्वर की उनपर कृपा रही ।आज तीन मंजिल हवेली तनी है उनकी।चार चार दुधारी गायें बंधी हैं,आँगन में ।कोठार भरा है अनाज से।
उनकी पण्डताई को, पूरा कस्बा क्या, आस पास के गाँव के लोग,पूजते है ।कितना आदर मान है उनके खानदान का।सत नरायन पूजा,जन्म,जनेऊ ,शादी ब्याह सारे संस्कार, सब जगह पंडित त्रिलोकी प्रसाद की गुहार लगती।
भागवत कथा बांचने मे तो उनके जैसा कोई कथा वाचक नहीं । इसीलिये उनकी फीस ,आसपास के दस गाँव के भागवत कथा वाचकों में सबसे ऊँची है।जब झूमकर,भाव विभोर हो श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करते है,तो पूरा भक्त समुदाय उस रस मे सरोबार हो जाता है।रुक्मणी विवाह मे महिलायें छप्पन भोग बनाकर लातीं और अर्पित करती कन्हैया को।एक उंगली मे उठा लिया गोवर्धन ।भक्तो की रक्षा को कैसे दौड़ पड़े गिरिधर।श्रोतागण ,कथा के नवो रस के भाव- समुद्र मे गोता खाते ।आसान नहीं है कथा के रंग में विशाल भक्त जनों के समूह को रंग देना।यूँ ही भागवत कथा के लिये कोई इतनी मोटी रकम नहीं दे देता।भीड़ जुटाने और भक्तो का मनोविज्ञान समझने की क्षमता होना हर किसी के बस की बात नहीं ।
विक्रम के कहाँ समझ मे आई ये बात।वो तो रट लगाए रहा,कि बिजनेस करेगा।अगर ज़ोर ज़बरदस्ती की, तो घर से भाग जाएगा।आखिर की उसने अपने मन की ही, केबल का बिजनेस शुरु कर दिया।कस्बे मे घर घर टी वी था।उसका बिजनेस तरक्की करने लगा।वो खुश था,मन पसंद काम था।
पंडित जी ने उसकी ओर से चुप्पी साध ली।बाप बेटे एक दूसरे से कटे से रहते।विक्रम का पहनावा,बालो की स्टाइलिश कटिंग,चुटिया तो कॉलेज जाते ही उसने कटवा ली थी,देखकर बेबस रह जाते पंडित जी।जानते थे जवान बेटे से उलझना ठीक नहीं ।
समय अपनी गति से चल रहा था।अचानक एक मोड़ ने अपनी दिशा बदली।विक्रम ने एलान कर दिया वो अपनी पत्नी को लेकर कानपुर छोटी बुआ के यहाँ चला जाएगा।इस बार लक्ष्मी की प्रेग्नेंसी को लेकर कोई रिस्क नहीं लेना चाहता।पिछली बार जो हुआ,उसने पूरे परिवार को तोड़ कर रख दिया था।लक्ष्मी तो बिल्कुल टूट गई थी।चुपचाप गुमसुम सी रहती।पहिली पहिली प्रसव पीड़ा,शिशु का जन्म से पूर्व,कोख मे ही दम तोड़ लेना,उसका कोमल मन बर्दाश्त नहीं कर पाया था।इस बार वह बहुत डरी हुई थी ।बार बार कानपुर ,बुआ सास के यहाँ जाने की जिद पकड़े थी।
हुआ यूँ था कि पहिली बार जब लक्ष्मी गर्भवती हुई।उस समय भी छोटी बुआ ने कहा था पार्वती से,”भाभी,यहाँ कस्बे के अस्पताल मे कोई डाक्टरनी नहीं है।बहू को कानपुर के अस्पताल मे ही दिखा देते है।डिलीवरी भी वहीं हो जायेगी।घर है अपना सब इंतजाम हो जाएगा।”
कानपुर के बड़े मकान मे रहने वाले दो प्राणी,बाल बच्चे हुए नहीं ।बड़ी इच्छा थी बुआ की विक्रम या पूनम किसी एक को गोद लेने की।पर न पार्वती राजी हुई न पंडित जी।
तय हुआ लक्ष्मी के जैसे ही नवां महीना लगेगा ,डिलीवरी के लिये विक्रम,लक्ष्मी और पार्वती कानपुर चले जायेंगे।लेकिन आदमी सोचता कुछ है और विधना के मन कछु और।अचानक रात के समय लक्ष्मी दर्द से तड़पने लगी।अनुभव हीन लक्ष्मी की असहनीय पीड़ा देख सभी घबरा गये,ऐसे समय क्या करें किसी की समझ मे नहीं आ रहा था।उधर लक्ष्मी पेट पकड़े दर्द से छटपटा रही थी। कुछ न सूझा तो पंडित जी ,पार्वती से बोले–विक्रम से कहो रामदेई अम्मा को बुला लाये”
विक्रम हिचकिचाया”बाबूजी ,वो दाई है,डॉक्टर नही “।
“बहुत अनुभवी है,तुम और पूनम उसी के हाथ के
जन्मे हो।अब सोचने समझने का टाईम नहीं है मुन्ना।दौड़ जा,इस आधी रात के बखत उसी का आसरा है”।

अनुभवी रामदेई मौके की गम्भीरता पहचान गई ।बहू का सतमासा है। बहुत सावधानी बरती उसने ,किसी तरह बहू को तो बचा लिया पर बच्चे को न बचा पाई।

विक्रम ने अपना सारा बिजनेस समेट लिया।उसने तय कर लिया की वो और लक्ष्मी कानपुर ही रहेंगे।वो अपना करोबार कानपुर मे ही डाल लेगा।ये फैसला उसने पार्वती और पंडित जी को भी सुना दिया।

बेटे और बहू के जाने के बाद पार्वती का मन भी ऊचाट हो गया।अकेली पार्वती क्या,पूनम,और पंडित जी का भी यही हाल था।भले ही प्रगट मे कोई किसी सेकुछ न कहता हो।

पंडित जी ने अब कथा,पूजापाठ के निमन्त्रण भी स्वीकारना कम कर दिये थे।बस अब उनकी इच्छा थी की कोई सुपात्र खोज पूनम के हाथ पीले कर दे।पर सुपात्र पाना इतना सरल नहीं ।कहीं पूनम की कुंडली मेल नहीं होती थी।कहीं पूनम का मांगलिक होना आड़े आता।अगर सब ठीक होता तो दहेज की माँग इतनी ऊँची होती की पंडित जी के बस के बाहर रहती।चलिये किसी तरह दहेज की रकम का जुगाड़ कर भी लें,तो वर,खानदान भी तो इस लायक हो।
आज भी पंडित जी जब पूनम के सम्बंध के बारे मे एक जगह से निराश हो घर लौट रहे थे तो उन्होने देखा की उनके मकान से पचास मीटर की दूरी पर सुबोध सहाय की हवेली मे बड़ी रौनक थी।ये हवेली पिछले पाँच सालों से ,सुबोध जी और उनकी पत्नी के देहांत के बाद से बंद पड़ी थी।सुबोध जी के एक ही बिटिया थी।ऋतु,जिसकी शादी पार्वती के पीहर के गाँव मे किसी राय खानदान मे हुई थी।
“पार्वती,आज सहाय हवेली मे बड़ी रौनक है।क्या बात है पता है तुम्हे”पंडित जी ने घर पहुंचते ही पत्नी से पूछा ।
“हाँ,ऋतु और उसके दूल्हा अब यहीं आकर रहेंगे।दोनो ही हैं।एक बेटा है जो लखनऊ मे नौकरी करता है।किसी दफ्तर मे अफसर है।बनवारी भईय्या आय रहे थे आज,बगिया बुहारने,वोई बताय रहे”पार्वती ने कहा।
“चलो ,भूतन सी हवेली मे इन्सानन का डेरा हुई जाई” कहते हुए पंडित जी हाथ मुँह धोने घिनौची की ओर बढ़े, उन्हे तौलिया पकड़ाते हुए पार्वती ने रसोई मे जा चाय का पानी चूल्हे पर रख दिया।
चाय और तश्तरी मे मठरी ले ,आँगन मे खटिया पर बैठे पति के सामने ,छोटी सी टेबल खींच ,उसपर नाश्ता रख वहीं जमीन पर बैठ गई ।बोली”कुछ जमा क्या?”
“अरे कहाँ पूनो की माँ ।लड़के तो बहुत है,पर पूनम के लायक नहीं ”
“ऋतु और उसके दूल्हा आ जायेंगे,तो सहाय हवेली के भाग जग जायेंगे।”पार्वती ने बात दूसरी ओर मोड़ दी।
“सो तो है,शंभूनाथ राय तुम्हारे पड़ौसी रहे न।”
“पड़ौसी तो नहीं,पर गाँव के हैं।हाँ,कारज मे बुलौआ,चलौआ जरुर होत रहा”
“ऋतु का दूल्हा ,सज्जन आदमी है”
“एलो,आप कैसे कह रहे हैं,मिले रहे का उन से।”
“ऋतु के बियाह मे देखे रहे,तुम्हूं तो रही न सहाय के हियाँ शादी मे।”
“हम कहाँ जाय पायी,अम्माँ जी गई रहीं।विक्रम हथे न पेट में ,पर आप कैसे कह रहे की ऋतु के दूल्हा,शंभूनाथ,सज्जन आदमी है।”
“अरे पार्वती,काय से की तुमाये गाँव का नाम सज्जन पुर है न।”कहते हुए पंडित जी हो हो करके हँस पड़े।
“आपौ न,अब बुढ़ऊती मे ठिठोली —-“शर्मा गई पार्वती,गाल मे पड़ते हुए गड्ढों पर डूबते सूरज की किरणे पड़ रहीं थी।पंडित जी ने धीरे-से पार्वती के गालो को छू लिया।कुछ देर पहिले की उबाऊ नीरसता ,फीकी हो गई।

ऐसी बात नहीं कि पार्वती शंभूनाथ से अपरिचित हो।एक ही पाठशाला में पढ़ते थे दोनों ।शंभू अनाज देकर कृपा चच्चा की दुकान से लेमनचूस लाता और पार्वती को देता। जेब मे भरकर खूब सारी बेरी,इमली लाकर उसे देता।उसकी स्लेट पट्टी साफ कर देता।सवाल पार्वती से नही बनते तो मास्टर जी नज़र बचाकर,उसकी स्लेट के सवाल हल कर देता।पार्वती को भी बहुत बुरा लगता जब शंभू की किसी गलती पर मास्टर जी उसके कान खींचते या मुर्गा बनाते ।ऐसे समय वो भगवान से मन ही मन प्रार्थना करती कि मास्टर जी को ताप आ जाये ,नहीं तो भूरा कुत्ता काट ले।
मास्टर जी और भूरे कुत्ते मे खासी दुश्मनी थी।भूरे का उनपर भौकना और मास्टर जी का दूर से उसे लाठी दिखाकर दुर दुर करना,बच्चों के मनोरंजन का साधन था। आज भी उन भूली बिसरी यादों को याद कर पार्वती मुस्करा दी।
प्रेम के भावों को जबतक पार्वती समझ पाती त्रिलोकी प्रसाद के साथ उसके सात फेरे लग गये।

सुबह सुबह ही ऋतु और शम्भुनाथ ने पंडित जी के दरवाजे पर दस्तक दी।सामान्य शिष्टाचार के बाद दोनों ने बताया की उन्हे घर पर पूजा अर्चन करवाना है।चूंकि इस समय बेटा राजेश भी आया है ।दो दिन बाद पूरनमासी भी है,उसी दिन सत्य नारायण की कथा ,पूजा और रिश्तेदारों,परिचितों का भोजन प्रसाद भी हो जाये।

“तो तय रहा दादा,आपको ही पूजा करवानी है।”ऋतु ने त्रिवेणी प्रसाद को परिवार सहित निमन्त्रण और पूजा का कार्य सौप दिया।ऋतु ने त्रिवेणी प्रसाद को दादा कहा तो शम्भुनाथ ने भी उन्हे बड़े भाई का सम्मान दिया।और ये मुलाकात दोनो परिवारों मे घनिष्टता ले आई।

जब भी राजेश,सहाय हवेली आता,तो पंडित जी के घर जरुर जाता ।पूनम के लिये,कभी शरत,बंकिम साहित्य,कभी प्रेमचंद,की किताबें लाता ।पार्वती ने नोटिस किया,जो बिटिया मुर्झायी सी रहती थी।अब राजेश के आने पर खिली खिली रहती है।बेटी का मन माँ ने पढ़ लिया था।और उस पर पक्की सील तब लगी जब ऋतु ने पार्वती से एक दिन कहा”भाभी,राजेश को पूनम अच्छी लगती है।आप और दादा की आज्ञा हो तो पूनम को हम अपने घर की लक्ष्मी बना लें।”
“ऋतु ,मै तुम्हारे दादा से बात करुँगी”पार्वती ने उस समय बात टाल दी।
पूनम की बढ़ती उम्र,उसकी हम उम्र सभी लड़कियाँ अपने अपने घर बार की हो गईं थीं ।कुछ की गोद मे तो बच्चे भी खेलने लगे थे।लेकिन पूनम का रिश्ता कहीं तय नहीं हो पा रहा था।पार्वती को उसकी चिंता सताने लगी।

पूनम उम्र के उस पड़ाव पर थी जब किसी लड़की का मन और देह दोनो ही एक साथी का सामीप्य चाहता है।आखिर माँ से बढ़ कर बेटी के मन को कौन टटोल सकता है।
एक दिन समय को अनुकूल देख वो पति से बोलीं,”सुनो जी, आज सहाय हवेली से ऋतु आई रही।”
“अच्छा,कोई काम रहा क्या?”
“हाँ कह रही थी कि राजेश , पूनम को बहुत पसंद करता है।वो दोनों भी इस रिश्ते के लिये तैयार हैं ।बड़ी बात ये की राजेश भी मांगलिक है।”डरते-डरते पार्वती ने ऋतु का सहारा ले अपने मन की बात रखी।
“वो बोली,और तुम चुप रहीं ।तुमने सोचा हम तैयार हो जायेंगे।सठिया गईं क्या।जात कुजात का ज्ञान ही नही रहा।अरे हम तो कनोजियो से बाहर भी न बिटिया ब्याहे फिर वो लोग तो ———“मारे क्रोध के पंडित जी की कनपटी तक लाल हो गई ।

धक रह गई पार्वती,इतना क्रोध,और इतना उँचा बोलते उन्होने कभी पति को नहीं सुना था।सन्न हो गई वो।इतने साल का साथ,वो अपने पति को जान न पाई।उनको इतना कष्ट पहुँचाया ।पार्वती सारी रात करवटे बदलती रही।बड़ा अपराध हुआ उससे।

सुबह पंडित जी अपने नियत समय पर उठे।असनान ध्यान किया।पूजा पाठ कर बैठके मे पहुंचे।पार्वती गरम दूध का गिलास ले उनके पास गई ।पंडित जी ने पार्वती का विवर्ण मुख देखा ,जान गये पार्वती रात भर सोयी नहीं ।नींद तो उन्हे भी रात भर नहीं आई।कल का व्यवहार उन्हे सारी रात क्षोभ और ग्लानि देता रहा।पश्चाताप की आग मे उनकी आत्मा झुलसती रही।

पार्वती दूध का गिलास उनके हाथ मे देकर जैसे ही वापिस जाने को मुड़ी,उन्होने पार्वती का हाथ पकड़ लिया।अपने पास बिठाया बोले–“पार्वती कल अपने व्यवहार के लिये मै तुम्हारा अपराधी हूँ ।तुमसे क्षमा माँगता हूँ ।मुझे तुम्हारी बात पर उत्तेजित नहीं होना चाहिये था।तुमने तो केवल अपनी बात रखी थी। ”

पार्वती थोड़ी संयत हुई”नहीं आप ऐसा बोलकर काहे हमे पाप का भागी बना रहें हैं।वो आपकी परेशानी,पूनो का उदास चेहरा,देख हमारा मन बहुत दुखी हुआ,तो हम बोल दिये।”फिर पति के चेहरे की ओर देखा,हिम्मत कर आगे बोली”ऋतु ने जब पूनो के रिश्ते की बात की,तो हम पहिले मुन्ना,बहू,और बीबीरानी को बताये,उनकी मंसा जानी ।वे तीनो इस रिश्ते को तैयार थे।पर आपसे आज्ञा लेने की कोई हिम्मत न कर पा रहा था।वो जाने कैसे हमई कल आपसे बोल दिये।”
थोड़ी देर दोनो के बीच खामोशी छाई रही।
“पार्वती”त्रिलोकी प्रसाद ने खामोशी तोड़ी”अब तक गलत हम ही रहे।हमने स्त्री जाति को देवी माना ,उसे देवी समझ पूजा,यही गलती रही हमारी।”
फिर थोड़ा ठहर कर बोले”स्त्री को बराबर का दर्जा देना,उसके मन को पढ़ना ,उसकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिये।वो कोई पत्थर की मूरत नहीं की उसे पूजें”

पार्वती ने अपने पति का ऐसा रूप तो कभी नहीं देखा था।आज त्रिलोकी प्रसाद उसे पति देवता नहीं,जीवन साथी लगे।
“अब खड़ी न रहो,जाके तैयार हो के आओ,सहाय हवेली चलना है।बिटिया का रिश्ता पक्का करना है न।”

सुनीता मिश्रा
भोपाल मप्र
शिक्षा-स्नातकोत्तर मनोविज्ञान
प्रकाशित पुस्तक का नाम-“दोराहा ”
विधा-कहानी,लघुकथा,लेख,कविता

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