चूड़ी वाले हाथ   

 चूड़ी वाले हाथ   

  रायदा….. 25 या 30 खपड़ैली झोपड़पट्टी वाला, शहरी चमक दमक से दूर, अशिक्षा और अज्ञानता की बेडि़यों में जकड़ा हुआ एक बेहद छोटा सा गाँव……. सरकारी कागजों में इस गाँव के हर घर में बिजली आ चुकी है, लेकिन सरपंच जी का घर छोड़, सभी घरों में आज भी लालटेन ही जलती है…. सड़क के नाम पर बलुही मिट्टी की पगडंडी है, कभी कदा सरकारी जीप घूल-धुआँ उड़ाती आती है, उसमें से छुटभइए सरीखे नेता या अफसर निकलते हैं, गाँव वालों को स्कूल, राशन-दुकान और दवाखाने का सपना दिखाकर, उनके आदर सत्कार से गद्गद् होकर मोटी तोंद पर हाथ फिराते हुए जल्दी ही दोबारा आने का आश्वासन देकर रफूचक्कर हो जाते हैं.

फूलमनी दो कोस दूर के गाँव से बुधुआ के साथ ब्याह कर  इसी गाँव में आई थी. जब से बुधुआ की पहली बीबी का देहान्त हुआ था बुधुआ टूट सा गया था. दो छोटे बच्चों की देखभाल करता कि काम पर जाता. हर दूसरे दिन नागा होने लगी तो तंग आकर मालिक ने निकाल दिया. किसी काम में मन ही न लगता था. कुछ दिन तो वह बच्चों पर प्यार लुटाता रहा, फिर अभावों व तंगी की मार ने उसे चिड़चिड़ा, गुस्सैल और बेपरवाह बना दिया. सोमवारी से अपने भाई बुधुआ का दुःख देखा न गया, बड़ी बहन जो ठहरी. भाई के दूसरे विवाह में ही सोमवारी को समस्या का समाधान नज़र आया. अपनी ससुराल के पड़ोस में रहने वाली फूलमनी का रिश्ता लेकर जब सोमवारी भाई के पास पँहुची तो भाई ने खूब खरी-खोटी सुनाई.
’’जिज्जी क्यों मेरे जले पर नमक छिड़कती हो?  एक तो मुझसे आधी उमर है उसकी, ऊपर से पढ़ी लिखी, आठवीं पास….. मैं ठहरा निरा गँवार…. पढ़ी लिखी कम उम्र की लड़की क्या दो-दो बच्चे सँभाल पायेगी? क्या मुझे जोरू का गुलाम बनाना चाहती हो?
“तेरी बात भी ठीक है भइया….. तिरिया चरित्तर का क्या भरोसा…….. पर… (फिर कुछ सोचकर बोली) ….. यह तो तुझ पर निर्भर करता है. लगाम खींच कर रखेगा कि पूरी ढील छोड़ देगा. यदि तू दबेगा तो वह दबाएगी…..और यदि मर्द बनकर रहेगा तो पालतु बिल्ली की तरह आगे पीछे घूमेगी.”

सदियों से चली आ रही धिसी-पिटी शिक्षा, सोमवारी ने नाटकीय अंदाज में भाई की एक मात्र शुभचिंतक बन कर दी। बुधुआ सोच में पड़ गया. थोड़ी ना…नुकुर के बाद बुधुआ ने जिज्जी की बात गाँठ बाँध ली और उलझनों को पीछे ढकेल शादी के लिए हाँ कर दी.

कितनी लाचार थी फूलमनी, जब उसने पहली बार पति बुधुआ का हाथ पकड़ इस गाँव में कदम रखा था. फूलमनी का बुधुआ के जीवन में प्रवेश विशुद्ध परिस्थिति-जन्य था, एक तरफ बुधुआ को बच्चे व घर सँभालने वाली स्त्री-जात चाहिए थी, जो समय असमय उसकी शारीरिक व अन्य क्षुधा-तृप्ति करती रहे, तो दूसरी ओर किस्मत की मारी, अनाथ, फूलमनी से उसका मामा शीघ्रताशीघ्र पिंड छुड़ाना चाहता था. अभावों, उलाहनों और शारीरिक प्रताड़नाओं के बावजूद फूलमनी आठवीं कक्षा तक पढ़ सकी क्योंकि अपने गाँव के सरकारी निःशुल्क स्कूल में जब वह कुछ घंटों के लिए जाती तो उसे लगता जैसे उसके पंख लग गए है, वह मन लगाकर, खूब मन लगाकर पढ़ती और अपने सारे दुःख दर्द भूल जाती.

“ई…..बुघुआ तो फूलमनी से दोगुनी उमर का है”……. शोर की तरह चारों ओर से गूँजती आवाजों से वह तनिक विचलित न होती और भविष्य के सपनों में खो जाती…….ब्याह के बाद मामा का घर छूट जाएगा, यही सपना काफी था उसे गुदगुदाने के लिए.. उसे विश्वास था कि शादी के बाद उसके सारे दुःखों का अंत हो जायेगा, दो छोटे बच्चे हैं तो क्या, यहाँ भी तो मामी के बच्चों को वही सँभालती है. वह अपने पति के बच्चों को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने की बात सोचने लगती और एक काल्पनिक दुनिया में खो जाती.  

इधर बुुुुधुआ ने जिज्जी की बात ऐसी गाँठ बाँधी कि फूलमनी की सारी कोमल भावनायें, सारे सपने सेमल की रूई की तरह बिखर गए. उन्हें समेटना, सहेजना नामुमकिन लगने लगा उसे. फूलमनी के जीवन में बसंत ऋतु आने से पहले ही पतझड़ ने दस्तक दे दी. एक कहावत है न, कि कुँए से निकले खाई में गिरे.  फूलमनी तानों ,उलाहनों, और नित नई मुसीबतों की खाई में धँसती चली गई.
बस्ती वालों ने बुधुआ के प्रति अपनी संवेदना दिखाई और बच्चों के मन में सौतेली माँ के प्रति भय का भूत बैठा दिया.. . बच्चे या तो फूलमनी से दूर-दूर रहते या फिर बाप-बुआ चाची ताई से शिकायत कर उसे बाप से पिटवाते.
फूलमनी दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करती,  खाना, कपड़ा बर्तन के अलावा दूर के सरकारी हैण्डपम्प से पानी लाती और रात में सबके सो जाने के बाद बुधुआ के शरीर की तेल मालिश करती, फिर उसकी लात खाकर सुबकते सुबकते सो जाती, अगले दिन की समान दिनचर्या के लिए.
दो साल बीतते न बीतते उसकी गोदी में दो लड़के और आ गए. कच्ची उमर में असामयिक मातृत्व का बोझ, अंतहीन घरेलु कामों की पीड़ा और तानों उलाहनों के शूलों ने उसे आपाद-मस्तक छलनी कर दिया.  फूलमनी अपनी किस्मत को कोसती, रोती बिसूरती, अन्दर ही अन्दर घुलती जा रही थी.  धीरे-धीरे उसने खटिया पकड़ ली. शरीर व मन दोनों टूट चुके थे. दुधमुँहे बच्चे जब कलपते बिलबिलाते तो कोसने व उलाहने देने वालों की भी आँखें भर आती, लेकिन सोमवारी अनजान बनी रहती. पति ने छोड़ दिया था, बाल-बच्चा कोई हुआ नहीं…भाई के घर में एक छोटी सी कुठरिया में आसरा मिल गया तो शेरनी बन गई. उसकी पूरी कोशिश रहती कि भाई अपनी गिरहस्ती में रम न जाए. तमाम दुनिया जहान की बातों से भाई का कान भरे रहती और यही जताती रहती कि एक वही है जिसे बुधुआ की चिंता है बाकी सब मतलबी हैं……..

कौन जाने… कहीं सोमवारी अपनी ससुराल के पड़ोस में रहने वाली लड़की फूलमनी को सता-सता कर अपने ऊपर ससुराल में हुए अत्याचारों का बदला तो नहीं ले रही थी. ………….

 फूलमनी की घोर चुप्पी और उसका गिरता स्वास्थ्य देख बुधुआ को एक बार फिर अपनी गृहस्थी डूबती नज़र आई….. घबड़ा गया वह….. फूलमनी उसे अच्छी लगती थी. क्योंकि बस्ती की आम  औरतों की तरह वह न गाली-गलौच करती, न कभी ऊँचा बोलती…… साफ-सुथरे कपड़े बड़े करीने से पहनती, उसके बच्चे सवाल में कहीं अटक जाते तो झट सुलझा देती और खाली समय में सुई धागा लेकर उसके कपड़ों की मरम्मत भी करती…

फूलमनी की जो बातें उसे अच्छी लगती, उसकी वहीं बातें बस्ती की औरतों की आँखों में किरकिरी सी चुभती, और उन्हीं बातों का हवाला दे दे कर उसकी जिज्जी सोमवारी बुधुआ से फूलमनी की लगाम और कसकर रखने की बात करती.
बुधुआ जिज्जी  की बहुत इज्जत करता था. जिज्जी जो भी राह दिखाती उस पर चलना अपना फ़र्ज़ समझता. लेकिन  दिन पर दिन सूखकर काँटा होती जा रही फूलमनी को डाॅक्टरखाने ले जाने के बारे में उसने जिज्जी से सलाह नहीं ली.

बुधुआ की आँखें आजकल दिनभर पनीली रहतीं. अनहोनी के भय से बुधुआ का चेहरा सफेद हो गया था, जैसे रक्तवाहिनी शिराए जम गई हों. अपने आप को कोसने लगता कि न चाहते हुए भी क्यों जिज्जी की हर बात मानता है. पहले दो बच्चे उससे न सँभलते थे, अब इसे कुछ हो गया तो भला चार को कैसे सँभालेगा. उसने सन्दूकची से जमापूँजी निकालकर कमर में खोंसी, रिक्शा बुलाकर फूलमनी को लिटाया और दवाखाने पहुँचा.

डाॅक्टरनी ने बुधुआ को धमकाते हुए कहा, “इसके शरीर में खून की इतनी ज्यादा कमी हो गई है कि मरने के कगार पर पहुँच गई है. खिला पिला नहीं सकते और बच्चे पर बच्चे पैदा किए जाते हो. औरतों की इज्जत करना कब जानोगे तुम लोग?’’

’’मुझे भूख ही नहीं लगती डाॅक्टरनी जी, इनका दोष नहीं है’’  आधी बेहोशी की हालत में भी फूलमनी अपने पति के बचाव में बोली. शर्मसार बुधुआ दोनों हाथ जोड़कर ज़मीन की ओर ताकते हुए बोला,  “आगे से ऐसा न होगा, इसे बचा दें माई-बाप.  छोटे छोटे बच्चों पर आपकी बड़ी कृपा होगी.”

सच्चे मन से की गई प्रार्थना ऊपरवाला तुरन्त सुन लेता है. टाॅनिक व दवाइयों पर खर्चा तो बहुत हुआ पर फूलमनी की जान बच गई. गृहस्थी की गाड़ी वायु-वेग सी आगे बढ़ने लगी.

भाई का लुगाई की दवा-दारू पर रुपए लुटाना सोमवारी को फूटी आँख न सुहाया. नदी के घाट पर कपड़े धोते समय, हैण्डपम्प पर पानी भरते समय, या सौदा-सुलफ लाते समय जब भी वह बस्ती की औरतों से घिरी होती, हाथ नचा नचाकर ऊँची आवाज में बड़बड़ाती, 
“सगी माँ होती तो चार पैसे जोड़ने की बात करती. बिटिया को जवान होते समय लगता है? और ई फूलमनियाँ …….चरित्तर देखो…बीमारी का बहाना बनाय के भाई को ठगे है….. पढ़ी लिखी है न……पता नहीं का जादू किए है, कल तक जो बुधुआ जिज्जी …जिज्जी  की रट लगाए रहता था, अब एकौ बात नहीं सुनै है.”
साथी महिलाओं ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, 
“पढ़ी लिखी है न……….जरूर टोना जानती होगी. कैसा झटक गया है शिवा आजकल.’’  
दूसरी महिला ने हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, “आठ किलास पढ़ी है, कोई थोड़ा-मोड़ा नहीं. तभी तो जो बुधुआ उससे लात के बिना बात नहीं करता था, वही आजकल उसको देखते ही बकरी की तरह मिमियाने लगता है. एकदम गुलाम बन गया है उसका.”

चिडि़या के अभी पंख निकले ही थे ..आशाओं, उमंगों के खुले आकाश में उसने पंख पसारने शुरू ही किए थे..आनन्दातिरेक में चहचहाने लगी थी, कि क्रूर विधाता ने उसकी एक और परीक्षा लेनी चाही.

 पशुओं के लिए चारा काटने की मजूरी करता था बुधुआ. एक दिन घर से लड़-झगड़ कर निकला. बुआ की बातों में आकर बड़ा बेटा शिवा और बेटी सुन्दरी फूलमनी को अनाप-शनाप बक रहे थे, बुधुआ बहुत देर बर्दाश्त करता रहा जब सहन न हुआ तो बच्चों पर हाथ छोड़ दिया. बगल की कोठरी से सोमवारी भी पँहुच गई और फिर गाली गलौच, रोना-धोना. बच्चों पर हाथ उठाने के प्रायश्चित-स्वरूप बुधुआ ने निर्दोष फूलमनी का भी झोंटा खींच मायके भेजने की धमकी दे डाली और घर से निकल गया. रास्ते में गाँव के मुखिया से कहा-सुनी हो गई, मन न जाने कहाँ था, कुट्टी काटने की मशीन में चारा डालते समय हाथ चला गया, और बुधुआ जीवन भर के लिए लूला हो गया. 
 
जरा सी असावधानी और दुःख के बादल मँडराने लगे. बच्चे रोटी को तरसने लगे. फूलमनी ने बड़े
घर जाकर चैका बासन करने की बात उठाई, बच्चों का पेट जो भरना था, लेकिन बड़ी ननद सोमवारी उसी पर टूट पड़ी,  “आदमी ने खटिया क्या पकड़ ली गुलछर्रे उड़ाना चाहती है….महीना दो महीना आधा पेट खाएगी तो मर न जाएगी…बाप बीमार है तो चार पैसे शिवा भी कमाने लायक हो गया है”

“लेकिन जिज्जी मैं न चाहूँगी कि शिवा पढ़ाई रोके… उसका स्कूल छूट जाएगा…”  
“बड़ी आई पढ़ाई वाली …. एक तूने कमाल किया है और एक वो कर लेगा.. हमारे गाँव में कोई पढ़ा लिखा है..?” 
चीख चिल्लाकर सोमवारी का गला दुखने लगा तो वह अपनी कोठरिया में जा बिस्तर में दुबक गई.   
शिवा ने स्कूल छोड़ने की बात कही तो फूलमनी ने शिवा को बाप की कसम दिलाई कि स्कूल न छोड़ेगा   
“झूठा खाने से अच्छा है झूठे बरतन माँज कर पेट भरना…..”  
फूलमनी की बातों का किसी के पास जबाब न था. भाई की ठंडी चुप्पी सोमवारी के गुस्से की आग पर पानी डाल देती.
जिस दिन से बाप का हाथ कटा था शिवा गऊ हो गया था. न गाँव में साँढ़ सरीखे घूमना और न किसी से बोलना बतियाना. सीधे स्कूल और स्कूल से घर. फूलमनी जो खाने को देती खा लेता. बाप को दुर्दिन दिखाने के लिए स्वयं को जिम्मेदार जो मान बैठा था.

उन्हीं दिनों एक बार फिर जन-सुविधा स्टोर खोलने के लिए गाँव का मुआयना करने सरकारी टीम आई.  एक ऐसा स्टोर जहाँ राशन कार्ड दिखाने पर चावल चीनी तेल साबुन वितरित किया जाता है।

भला हो दो कोस दूर उस सरकारी अस्पताल की डाॅक्टरनी का जिनके पास फूलमनी इलाज के लिए गई थी. तन का इलाज करते हुए उन्होंने जब फूलमनी के मन के तारों को छेड़ा था तो उसकी व्यथा के साथ-साथ उसकी शिक्षा, काबिलियत और अभिलाषायें तथा महत्वाकांक्षायें भी तरंगित होने लगी थी.  गाँव की पंचायत में जब योग्य व्यक्ति खोजने का मसला उठा तब डाॅक्टरनी ने फूलमनी के नाम पर विचार करने की बात उठाई. मसला गम्भीर था, इतने सारे मर्दों को अयोग्य घोषित कर एक स्त्री को सरकार का प्रतिनिधि नियुक्त किया जाए, यह बात किसी भी वर्ग को मंजूर न थी. लेकिन  ..समय बीतने लगा… 

जान-सुविधा स्टोर खोलने आये अधिकारियों का जमावड़ा लगा था. 
 आज से पाँच साल पहले शायद बुधुआ भी इसी भीड़ में शामिल हो जाता. फूलमनी का नाम लिए जाने पर शायद बिना कसूर उसकी जम कर पिटाई भी करता परन्तु आज गर्व से सीना तानकर वह फूलमनी की वकालत के लिए तैयार खड़ा था.

गाँव की औरतें व बच्चे उत्साहित थे.  आज उनके गाँव में भी एक जन-सुविधा स्टोर खुलने की बात हो रही थी.  अब उन्हें दैनिक जरूरत के सामानों के लिये दो कोस चलकर नहीं जाना पड़ेगा. स्टोर कोई भी चलाए इससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता था. उन्हें तो बस अपने दुखों का अंत नजर आ रहा था . न जाने कितने वर्षों  से उनका सपना था कि उनके गाँव में भी सरकार एक स्टोर खोले लेकिन पूरे गाँव में एक भी पढ़ा लिखा योग्य, काबिल व्यक्ति नहीं था,  जिसके कंधों पर सरकार इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपने पर विचार करती. जोड़-बाकी, गुणा-भाग के साथ सामानों के आगत-निर्गत का हिसाब रखना सबके बस की बात न थी.
फूलमनी .. फूलमनी… के नारे लग रहे थे…  
बुधुआ अपने कटे हाथ की दुहाई दे देकर चूड़ी वाले हाथों की पैरवी कर रहा था. पूरे गाँव की भलाई  के लिए वह अपने सिर पर ‘जोरू का गुलाम’  होने का आरोप लेने को सहर्ष तैयार था.  

फिर आया 14 अगस्त का ऐतिहासिक दिन जब सरपंच जी के घर अफसरों का जम कर स्वागत हुआ.  गाँव के बड़े बूढ़े व बच्चों के चेहरों पर विजयी मुस्कान खिली. फूलमनी को एक जंगली फूलों का हार पहनाया गया.  तालियों की गड़गड़ाहट से वातावरण नहा गया .
आज फूलमनी के लिए सबके दिल से आशीर्वाद निकल रहे थे. आज बुधुआ बड़ा सा मिठाई का डब्बा लिए साफ-सुथरे नए कपड़ों में बच्चों को साथ लिए उपस्थित था. दो छोटे वाले फूलमनी के बच्चे और दो बड़े, बड़की के. शिवा और सुन्दरी, उसके नन्हे मासूमों का हाथ पकड़े, एकटक उसे ही निहार रहे थे,  जैसे कह रहे हो, 
“माँ…. हमें तुम पर गर्व है.”   
सोमवारी नहीं आई… भाई का दूसरा विवाह करवाने की जिद करके अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारने के लिए पछता जो रही थी.. 
फूलमनी ने एक ताजी ठंडी हवा का झोंका महसूस किया. उसे लगा जैसे बरसों बाद आज वह मुस्कुराई है. मन की ऐंठन, तानों उलाहनों की चुभन, डर, अवसाद, पीड़ा……. पिघलते मोम की तरह बहने लगी. जिस खुशी को बाहर आने से वह जबरन रोक रही थी वह फूट कर बाहर आने को बेताब हो रही है. आज उसने अपने आप को नहीं रोका. वह मुस्कुराई …….. शरमाई…… फिर दोनों हाथ ऊपर उठा कर ईश्वर को धन्यवाद दिया और बच्चों को इशारे से अपने पास बुलाया,  सबके साथ मिलकर दुकान का ताला खोला.

एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी।  चूड़ी वाले हाथों में बुधुआ का कटा हाथ सुरक्षित था।  

सुधा गोयल ‘नवीन’
शिक्षा- एम.ए( हिंदी ) इलाहाबाद विश्वविद्यालय 
प्रकाशित पुस्तकें…..  हंस, वनिता आदि अनेक पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में कविता, कहानियों, लेख, संस्मरण का प्रकाशन.  आकाशवाणी से प्रसारण…   दो कहानी संग्रह प्रकाशित   
लेखन की विधाएं…    कहानी, कवितायें, लेख, यात्रा संस्मरण,जमशेदपुर एंथम का लेखन.                         
                         

                                     
 
                                

0
0 0 votes
Article Rating
12 Comments
Inline Feedbacks
View all comments