नहान

नहान

नहान…!

ट्रैन के डब्बे की उमसभरी घुटन से जानकी बेहाल थी। रह रहकर पसीने और कडवे तेल का मिला जुला भभका आता और नथुनों में समा जाता। यह तो कहो उसे और विशम्भर जी को खिड़की के पास वाली सीट मिल गयी थी। बाहर से आती ताज़ी हवा से कुछ राहत थी। भीतर तो बहुत ही बुरा हाल था। लोग भेड़ बकरियों की तरह ठुँसे पड़े थे। जो जहाँ था, वहीं फँसा बैठा था। ज़रा सा हिला नही, कि दूसरा यात्री और फैल जाता। जगह खोने के डर से हर यात्री बस साँस लेने भर की ही हरकत कर रहा था। मजाल है कोई टस से मस हो जाये। शौचालय जाने का तो प्रश्न ही नही था। यात्रियों ने उसे भी घेर रखा था। डब्बे में लोग ज़बरदस्ती घुस आए थे। गठरा गठरी लादे, जिसके जहाँ सींग समाए ठेल ठाल कर घुस गया। भीड़ को देख जानकी बोली, “क्यों जी, यह तो आरक्षित डब्बा है न?” विशम्भर जी मुस्कुरा दिए। “आस्था की बाढ़ को कौन रोक पाया है।सभी पुण्य कमाना चाहते हैं। जिसको जो साधन मिला उसी पर हो लिया। कुछ ही देर की बात है, बस पहुँचने ही वाले हैं।”
ट्रैन हर स्टेशन पर रुक रही थी। और हर स्टेशन पर एक रेला चढ़ता और उसी भीड़ में जज़्ब हो जाता। अब तो लोगों ने एतराज करना भी बंद कर दिया था। लोग इतने त्रस्त थे कि कोई किसी के मुँह नही लगना चाहता था। जबरियन घुसने वाले लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी और साथ ही आरक्षित यात्रियों की मुश्किलें।
गठरी बनी बैठी जानकी की देह ऐंठने लगी थी। पैर लंबे करे भी तो कैसे, दोनों बर्थ के बीचमें भी लोग अटे पड़े थे। एक अजीब सी महक डिब्बे में तैर रही थी। उसका जी मिचलाने लगा। विशंभर ने तौलिया भिगोकर जानकी को देते हुए कहा, लो चेहरे पर फैला लो। बस घण्टेभर की बात है। जानकी ने तौलिया पसीने से लथ पथ चेहरे पर फैला लिया। खिड़की से आती ठंडी हवा से, राहत की एक लहर शरीर में दौड़ गई और मन पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर जा पहुँचा।
***
जानकी अपने घर गृहस्थी के काम निबटा रही थी। रात हो चली थी, और विशम्भरजी उसे एकटक देखे जा रहे हैं। बालों में सफेदी उभर आई थी, आँखों के नीचे गड्ढे पड़ने लगे थे, पर जोश में कोई कमी न थी। गठिया के बावजूद, घर में चक्करघनी की तरह घूमती, सबकी जरूरतें पूरी करती हुई।
जानकी ने कनखियों से देखा,
“क्या हुआ जी। ऐसे क्या देख रहे हो।”
“कुछ नहीं, यहाँ, आओ, पास बैठो।” जानकी उनके पास आकर बैठ गई। वे उसका हाथ हाथों में ले, देर तक सहलाते रहे।
“क्या सोच रहे हो?” जानकी ने फिर पूछा।
“ सोच रहा हूँ, इस वर्ष हमारे विवाह को पूरे चालीस वर्ष हो जायेंगे। जैसे ही ब्याहकर आयीं, घर गृहस्थी में जुट गयीं। गृहस्थी भी तो कितनी बड़ी थी। अम्मा बाबू, चार भाई बहन। दिनभर सबकी सेवा टहल में गुज़र जाता। कभी अपने बारे में नहीं सोचा। सारा जीवन परिवार के लिए होम कर दिया। बच्चों की जरूरतें पूरी करते करते, अपनी इच्छाओं को परे सरकाती रहीं। बस यही कहा, “अरे ज़िंदगी पड़ी है, फिर सही।” अपने लिए कभी कुछ नही माँगा। बस एक बार तुमने कुम्भ में कल्पवास की इच्छा जताई थी। तब तो न कर सका। पर अब हम अपने दायित्वों से फारिग हैं। दोनों बेटों का काम अच्छा चल निकला है, अपने परिवारों में व्यस्त हो गए हैं। अब जीवन के इस पड़ाव पर पहुँचकर, अपने सभी दायित्व निभाकर सोचता हूँ, और कुछ तो दे न सका, तुम्हारी यह इच्छा तो पूरी कर दूँ। अबकी चलो कुम्भ में संगम स्नान कर आयें।”
खुशी तैर गई थी उसकी आँखों में। “सच…!”
पर तभी शंकाओं ने धर दबोचा था। “इसका खर्च…!”
“मैंने जोड़ रखे हैं पैसे। किसी के आगे हाथ नहीं फैलाने होंगें।”
“पर क्या बच्चे इतनी आसानी से मान जायेंगे। उनसे एक बार पूछ तो लीजिये। उन्हें हमारे जाने से परेशानी तो नहीं होगी। बच्चे भी छोटे हैं। बहुएँ संभाल पायेंगी।”
“जानकी अब बस। ज़िंदगी भर दूसरों की सोचती रहीं। कभी तो अपने लिए सोचो।”
“आप एक बार बच्चों से बात कर लेते।”
“कर लूँगा। पर इजाज़त नही लूँगा, केवल सूचित करूँगा।”

कितना कोहराम मचा था उस दिन..!
छूटते ही बड़ा बेटा चिल्लाया।
“यह क्या कह रहे हैं। कल्पवास करेंगे, इस उम्र में और इतनी ठंड में? तबियत खराब हो गई तो परदेस में कौन संभालेगा। हमारे बस का नही दौड़ धूप करना। क्यों जान सांसत में डाल रहे हैं। शांति से घर में बैठिए, इतनी ठंड में, कहीं जाने की ज़रूरत नहीं।”
छोटा भी बड़े की हाँ में हाँ मिलाने लगा,
“ठीक ही तो कह रहे हैं भैया। कल्पवास में हर साल ठंड से कितनी मौतें होती हैं, आप ही तो बताते हैं, फिर क्यों यह झंझट मोल रहे हैं? आये दिन माँ गठिया के दर्द से परेशान रहतीं हैं। वहाँ मीलों चलना पड़ेगा। चल पायेंगी?”
“अच्छा, घर पर जब दिन भर तुम लोगों के आगे पीछे, दौड़ती रहतीं हैं, तब कभी ख्याल नहीं आया, कि गठिया से परेशान हैं, कैसे करतीं होंगीं। आज बड़ी चिंता हो रही है। कभी उनके बारे में सोचने की फुरसत मिली। उन्हें क्या अच्छा लगता है, उनकी क्या पसंद है। उनकी क्या इच्छा है..!”
“अब बस, मुझे कोई दलील नहीं सुननी। हमने तै कर लिया है, हम जा रहे हैं।”
“और हाँ तुमसे इजाज़त नही माँग रहा, केवल सूचना दे रहा हूँ कि हम दोनों हफ्तेभर के कल्पवास के लिए जा रहे हैं। मन लगा तो और रुकेंगे, नही तो लौट आयेंगे। रहने खाने का प्रबंध भी स्वयम कर लेंगे। तुम्हें न चिंता करने की ज़रूरत है न दौड़ धूप की। पैंसठ साल का हूँ, पर अभी बहुत हिम्मत है शरीर में।”
“चलो जानकी सामान बाँधो, चलने की तैयारी करो।”
हमेशा शांत रहनेवाले पिता का यह रूप देख दोनों बेटे सहम गए थे।
जानकी को यह सब अच्छा नही लग रहा था।
“रहने दीजिए न, इतनी कलह करने की क्या ज़रूरत है।”
“नही जानकी, जीवन में तुम्हारे लिए कभी कुछ नही कर पाया। अब तो करने दो।”
जानकी ने कुछ नहीं कहा और वह दोनों चल पड़े थे।
***
ट्रेन प्रयागराज जंक्शन पर रुकी तो डब्बे में हड़कंप मच गया। उसकी तंद्रा टूटी। देखा लोग अपना अपना सामान बटोरकर, धक्का मुक्की में लगे हैं। हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई, तो जानकी का हाथ थाम विशम्भर जी ने बैठाते हुए कहा, “बैठ जा भागवान, आराम से उतरेंगे। ट्रैन इससे आगे नही जाएगी। ज़रा पैर फैला लो, गाँठे पड़ गई होंगी, मुड़े मुड़े।” जानकी ने हौले से पैर सीधे किए, दर्द की एक लहर चोटी तक दौड़ गई। “यह मुआ गठिया तो मेरी जान लेकर जाएगा।”
“चलो आराम से उठो, कोई जल्दी नहीं,” कहते हुए विशंभरजी ने सहारा देकर जानकी को उठाया, एक हाथ में अटैची उठाई और दूसरे से उसे थामे धीरे धीरे दरवाजे की ओर बढ़े।
डब्बा अब लगभग खाली हो चुका था।
ट्रेन श्रद्धालुओं से भरी पड़ी थी, हर डब्बे का वही हाल था। लोगों के जत्थों के जत्थे उतर रहे थे। डब्बे से उफना सैलाब अब स्टेशन पर बह रहा था। और वह समुंदर, प्लैटफ़ार्म पर उछाल मार रहा था। एक दूसरे को मजबूतीसे थामे, कुनबे के कुनबे एक दिशा में हाँके जा रहे थे। कुछ लोगों ने एक मोटी सी रस्सी थाम रखी थी, कुछ एक लंबी सी धोती से बंधे, गिरते पड़ते बढ़ते जा रहे थे। लोगों के शोर में, उद्घोषिका की आवाज़ दब चुकी थी, पुलिस वाले लोगों को डाँटते हुए, अलग अलग निकास द्वारों की ओर भेड़ बकरी की तरह हाँक रहे थे। यात्रियों की सुविधा के लिए कई अस्थायी प्रवेश एवं निकास द्वार बने हुए थे। उन पर जानवरों के चित्र बने थे। पुलिस लगातार निर्देश दे रही, “यह जत्था हाथी वाले गेट से बाहर निकलेगा। इस लाइन में खड़े लोग, गाय के चिन्ह वाले द्वार से निकलेंगे।” अजीब नज़ारा था। जानकी पति का हाथ कसकर पकड़े थी। भीड़ को बारी बारी से, थोड़े थोड़े अंतराल पर छोड़ा जा रहा था। श्रद्धालु ऐसे भड़भड़ाकर निकलते जैसे पशु, बाड़े से निकल रहे हों। पुलिस का इतना कड़ा बंदोबस्त, मजाल है, कोई एक जत्थे से दूसरे में घुस जाये। इतनी भीड़ देख, जानकी घबरा गई। “सुनो जी, यहाँ तो कितनी भीड़ है, हम लोग कैसे पहुँचेंगे।” “बस भीड़ के साथ चलती चलो, सबका गंतव्य एक ही है।” विशंभर जी एक हाथ में अटैची और दूसरे में जानकी को कसकर थामे, स्टेशन से बाहर निकले।
बसों की कतारें लगीं थीं, पर अधिकतर लोग, अपना बोझा और कुनबा ढोते, पैदल ही चल पड़े थे। बाहर निकलते ही, अचानक सेंकड़ों रिक्शे, टेम्पो वाले कुकुरमुत्तों की तरह उग आए।
“क्यों साहब संगम जाना है, बैठ जाइए। एक सवारी का 50 रुपए किराया लगेगा।”
जानकी ने कातर दृष्टि से पति की ओर देखा। “भैया कुछ तो कम कर दो। नहीं बाबूजी फ़िक्स्ड रेट हैं। जल्दी बैठिए, नहीं तो टेम्पो भर जाएगा। इससे कम रेट में कोई ले जाये, तो मैं आधी मूँछ मुंडवा दूँ।” नया शहर, गंतव्य का अता पता नहीं, विशंभरजी ने बहस करना उचित न समझा, और जानकी को टेम्पो में चढ़ाकर, उसके बगल में बैठ गए।
दोनों बड़े कौतूहल से आसपास का नज़ारा देख रहे थे । एक इंसानी नदी सड़कों पर बही जा रही थी। जहाँ तक नज़र जाती सिरों पर लदी गठरियाँ ही दिखाई दे रही थीं। छोटे छोटे बच्चे कन्धों पर चढ़े, भौचक्के से इस नई दुनिया को देख रहे थे। शहर की सड़कें दुल्हन की तरह सजी हुई थीं। हर चौराहे पर गमलों में सुंदर पौधे उग रहे थे। लोगों के घरों पर, छाल दीवारों पर रंगों से, नेताओं, और घाटों के सुंदर सजीव चित्र बने हुए थे।
संगम से कुछ दूरी पर सवारियाँ उतार दी गईं। यहाँ से आगे का रास्ता पैदल ही तै करना था। तट पर पहुँचते ही ठंडी गंगा बालू के स्पर्श से जानकी का रोम रोम सिहर उठा। कितना तरसी थी वह इस पल के लिए। संगम तट पर तीर्थयात्रियों के रहने के लिए, शिविर बने थे, जहाँ बिजली पानी शौचालय की पूरी व्यवस्था थी। पुआल पर दरियाँ और गद्दे बिछे थे, जिससे शिविर खासा गरम था। देखते ही जानकी की थकान मिट गयी। थोड़ी देर सुस्ताकर दोनों निकल पड़े। सड़क के बीचों बीच, गाड़ियों की आवाजाही के लिए लोहे की प्लेट पड़ीं थीं, जिनके सिरे, लोहे के कुंडों से बंधे थे। बालू को बैठाने के लिए बड़े बड़े पानी के टंकेर्स तरी कर रहे थे। सड़क के दोनों तरफ खूब सारे स्टॉल थे। रंग बिरंगी मालाएँ, हाथों में हाथ डाले झूल रहीं थीं, गाढ़ी लाल, पीले, नारंगी रंगों के सिंदूर की सजी ढेरियाँ, सुहागनों को बरबस अपनी ओर खींच रही थीं। जगह जगह इलाइची दाना, रेवड़ियाँ, बताशे, कलावा, व अन्य पूजा की सामग्री बिक रही थी। गृहस्थी की ज़रूरत का सारा सामान, कड़ाही, करछुल, कद्दूकस, सूप चलनी, चलना, गृहनियों के आकर्षण का केंद्र थे। वहीं, सुहागनों और युवतियों को कड़े, कंगन, चूड़ी, बिंदी, लाली, रंग बिरंगे चुटीलों, की दुकानें मोह रही थीं। दोनों टहल रहे थे, तभी उद्घोषणा हुई, संध्या आरती का समय हो रहा है, जो भी श्रद्धालु, देखना चाहें, घाट की तरफ प्रस्थान करें।
संध्या आरती के लिए, गंगा किनारे सुंदर सजे हुए मंचों पर पूजा की तैयारी हो रही थी। एड़ियाँ उचकाए रोशनी से जगमाते ऊँचे छत्र सितारों से होड़ लगा रहे थे। अपने कैमरा और मोबाइल से लैस, उस भव्यता को समेटने, लोग, नावों और घाटों पर आतुर बैठे थे। आरती आरंभ हुई। घंटा, घड़ियालों, शंख ध्वनियों और मंत्रोच्चारण के बीच, सेंकड़ों रश्मियाँ बिखेरते सहसत्रों लौ से प्रज्वलित विशाल दियों से होती भव्य आरती जानकी को एक दिव्य स्वप्न सी लग रही थी। गंगा की लहरों, में झिप झिपाते दीपों की आँख मिचौली देख, जानकी का रोम रोम हर्षित हो उठा, और अश्रुधारा बहने लगी। अद्वितीय था वह अनुभव…! जीवन भर के तप का पुण्य आज उसे मिल गया था।वह दृश्य सदा के लिए उसके मानस में अंकित हो गया।
“थक गयी होगी जानकी, चलो थोड़ी कमर सीधी कर लो,” कहकर विशंभर जी, उसे शिविर में लिवा लाये। वह लौट तो आयी, पर मन वहीं घाट पर छूट गया।
भोजन पश्चात वह दोनों फिर निकल पड़े। एक पूरा शहर बसा हुआ था। कल्पवासियों की हर सुविधा को ध्यान में रखते हुए, अलग अलग शिविर बने थे। एक अस्थायी अस्पताल था, डाकखाना था, रेल की टिकिट आरक्षित करने की सुविधा थी। जगह जगह भोजनालय थे, कई लोगों ने लंगर खोल रखे थे। वे टहलते हुए, काली सड़क पर आ गए। यहाँ की तो रौनक ही गजब थी। रोशनी से आँखें चौंधियाने लगीं। बच्चे, बड़े, बूढ़े, हर उम्र, हर तपके का व्यक्ति, अपनी अपनी तरह से उस मेले का आनंद ले रहा था। बड़ी बड़ी प्रदर्शनियाँ लगीं थीं। रंगीन रोशनी से सजे ऊँचे ऊँचे झूलों पर लोग झूल रहे थे। उम्दा चाट के, दक्षिण भारतीय व्यंजन, छोले भटूरे, चाइनिज व्यंजनों के स्टॉल लगे थे।
इतनी हलचल से जानकी को घबराहट होने लगी, “सुनो जी यहाँ बहुत शोर है, चलो गंगा तट पर ही चलते हैं, वहाँ बहुत शांति है।”
दोनों लौट पड़े। गंगा किनारे, ठंडी बालू पर दोनों बैठ गये। यद्यपि कृष्णपक्ष चल रहा था, पर संगम क्षेत्र, रौशनी से नहाया हुआ था। शिशु लहरें, किनारे पर खड़ी नावों के किनारों से टकरा, छप छप की मधुर ध्वनि से एक सम्मोहन बिखेर रही थीं। मेले की भव्य सजावट मन मोह रही थी। पूरा संगम एरिया, तेज़ पीली रोशनी से जगमगा रहा था। विशालकाय पोंटूनों को जोड़कर बनाए पोंटून पुलों पर दुपहियों चारपहियों का आवागमन जारी था। दूर पुल से गुजरती रेलगाड़ियों की रोशनी, नदी में दीपमाला तरंगित कर रही थी। सिद्ध साधू संतों के भव्य शिविरों से प्रवचन और मंत्रोच्चारण के स्वर गूँज रहे थे। उनकी पताकाएँ लहराकर अखाड़े की श्रेष्ठता पर मोहर लगा रही थीं।
“जानकी चलना है प्रवचन सुनने, यह अवसर फिर नहीं मिलेगा”, विशंभर जी ने कहा।
“नहीं जी, बस यहीं बैठेंगे। भीड़ से दूर। यह गंगा का किनारा, उसमे झिलमिलाती रोशनी, दूर से आते भजनों और मंत्रों के स्वर, अद्वितीय है सब कुछ। मुझे तो इस पावन तट को छूकर ही मोक्ष मिल गया। आपने मेरे बरसों की साध पूरी कर दी,” कहते हुए जानकी ने अपना सिर विशंभर जी के सीने पर टिका दिया। वह इन पलों को एक सिरे से समेट अपने आँचल में सहेज लेना चाहती थी। वह पल, जो इस जीवन में अब कभी नसीब न होंगें। ठंड बढ़ती देख, विशंभर जी ने उसका माथा सहलाया, “जानकी, चलें….!” शीत की ठंड जोड़ों में समा रही थी। न चाहते हुए भी जानकी चलने को राज़ी हो गयी।
***
अगले दिन, शंख ध्वनि से आँखें खुलीं। खूब ढ़ोल ताशे बज रहे थे। संतों का आगमन जारी था। बड़े बड़े मठाधीश अपने अपने अखाड़ों के साथ, पूरी आन बान शान से अपने निर्धारित क्षेत्रों में आकर विराज रहे थे। ऊँचे ऊँचे निशान और पताकाओं से लैस, हाथी, घोड़े और रथों पर इनकी भव्य सवारी, पैदल चलता गेरुआ वस्त्र धरण किए भक्तों का रेला, अपने मठों की पताकाएँ लिए, इनकी प्रतिष्ठा स्थापित कर रहे थे। जब जुलूस आता तो सारे कल्पवासी सड़क के दोनों ओर खड़े हो जाते। जो जहाँ होता वहीं रुक जाता।
जानकी बड़े कौतूहल से सब देख रही थी। संगम पर स्नान का विशेष महत्व होता है। लोग नावों पर सवार हो, संगम जाते और डुबकी लगाकर पुण्य कमाते। जानकी और विषम्भर जी एक तिरपाल लगी नाव में बैठ गए। उसमें 15 और नहवहिये मौजूद थे। रास्ते में चिड़ियों को दाना खिलाने के लिए, नावों पर लोग छोटी छोटी पन्नी की थैलियों में सेव बेच रहे थे। जानकी ने भी दो पैकेट खरीद लिए। जब नाव बीच नदी में पहुँची, तो नाविक आ, आ आ की अजीब आवाज़ें गले से निकालने लगा। देखते देखते मुर्गाबियों का एक हुजूम अचानक प्रकट हो गया। लोग सेव निकालकर हवा में उड़ाते, और मुर्गाबियाँ उड़ कर उन्हें हवा में ही लोक लेतीं। नाव में बैठे बच्चों को तो आनंद आ ही रहा था, बड़े भी बच्चे बन गए थे। कों कों की कर्कश आवाज़ करती वह मुर्गाबियाँ नाव के चारों तरफ मंडराती रहीं, पर जैसे ही सेव खत्म हुए, वह उतनी ही तेज़ी से कहीं और से आती उसी परिचित आवाज़ की दिशा में मुड़ गईं। नाविक ने बताया, “इननका साभेरियन डक कहते हैं। इह ठंडे प्रदेशन मा रहत हैं। ऊहाँसे हज्जारन मील उड़के यहाँ आवत हैं। अऊर आपन अंडा देके उड़ जात हैं। इन अंडन से जब बच्चा निकरत है, तो ओहु उड़े लायक होयके बरी, आपन प्रदेस उड़ जात है।”
“पर उन्हें रास्ता कैसे पता चलता है?”जानकी ने आश्चर्य से पूछा।
“वैसन ही जैसन उनन पक्षियन का ई ठिकान पता चलत है।” कहकर नाविक मुस्कुरा दिया। “हम मनई समझत हैं, कि हमहै सब प्राणियन मा सबसे बुद्धिमान हैं, पर इनन का और दूसर जीवन का देखे बरे, आपन बुद्धि पर तरस आवत है।”
जहाँ गंगा जमुना और लुप्त सरस्वती का संगम होता है, वहाँ गंगा की मटमैली धारा और जुमुना जी के हरे जल के बीच की लकीर साफ दिखाई दे रही थी। नाविक ने उन्हें दिखाया, “यह देखें, ई है संगम…! इंहा पानी बहुत गहरा होत है।” वहाँ से थोड़ी दूरी पर, कई तखत बीच धार में गढ़े थे, जहाँ लोग उतरकर स्नान कर रहे थे। वहाँ पंडों और पुजारियों की भीड़ थी। पहुँचते ही, पंडों ने घेर लिया, “जजमान, संगम पर पुरखन का पिंडदान करीहैं, तो पुरखे तर जाएँगे। बस छोट पूजा है, कहें जजमान”। पर विशंभर जी के एक मित्र ने उन्हें पहले ही आगाह कर दिया था, कि “पंडों के चक्कर में भूले से भी न पड़ना, फँसे, तो लंबा चूना लगेगा,” उन्होने कहा, “भाई, हम केवल एक नारियल, अगरबत्ती और फूल चढ़ा देंगे।” हिकारत से देखते हुए, पंडे छिटकने लगे, “ देखे में तो भले मानुस लागत हैं, पर अंटी ढीली न करिहैं। आपन पुरखन से बढ़कर है पैसा, घोर कलजुग”। विशंभर जी कुछ नहीं बोले । दोनों ने डुबकी लगायी। जानकी का जीवन तर गया। यही तो वह पल था, जिसकी इतनी लंबी प्रतीक्षा की थी। गंगा मैया की गोद में डुबकी लगा, जानकी का मनोरथ पूरा हो गया था।वह हाथ जोड़े आँखें बंद किए खड़ी थी। “माँ यह मेरे सत्कर्मों का ही प्रसाद है, जो आज तुम्हारी गोद का स्पर्श कर सकी। मैं धन्य हुई माँ” आँखों से अश्रुधारा अविरल बह रही थी। पास ही लकड़ी के एक तख्त पर कपड़े बदलने के लिए आड़ बनी थी। नाव लौटने को तैयार थी, सभी यात्री, कपड़े बदलकर, उसपर सवार हो चुके थे। जानकी और विशंभर भी आकर अपनी जगह पर बैठ गए। लौटते हुए, जब तक संगम आँखों से ओझल नहीं हो गया, जानकी एकटक उसे देखती रही।
सूरज क्षितिज की तरफ तेज़ी से बढ़ रहा था, अरुणाई पानी में हौले हौले पिघल रही थी, लहरों पर स्वर्ण चूर्ण, हिचकोले खा रहा था। बादलों का रंग देखते देखते, नारंगी से लाल, फिर, नीला , फिर बैंगनी होता जा रहा था। सूरज डुबकी लगा चुका था। अँधेरा घिरने लगा था। हवा में ठंडक बढ़ गई थी। किनारे उतरकर नाविक का किराया दे, वे लोग अपने शिविर की तरफ बढ़ गए। दोनों चुपचाप चल रहे थे। जानकी उस विलक्षण अनुभव को पुन: पुन: दोहरा रही थी। और विशंभरजी, अपने मनोरथ को पूर्ण कर संतुष्ट थे।
“खुश हो,” विशंभर जी ने जानकी का चेहरा हथेलियों में भरकर पूछा। जानकी उनके सीने से लग गई।
“बरसों की मुराद पूरी हो गई। जीवन सफल हो गया जी।”
विशंभर जी ने उसे अंक में भर लिया। गंगा की धारा, चाँद तारे नक्षत्र उस पल के साक्षी बन मुस्कुरा रहे थे।
अगले दिन मौनी अमावस्या का सबसे बड़ा नहान था। मानता है, कि इस रात अमृत बरसता है। इस विशेष दिन के लिए, लोगों की भीड़ चली आ रही थी। रात तीन बजे से नहान का मुहूरत था। सबसे पहले सभी संत बारी बारीसे अपने अखाड़ों के साथ नहाने उतरे। निबटते निबटते, धूप सिर पर चढ़ गई थी। जानकी का हलक सूखने लगा था।
“सुनिए जी, बहुत ज़ोर से प्यास लगी है।”
“अच्छा रुको , मैं पानी लेकर आता हूँ । तुम यहीं इसी जगह खड़ी रहना । यहाँ से हटना नहीं । यह पीछे जो पंडाल बना है न, श्री श्री श्री 1007 बाबा, बस यहीं रहना “, कहकर विशंभरजी चले गए । जानकी वहीं खड़ी, भीड़ को आते जाते देख रही थी।
तभी वहाँ से नागा बाबाओं का जुलूस निकला। सब तरफ अफरा तफरी मच गई। लोग जुलूस से बचने की कोशिश करने लगे। जानकी घबरा गई।
” अरे यह क्या हो रहा है। सब लोग भाग क्यों रहे हैं ? यह कहाँ रह गए ?”
तभी किसीने उन्हें धकेला, “अरे माई मरना है क्या, देख नहीं रही जुलूस आ रहा है। रास्ते से हट जाओ नहीं तो हाथी के पैरों के नीचे कुचल जाओगी,” कहते हुए वह आदमी जानकी को ठेलता हुआ दूसरी ओर ले गया।
“पर बेटा यह अभी आयेंगे तो हमें ढूँढेंगे। हम यहाँ से नहीं हटेंगे”
“अरे माई, जान बचेगी तब न मिलोगी। पहले जान बचाने की चिंता करो।” कहकर वह आदमी भीड़ में खो गया।
जुलूस तो निकल गया पर जानकी का धैर्य अस्त व्यस्त कर गया। वहाँ भगदड़ देखकर विशंभरजी जब भागते हुए पहुँचे तो जानकी नदारद थी। उनके तो होश ही उड़ गए।
“कहाँ चली गई। मैंने कहा था यहीं रहना। अब इस भीड़ में कहाँ होगी वह। वह अभागन तो कुछ जानती भी नहीं। पहली बार घर से निकली है। उसका क्या हाल हो रह होगा। हे ईश्वर , मैंने बेटों की बात क्यों नहीं मानी। अब उसे कहाँ ढूँढूँ।”
विशंभरजी बेहाल उसे संगम के तट पर खोज रहे थे। मीलों तक फैला लोगों का सैलाब, उसमें जानकी मिले तो कैसे।
तभी कुछ कार्यकर्ताओं ने उन्हें बेहाल देखा तो पूछा ,
“क्या बात है बाबा। किसे खोज रहे हैं?”
“अरे बेटा मेरी घरवाली खो गई है। बेचारी, पहली बार घर से निकली है। कुछ नहीं जानती। अब इस भीड़ में कहाँ खोजूँ। ”
“कोई बात नहीं बाबूजी। परेशान न हों, उनका नाम बताइये।”
” जानकी” उन्होने काँपते स्वर में कहा. “और आपका ? ” विशंभर”
“आप चलिये, यहाँ सहायता शिविर बने हैं, आप वहाँ बैठिए। यहाँ की व्यवस्था बहुत अच्छी है, माताजी मिल जाएँगी। ”
सहायता शिविर से अनाउंसमेंट हुआ ,”जानकी देवी मेले में जहाँ कहीं भी हों, उत्तर की तरफ दिखाई दे रहे राम के पुतले के पास पहुँच जाएँ। आपके पति श्री विशंभरजी यहाँ पर खड़े, आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनसे आकर मिल लीजिये।”
अनाउंसमेंट तीन चार बार हुआ। जानकी के कानों में जैसे ही यह शब्द पड़े, वह बौरा गई।
“अरे बेटा हम को राम के पुतले के पास पहुँचा दो। बहुत पुण्य कमाओगे।”
एक सज्जन उसका हाथ पकड़कर उसे वहाँ ले गए। जानकी को आता देख विशंभरजी की साँस में साँस आ गई।
” कहाँ चली गईं थीं जानकी ” कहते हुए वे उसकी तरफ लपके और कसकर गले से लगा लिया। जानकी एक बच्चे की तरह उनसे लिपट गई। हिचकियाँ बंधी थीं। शब्द गुम थे।
झर झर बहते आँसू ही सब कुछ कह सुन रहे थे।

सरस दरबारी
शिक्षा: पोलिटिकल साइंस में स्नातक
एकल काव्य संग्रह- मेरे हिस्से की धूप।
अनेक साझा काव्य, एवम लघुकथा संग्रह।
लेखन की विधाएँ: कहानी, लघुकथा, संस्मरण, आलेख, छन्दयुक्त एवम मुक्त छंद कविताएँ, हाइकु, माहिया, चौपाई, दोहे,इत्यादि।

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