साइकिल
“गौरी की माँ जरा पानी तो पिलाओ।”
रामधर पसीने से तर-बतर थे,चेहरा गर्मी से लाल हो रहा था।
“कुछ काम बना..?”
रामधर ने एक सांस में पानी गले के नीचे उतार दिया और तौलिये से मुँह पोछने लगे।
“जरा पंखा तेज कर दो..”
मालती मशीन की तरह रामधर की हर बात का पालन करती जा रही,पर उसकी आँखों में तैरते प्रश्नों का अभी तक सही जवाब नहीं मिला था।
“क्या हुआ जी! कहाँ रह गए थे,मेरी तो सांस ही अटक कर रह गई थी,जीवनभर की पूंजी आपको दी थी …मुझे लगा कोई ऊँच-नीच न हो जाये।कही रास्ते में किसी ने मुखबिरी तो नहीं कर दी।मुझे लगा कहीं किसी ने लूट तो..$$$”
“तुम भी न कुछ भी बोलती हो,तुम्हारी वो मरियल सी चेन, कान के बूंदों और टूटी हुई अंगूठी के लिए कोई ताक न लगा कर बैठेगा।”
“ऐसा न कहो गौरी के पापा, बाबू जी ने कैसे-कैसे करके शादी में दिया था। आपके पिता जी की जिद्द के चक्कर में खेत तक गिरवी रखना पड़ा तब जाकर आपकी ये साइकिल और वो मरियल सी चेन हुई थी और रही बात बूंदों और टूटी हुई अंगूठी की तो आपके परिवार ने ही तो शादी में चढ़ाई थी।हमारी अम्मा कितना रोई थी,ससुराल से कितना खराब चढ़ावा आया है बिटिया के लिए.. इतना हल्की कि फूंक दो तो उड़ जाये।”
“हाँ-हाँ तुम तो ऐसा ही कहोगी, तीन ग्राम की अंगूठी और पाँच ग्राम का कान का बूंदा था।”
“कल की बात आज तो याद रहती नहीं, तेईस साल पुरानी बात याद है। गिनती के पाँच साड़ी आई थी और ससुराल पहुँचे तो जेठानी ने तीन वापस ले ली। देखा जाए तो दो साड़ी ही चढ़ाये थे। घर-भर से इकट्ठा कर लिए और हो गई नाक ऊँची..हूं।”
शादी के तेईस साल हो चुके थे पर रामधर और मालती में नोक-झोंक होती ही रहती थी। इधर खटर-पटर ज्यादा ही बढ़ गई थी। गौरी उनकी इकलौती बेटी थी,रामधर ने एक अच्छा परिवार देखकर बिटिया का रिश्ता तय कर दिया था। रामधर एक छोटी सी नौकरी करते थे घर-परिवार ठीक-ठाक ढंग से चल रहा था। गौरी पेट्रोल के दाम की तरह बढ़ती जा रही थी, एक अच्छे परिवार की तलाश जारी थी पर लड़के वालों की मांग को देखकर वो निराश होने लगते।शुरू-शुरू में तो रामधर यही कहते ,”भगवान ने जितना दिया है उतना ही तो देंगे कोई अपने आप को बेच थोड़ी देंगे।”
इस कारण न जाने कितने अच्छे रिश्ते हाथ से निकल गए।बिटिया ताड़ की तरह बड़ी जा रही थी।हर टूटते रिश्ते के साथ गौरी का दिल भी टूट जाता था। एक गहरी उदासी उसकी आँखों मे दिखने लगी थी। तब मालती ने ही समझाया था,
“दहेज के बिना किसी की शादी हुई है। हमारे बाबूजी की भी हैसियत नहीं थी साइकिल देने की पर आपके पिताजी के आगे झुक गए न…”
“फिर वही सायकिल… तीन बार टायर बदलवा चुका हूँ, जब देखो तब चेन उतर जाती है। जब देखो तब टाँग उठा कर खड़ी हो जाती है तुम्हें कुछ पता भी है।साइकिल से ज्यादा उसकी बनवाई में अब तक पैसा लगा चुका हूँ।साइकिल न हो गई हवाई जहाज हो गया है।”
रामधर बड़बड़ाने लगते,मालती की आँखें छलक आती, इस साइकिल के चक्कर में पिताजी ने जमीन का टुकड़ा तक गिरवी रख दिया,तब भी…मालती ने आँगन में खड़ी साइकिल को चादर से ढक दिया।तेईस साल के वैवाहिक जीवन में वो एक दिन भी नहीं भूली थी कि साइकिल के लिए उसके पिता को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। कितना भी काम हो पर साइकिल को चादर से ढकना नहीं भूलती थी। तेईस साल से ढकते-ढकते वो चादर जगह-जगह से फट भी गई थी पर मालती उसे ढकना नहीं भूलती थी।
“कुछ काम बना…?”
” तुम्हारे गहने बेंच दिए पर मोटरसाइकिल के लिए पूरा पैसा नहीं हो पाया,दस हजार कम पड़ रहे थे।विपिन भइया के हाथ -पैर जोड़े तब जाकर दस हजार का इंतजाम हो पाया।”
मालती के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई,
” गौरी के पापा!कहाँ से चुकायेगें इतना पैसा…?”
“बिटिया अपनी घर मे सुखी रहे बस …भगवान है न सब हो जाएगा।”
रामधर ने आसमान की तरफ देखा और आँखें बंद कर हाथ जोड़ लिए,मानो उस परम पिता के दरबार में अर्जी लगा रहा हो। प्रभु अब तुम्हारा ही सहारा है… मालती की आँखें भर आईं, रामधर को देख आज उसे अपने बाबू जी की याद आ गई। उसके ब्याह के वक्त बाबूजी भी तो इसी तरह भगवान से उसकी ख़ुशी की गुहार लगा रहे थे और अम्मा दहेज की साइकिल की खातिर जमीन के टुकड़े को गिरवी रखता देख अपने भविष्य के लिए चिंतित हो रही थी।
घर में शादी की चहल-पहल थी,मालती कुछ न कुछ काम फैला कर बैठ जाती।कभी गेहूं बीनना तो कभी चावल,रामधर ने रंग-रोगन का काम भी लगवा दिया था। घर में चूनाकली शुरु हो गई थी।गौरी रामराज घोलकर घर की दीवारों पर तरह-तरह की आकृति बनाती रहती।मालती की आँखें भर-भर आती थी,नन्ही गौरी इतनी जल्दी कब बड़ी हो गई। बड़ी अम्मा सील पर उड़द पीस रही थी,आज पांच सुहागन मिल कर बड़ी डालने वाली थी। मालती साथ ही साथ देवी गीत गुनगुना रही थी,गौरी की विदाई का सोच उसका गला बार-बार रुंध आता था। गौरी दौड़-दौड़ कर सारे काम निपटा रही थी।मालती का जी सोच-सोचकर हलकान हुआ जा रहा था,गौरी के जाने के बाद इस घर को वो अकेले कैसे संभालेगी। गौरी मालती को एक काम करने नहीं देती थी,जब से उसका लग्न तय हुआ था पीहर की ड्योढ़ी उसे और भी अपनी ओर खींच रही थी।
मालती सोच रही थी उसके ब्याह को भी तो तेईस बरस हो गए पर पीहर की दहलीज का मोह आजतक न छूटा। रामधर कभी चुटकी भी लेते…”उन्नीस बरस की उम्र में ब्याह कर आ गई थी ,तेईस साल से यहाँ रह रही हो पर उस घर का मोह छोड़ नहीं पाई।”
क्या इतना आसान था मोह छूटना, मायका तो हर उम्र में चाहिए होता है। इस जग की रीत भी तो यही है ससुराल की डयोढ़ी में प्रवेश से लेकर ससुराल की डयोढ़ी छोड़ने तक पीहर से विदाई से लेकर दुनिया से विदाई तक में पीहर की याद आती है। पहले कपड़े से लेकर अंतिम कफ़न भी तो पीहर ही करता है।फिर उस दहलीज़ को वो कैसे भूल जाये। वो खुद चली आई थी पर अपनी आँखें उसी दहलीज पर छोड़ आई थी। क्या नये रिश्तों के लिए पुराने रिश्ते छोड़ना इतना आसान था और छोड़ना भी क्यों… बाबू जी ने कन्या दान किया था,पिण्ड दान नहीं,
तभी दरवाजे पर शोर मचा,रामधर कमरे से निकल आये। विपिन भैया चमचमाती मोटर साइकिल लिए दरवाजे पर खड़े थे, मुहल्ले के बच्चे विपिन भैया को घेर कर खड़े थे।वो मोटरसाइकिल को छू-छू कर देख रहे थे।रामधर और मालती अपने अन्नदाता को दरवाजें पर देख खुशी से दोहरे हुए जा रहे थे।रामधर ने मालती को इशारा किया,मालती रसोई की तरफ भागी और पानी का गिलास और बूंदी का लड्डू लेकर हाजिर हो गई।
“रामधर!ये लो अपनी अमानत… मोटरसाइकिल के सारे कागज़ पत्तर सम्भाल कर रखना। यही खड़ी कर दूँ या फिर आँगन में कर दूँ।”
विपिन भैया ने रामधर की ओर प्रश्न उछाला, सबकी आवाज को सुनकर गौरी भी बाहर निकल आई।
“भैया ! अंदर खड़ी कर दे,ये मुहल्ले के बच्चे बड़े दुष्ट है.कहीं खरोंच न मार दे। कितनी बार तो मेरी साइकिल की गद्दी पर ब्लेड चला दिया है। पिछले महीने तो साइकिल की हवा भी निकाल दी थी।”
“यहाँ से देने की क्या जरूरत थी,लड़के वाले अपने शहर से खरीद लेते ।तुम भी न फ़ालतू के झंझट में पड़ गए।”
भैया!आपसे क्या छिपाना,मन तो उनका भी यही था कि पैसे दे दो हम खरीद लेंगे पर भैया आपकी वजह से जो छूट मिल गई वो कैसे मिलती।मुझे तो पूरे पैसे ही देने पड़ते न…हमारे नाते -रिश्तेदारों को कैसे पता चलता कि हम बिटिया को शादी में मोटरसाइकिल दिए हैं,खर्च भी करते और बिटिया को खाली हाथ विदा कर देते।इसलिए हम पहले से उनके पसन्द का रंग-मॉडल पूछ लिए थे।”
विपिन भैया घुर-घुर की तेज आवाज के साथ मोटर साइकिल को अंदर ले आये और आँगन में साइकिल के बगल में खड़ी कर दी। विपिन भैया शादी में आने का वायदा कर थोड़ी देर में चले गए,मालती गौरी को ढूंढते हुए आँगन में आ गई। गौरी मोटरसाइकिल को चादर से ढंक रही थी।मालती की आँखें भर आईं,वो तेईस साल पीछे उसी जगह खड़ी थी जहाँ आज गौरी खड़ी थी।
डॉ. रंजना जायसवाल
मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश