नथ

नथ

सकीना आफ़ताब से लिपट कर ,हिचकी ले लेकर रोये जा रही थी ,बड़ी-बड़ी पनियाई आंखें कमल पर गिरे ओस की बूंदों सी खूबसूरत लग रही थीं। आफ़ताब किसी छोटे से बच्चे की तरह सकीना को बाहों में भरे कभी उसके माथे को चूमता तो कभी उसकी बिखरी लटों को संवारते हुए उसे समझाने की कोशिश करता -“सक्कू! मैंने कहा न कि मैं जल्दी ही लौट आऊंगा, नौकरी है, जाना तो पड़ेगा न! और…फ़िर तुम अम्मी के साथ रहती हो तो मैं भी सुकून से ड्यूटी कर पाता हूँ ,तुम्हीं बताओ अम्मी को यहाँ अकेले छोड़ना क्या मुनासिब होगा ?” आफ़ताब ने उसकी गहरी आंखों में झांकते हुए और अश्कों से भींगे रुख़सारों को हथेलियों से पोंछते हुए थोड़े से चिंतित स्वर में पूछा।

सक्कू किसी नन्हें बच्चे की तरह सिसकी पर काबू पाते हुए बोली-“अम्मी!इस घर को छोड़कर क्यों नहीं जाना चाहती हैं?तुम्हारे जाने के बाद इतना बड़ा घर काटने को दौड़ता है, अम्मी तो दिनभर खालाजान से गुफ़्तगू कर अपना मन हल्का कर लेती हैं…पर मैं….मैं कहाँ जाऊं? तुम अम्मी को समझाओ न हम तीनों एक जगह एक साथ रहेंगे।”

आफ़ताब के पिता का वह पुश्तैनी घर था, बाप दादाओं ने न जाने कितनी हसरतों से और अपनी कितनी ज़रूरतों को पीछे रखकर ये हवेली नुमा घर बनवाया था जहां उनके ख़ानदान के बच्चे ने किलकारियां भी भरी थीं और जवान भी हुए थे।आज हवेली भले बूढ़ी हो गई हो किन्तु उसके दर-ओ-दीवार को देखकर उसकी जवानी के ठाट और खूबसूरती का अंदाज़ा बेशक लगाया जा सकता है। आफ़ताब की अम्मी की ले देकर वही हवेली थाती थी जहां कभी वे दुल्हन बनकर आइ थीं और बेवा हो जाने पर और उनकी एक उम्मीद उनकी आंखों का नूर…उनका लाडला… आफ़ताब…
अब्बू के इंतकाल के बाद अम्मी चिड़चिड़ी और थोड़ी ज़िद्दी हो गई थीं,बात-बात पर ख़फ़ा होना, ज़िद करना और अपनी सारी नाराज़गी बेक़सूर सकीना पर उतारना उनकी आदत में शुमार हो गया था ।
आफ़ताब जानता था कि अम्मी जीते जी अब्बू की निशानी ‘इस घर’ को कभी अलविदा नहीं कहेंगी । अम्मी, आफ़ताब की कमज़ोरी थीं और कशमकश ये कि वो इन दोनों में से किसी को भी नाराज़ नहीं करना चाहता था।

“अरी सक्कू! रो धोकर क्यों अपशकुन कर रही है ? मेरे बेटे को हंसी खुशी अल्लाहाफिज़ कर , मुई हलकान हुई जा रही है रो रोकर।” अम्मी ने पोपले मुंह से लगभग चीखते हुए कहा।
आफ़ताब ने सकीना के माथे को चूमते हुए और उसके उभरे पेट पर हाथ फिरा कर शरारत से मुस्कुराते हुए कहा- “मेरे छोटे नवाब का ख़याल रखना और मेरी मोहब्बत ‘सक्कू’ का भी,समझी !”

आफ़ताब फौज में था उसके अब्बू भी हिंदुस्तानी फौज में सिपाही थे। लोग उनकी ईमानदारी और निष्ठा की कसमें खाया करते थे उनके अदम्य साहस के लिए उन्हें मरणोपरांत ‘शौर्य चक्र ‘ से सम्मानित किया गया था।आफ़ताब ने भी अपने अब्बू के सपनों को साकार करते हुए फौज को अपना दूसरा महबूब मान लिया था जब तक ड्यूटी पर तैनात रहता उसे वतन के सिवा कुछ और नहीं सूझता फौज में भर्ती हुए उसे महज़ तीन साल ही हुए थे किंतु बड़े -बड़े अफ़सर भी उसकी जांबाज़ी,जिंदादिली और हिम्मत के कायल हो गए थे।

अम्मी बड़े से दालान में बैठी पानदानी से पान लगाने की तैयारी कर रही थीं,बकरियों के छोटे-छोटे दुधमुंहे बच्चे अपनी माँ के पास उछल-कूद करने में लगे थे।
सकीना भारी मन से उठ कर घर के काम समेटने लगी, उसने आफ़ताब के घर वाले कपड़ों को पलंग पर यूँ ही फैला हुआ छोड़ दिया इससे आफ़ताब के करीब होने का उसे अहसास होता था ,रात को उन्हीं कपड़ों को अपनी बाहों के घेरे में कैद कर और कपड़ों से आती जानी पहचानी खुशबू से उसकी पलकें ऐसे बोझिल होने लगती जैसे नशे के सुरूर से किसी मदिरापान किये व्यक्ति की आंखें नशे के भार से मुंदती चली जाती हैं ऐसे ही आफ़ताब की यादों को आगोश में समेटे हुए वो न जाने कब सो जाती।

करीब दो साल पहले सकीना का निक़ाह आफ़ताब से हुआ था। यूँ निकाह के पहले ही ईद के मौके पर आफ़ताब अपनी फूफी के घर पर सकीना से पहली दफ़ा मिला था और देखते ही उसके रूप पर फ़िदा हो गया था। गोरा चिट्टा रंग,छरहरा शरीर,मासूम से चेहरे पर सुंदर से बिठाई गईं एक जोड़ी निर्दोष सी आंखें और गालों में पड़ते भंवर जो मुस्कुराते ही देखने वालों की निगाहों को अपनी गहराई में उलझा लेतीं । घुंघराले बाल जिन्हें लापरवाही से वह खुला ही छोड़ देती । निकाह के रूप में इस रिश्ते को अमली जामा बाद में पहनाया गया।

गोरी चिट्टी सकीना गुलाबी और हरे निकाह के जोड़े में बला की खूबसूरत लग रही थी उसके दमकते रूप और नाक में पड़ी बड़ी सी ‘नथ’ जिसमें दो सफेद मोतियों के बीच एक लाल मोती जड़ा था, उसके नाजुक लबों को उसके हिलते-डुलते और बात करते समय हौले से चूम लेता था । निकाह की पहली ही रात आफ़ताब ने सकीना के हाथों को बड़े प्यार से अपने हाथों में लेते हुए ये वायदा लिया था कि फ़ौज की ड्यूटी से जब वह घर लौटा करेगा सकीना ये ‘नथ’ ज़रूर पहनेगी । आफ़ताब के आगोश में समाते हुए सकीना ने मुस्कुरा कर धीरे से हामी भरी थी।

“अरी ओ नवाबजादी! आज क्या मुझ बुढ़िया को भूखे ही सोना है?” अम्मी की तेज़ आवाज़ सकीना के कानों में पड़ते ही वह आफ़ताब के खयालों से हड़बड़ा कर ऐसे बाहर निकली मानों किसी ने उसकी चोरी पकड़ ली हो और जल्दी-जल्दी अम्मी के लिए खाना परोसने लगी। सकीना के मुरझाए से चेहरे को देखकर अम्मी लाड़ बरसाते हुए बोलीं-“तू अपना भी खाना ले आ नहीं तो बिना खाये सो जाएगी।” सकीना जानती थी कि अम्मी ज़बान से जितने शोले बरसा लें, लेकिन वे उसपर जान छिड़कती हैं बदले में वो भी उनकी ख़िदमत में कोई कसर नहीं छोड़ती थी।

आफ़ताब को गए चार महीने हो गए थे, वो हर रोज़ अम्मी,सक्कू और आने वाले नए मेहमान की ख़ैरियत लेता रहता।आफ़ताब से बात कर सकीना में नई जान आ जाती थी , चहकती हुई वह अम्मी के गले में बाहें डाल उनके पोपले रुख़सारों की चुम्मी ले लेती और बक्से में कई कपड़ों के बीच में सहेज कर रखी ‘नथ’ को निकाल कर कुछ देर पहनकर अपने रूप की ख़ुद नज़र उतार लेती।

उस दिन उसकी खुशी की इन्तहां नहीं थी जब आफ़ताब ने अगले सप्ताह आने की बात कही।सकीना तितली सी उड़-उड़ कर सारे काम करती, उधर अम्मी प्यार भरी झिड़की लगाते हुए आहिस्ते-आहिस्ते काम करने की नसीहत देतीं पर आफ़ताब के आने की खुशी में वो सारी बातें जैसे भूल जाती ।

एक दिन वो खिड़की के पास बैठी किसी मीठी सी धुन को गुनगुना रही थी तभी बाहर देखा कि एक हुजूम उसके घर की तरफ़ बढ़ता आ रहा है खिड़की से उठकर वो दरवाज़े की तरफ लपकी ,भीड़ के आगे फौज के आला अफ़सर और…और ए…क… ता…बू…त तिरंगे से ढका हुआ। ता…बू…त? सकीना अपने मन से ही फुसफुसा कर सवाल करती है।
सकीना को देखकर फौजी अधिकारी अपनी कैप उतारते हुए धीमे किन्तु गर्वीले स्वर में कहने लगा-” बीती रात कुछ आतंकियों ने फौजी कैम्प पर धावा बोल दिया, उन्हीं से लोहा लेते हुए आफ़ताब ने चार आतंकियों को वही ढेर कर दिया। उसने हिंदुस्तान और अपनी कौम दोनों का सिर फ़क्र से ऊंचा कर दिया किन्तु इस मुठभेड़ में हम आफ़ताब को… नहीं…. बचा… पाये ….।” मोहतरमा!आप सुन रही हैं न? हम आफ़ताब को नहीं…..।”

सकीना कभी भीड़ को और कभी फौजी अफसर के चेहरे को परखने की कोशिश करने लगी उसके चेहरे पर कई भाव आये और गए ।वह पत्थर की मुजस्समा बनी टस से मस नहीं हुई, अम्मी सिर पीटते- पीटते उसको झकझोरने लगी किंतु सकीना…न आंखों में आंसू, न चीखना, न चिल्लाना, बिल्कुल सपाट चेहरा …धीरे से उठकर ताबूत को उसने अपने दुपट्टे से हौले से सहलाया मानों आफ़ताब के गालों को सहला रही हो,सकीना बग़ैर कुछ बोले भीतर चली गई। इधर अम्मी छाती पीटती जा रही थीं-“या ख़ुदा! ये तूने क्या किया?मुझ बेवा पर ज़रा तो रहम करता…या मेरे मौला! कुछ तो सकून बख़्श।”

मुहल्ले वाले सदमे में थे, कोई कहे तो क्या कहे ?हौसला दें तो कैसे दें ? अचानक सबकी निगाहें दरवाज़े की तरफ़ उठीं सकीना गुलाबी और हरा निकाह का जोड़ा और नाक में वही ‘नथ’ पहने लड़खड़ाते कदमों से ताबूत के करीब पहुंचते न पहुंचते पछाड़ खाकर गिर पड़ती है आफ़ताब के नूर को,उसकी गर्माहट को अपने जिस्म को समेटे हुए फ़िर कभी न बिछड़ने के लिए…नथ में अब कोई हलचल नहीं थी ।

डॉ रत्ना मानिक
साहित्य का प्रवृत्तिमूलक अध्ययन
पुस्तक के रूप में अभी तक कोई भी रचना प्रकाशित नहीं हुई है।

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